श्रवण एवं कीर्तन के पश्चात भक्ति का तीसरा प्रकार है विष्णुस्मरण ! हम कोई भी बात पहले सनुते हैं, उसके पश्चात हमने जो सुना होता है, उसे दूसरे को बताते हैं और तत्पश्चात स्वाभाविक ही उसका निदिध्यास लेते हैं, जिसके बिना हमें चैन ही नहीं मिलता । सहज निदिध्यास ही प्रेम का लक्षण है । ईश्वर से हम यही प्रेम करते हैं और वही भक्ति होती है । इसमें ईश्वर के बिना बेचैन होना, ईश्वर का विरह, ईश्वर से प्रत्यक्ष मिलने की लालसा, ये सभी बातें अंतर्भूत हैं । श्रवणभक्ति हेतु बताने अथवा लिखनेवाला आवश्यक होता है, कीर्तनभक्ति हेतु कोई तो सुननेवाला आवश्यक होता है; परंतु स्मरण के लिए किसी दूसरे की आवश्यकता नहीं पडती । वहां केवल मेरा ईश्वर और मैं ! स्मरण के लिए स्थल, काल, समय ऐसा कोई बंधन नहीं है । उसके कारण भक्त ईश्वर के अखंड सान्निध्य का अनुभव करता है, स्मरण का यही महत्त्व है । इसी को अनुसंधान कहते हैं । स्मरणभक्ति भक्ति का सबसे प्रभावशाली, सहज, सरल और सभी प्रकार के जीवों के लिए संभव पद्धति है । नवविधाभक्ति में स्मरणभक्ति किसी मुकुट की भांति है ।
- स्मरण इतनी सरल भक्ति है कि उसे करने हेतु हमें अन्य किसी साधन अथवा बुद्धि की आवश्यकता नहीं पडती । मन में कल्पित रूप तुरंत अपने अंतर्चक्षु के सामने आ खडा होता है ।
कबीरदास जी कहते हैं
सुमिरन मारग सहज का, सद्गुरु दिया बताई ।
सांस सांस सुमिरन करु, ऐक दिन मिलसी आये ॥
सद्गुरु ने हमें यह बताया है कि ईश्वर स्मरण का मार्ग अत्यंत सरल है । हमें प्रत्येक सांस में ईश्वर का स्मरण करना चाहिए, तो एक दिन निश्चय ही प्रभु हमें मिलेंगे ।
१. भगवान का स्मरण कैसा है ?
भगवान के स्मरण में सब कुछ है । अन्य सभी बातें, सत्कर्म, दानधर्म, तीर्थयात्रा, पारायण जैसी बातें अन्य अंगों जैसी हैं । इन सभी को अंग माना जाए, तो भगवान का स्मरण प्राण है । अन्य सभी अंग हों; परंतु प्राण न हो; तो उन अंगों का कोई उपयोग नहीं है । अतः ईश्वर के स्मरण को अपने प्राण मानकर उनका स्मरण अखंड होना चाहिए ।
अत्यंत सरल प्रयास है ईश्वर का स्मरण ! हम यह प्रयास कहीं पर भी कर सकते हैं । उसके लिए कुछ सूझना चाहिए अथवा कुछ कल्पना करनी चाहिए, ऐसा नहीं है । हमने देवता का चित्र तो देखा ही है । उसका स्मरण कर भी हमारे मन में देवता के प्रति भाव जागृत हो सकता है । प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर का सूक्ष्म तत्त्व होता है । हम सभी उस सूक्ष्म तत्त्व को अनुभव करने का प्रयास करेंगे । केवल भगवान का स्मरण करने के कारण ‘जहां भाव, वहां देव’ वचन के अनुसार हमें भगवान के अस्तित्व की अनुभूति होगी । हम अभी से प्रतिक्षण ईश्वर का स्मरण करेंगे ।
जो शुद्ध अंत:करण से भगवान का स्मरण करता है, भगवान उसकी भक्ति में बंध जाते हैं । उसकी रक्षा कर ईश्वर उसे भवसागर के पार ले जाते हैं । भगवान का स्मरण ही हमारा एकमात्र आधार है, जो हमें प्रत्येक कठिन परिस्थिति में आधार दे सकता है । भगवान के स्मरण से हमें प्रत्येक कष्ट से मुक्ति मिलती है ।
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती । बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती।
फिरत सनेह मगन सुख अपने । नाम प्रसाद सोच नहि सपने।
तुलसीदास जी कहते हैं, ‘प्रेमपूर्वक हरिनाम के सुमिरन से भक्त बिना परिश्रम मोह-माया की प्रबल सेना को जीत लेता है और प्रभु प्रेम में मग्न हो कर सुखी रहता है । नाम के फल से उसे सपने में भी कोई चिंता नहीं होती।’
धरनि धरहिं मन धीर कह विरंचि हरि पद सुमिरु
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन विपति।
तुलसीदास जी कहते हैं पृथ्वी पर धीरज रखकर भगवान के चरण का स्मरण करो । प्रभु सभी लोगों की पीडा को जानते हैं और महान कष्ट एवं विपत्ति का नाश करते हैं ।
इस कलियुग में तो ईश्वर का स्मरण कल्पवृक्ष के समान है, यह स्मरणभक्ति की महिमा है । सत्ययुग, द्वापर एवं त्रेतायुग में भगवान को प्राप्त करने हेतु कठोर तपस्या करनी पडती थी; परंतु इस कलियुग में भगवान का केवल स्मरण ही उनकी प्राप्ति का साधन है ।
कलियुग केवल नाम आधारा,
सुमिर-सुमिर नर उतरहिं पारा ।
स्मरण का अर्थ याद करना । किसी बात का किया गया चिंतन ! स्मरण हमारे जीवन का एक ऐसा घटक है कि उसके आधार पर हमारा आगे का जीवन निर्भर होता है । स्मरण के अंतर्गत जिसमें हमें कुछ अच्छी बातों का स्मरण होता है । उसमें हमारे जीवन के कुछ अच्छे प्रयास, अविस्मरणीय क्षण, कुछ अनुभूतियां, कठिन प्रसंगों में भी भगवान की कृपा का किया हुआ अनुभव, किसी के द्वारा की गई सहायता, कभी किसी संत अथवा गुरुदेवजी द्वारा दिया गया आशीर्वाद तथा जब हम आनंदित होते हैं, उस समय के क्षणों का स्मरण होता है । इस प्रकार के स्मरण के कारण हमारे आगे के जीवन में भी आनंद भर जाता है ।
परंतु जब हम अनावश्यक बातों का स्मरण करते हैं, उदा. जीवन के कुछ दुखद क्षण का स्मरण होना, किसी के द्वारा किया गया अपमान, कभी किसी का किया गया तिरस्कार, हुए कष्ट, हो रहे कष्ट, दुख, दोष-अहं का स्मरण, ये सब हमारे अगले जीवन में भी हमें दुख ही देते हैं, अर्थात दुखदायक घटनाओं के स्मरण से हम अपने वर्तमान और भविष्य का आनंद खो देते हैं । इसके कारण भगवान अपने स्वयं के द्वारा दिए जा रहे अवसर का अर्थात हमारी ओर स्वयं ही चले आ रहे आनंद का स्वागत करना टाल देते हैं । इस प्रकार के स्मरण के कारण हमें जो प्राप्त हो रहा है हम उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना भूल जाते हैं ।
कृतज्ञता एक बहुत सुंदर भाव है । वह मन में उत्पन्न होनेवाला आदरणीय भाव है । जीव पर उसके बचपन से लेकर बडे होनेतक अनेक लोगों के ज्ञान अथवा अज्ञानवश उपकार होते रहते हैं । हम पर अनेक लोगों के विविध प्रकार के ऋण होते हैं; परंतु हमेें उसका भान नहीं रहता और स्वयं को उसका स्मरण भी नहीं रहता । मान-अपमान के प्रति प्रतिशोध की भावना, दूसरों के दोष, सामनेवाला व्यक्ति कैसे गलत है; इसका हमें सदैव स्मरण होता है । उसके कारण पुनः-पुनः स्मरण कर उस अतीत को हम पुनः-पुनः जीते हैं और विचारों के संदर्भ में नकारात्मक हो जाते हैं ।
इसका अर्थ हमारे विचारों की दिशा अयोग्य होती है और उससे हमारे आगे के जीवन में अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं । ये समस्याएं न आएं; इसके लिए मन में सदैव अच्छी बातों का स्मरण होना बहुत आवश्यक है । इसके लिए स्मरणभक्ति होनी चाहिए । योग्य बातों के स्मरण के कारण मन पर योग्य संस्कार होते हैं । योग्य संस्कारों के कारण आदतें बदल जाती हैं । मन को अच्छी आदतें लगने से जीवन बहुत सुंदर बन जाता है ।
हम सब स्वयं का यह निरीक्षण करें कि प्रतिक्षण हमारा मन किन बातों का स्मरण करता रहता है ? भगवान का अथवा अन्य किसी बातों का ? इस प्रकार स्वयं का निरीक्षण कर हम अपने मन को निरंतर ईश्वर के स्मरण में मग्न रखेंगे ।