कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्ग से साधना करने पर भी बिना गुरुकृपा के व्यक्ति को ईश्वरप्राप्ति होना असंभव है । इसीलिए कहा जाता है, गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।, अर्थात शिष्य का परममंगल अर्थात मोक्षप्राप्ति, उसे केवल गुरुकृपा से ही हो सकती है । गुरुकृपा के माध्यम से ईश्वरप्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने को ही गुरुकृपायोग कहते हैं । गुरुकृपायोग की विशेषता यह है कि यह सभी साधनामार्गों को समाहित करनेवाला ईश्वरप्राप्ति का सरल मार्ग है ।
विभिन्न योगमार्गों से साधना करने में अनेक वर्ष व्यर्थ न गंवाकर अर्थात अन्य समस्त मार्गों को छोडकर किस प्रकार शीघ्र गुरुकृपा प्राप्त की जा सकती है, यह गुरुकृपायोग सिखाता है ।
गुरुकृपा होने के लिए गुरुप्राप्ति होना आवश्यक है । गुरुकृपा तथा गुरुप्राप्ति हेतु की जानेवाली साधना ही गुरुकृपायोगानुसार साधना है । गुरुकृपायोगानुसार साधना के विषय में सर्वांग से और व्यापक दिशादर्शन प्रस्तुत लेखमाला में किया है । इस पहले लेख में हम प्राणिमात्र के जीवन का उद्देश्य, विज्ञान की मर्यादा और अध्यात्म का महत्त्व, गुरुकृपायोगानुसार की जानेवाली साधना के सिद्धांत का विवेचन देखेंगे ।
१. प्राणिमात्र के जीवन का उद्देश्य – आनंदप्राप्ति
मनुष्य ही नहीं, प्रत्येक प्राणिमात्र जन्म से अंतिम श्वास तक, अविरत सुखप्राप्ति होने हेतु संघर्षरत रहता है । सर्वोच्च एवं निरंतर प्राप्त होनेवाला सुख ही आनंद कहलाता है । संक्षेप में, आनंदप्राप्ति ही प्राणिमात्र के जीवन का एकमात्र उद्देश्य है । हम जीवन में अनेक विषय सीखते हैं; परंतु आनंद कैसे प्राप्त करें, यह नहीं सीखते । इस जगत में आनंदमय केवल ईश्वरीयतत्त्व है । अर्थात आनंदप्राप्ति के लिए ईश्वरप्राप्ति करना आवश्यक है ।
२. प्रत्यक्ष जीवन, विज्ञान की मर्यादा एवं अध्यात्म का महत्त्व
प्रत्येक के जीवन में कुछ प्रासंगिक घटनाएं घटित होती हैं । उदाहरणार्थ हमारे किसी निकटतम व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाती है; किसी का विवाह ही नहीं होता; किसी के बच्चे ही नहीं होते; बच्चे हुए भी तो केवल बेटियां होती हैं; किसी को चाकरी (नौकरी) नहीं मिलती; किसी का व्यवसाय नहीं चलता… कितना भी प्रयास करें असफलता ही मिलती है । ऐसा क्यों होता है, यह विज्ञान नहीं बता सकता । इस प्रश्न का उत्तर अथवा इन घटनाओं की तीव्रता कैसे न्यून की जाए, यह भी केवल अध्यात्मशास्त्र ही सिखाता है ।
३. साधना का अर्थ क्या है ?
अध्यात्मशास्त्र के दो भाग हैं – एक है सैद्धांतिक भाग । गीता, रामचरितमानस, ज्ञानेश्वरी, दासबोध इत्यादि ग्रंथों का अभ्यास अध्यात्म का सैद्धांतिक भाग है । दूसरा है प्रायोगिक भाग । इसमें शरीर, मन एवं बुद्धि से कुछ न कुछ कृत्य करना पडता है । इस प्रायोगिक भाग को ही साधना कहते हैं ।
४. गुरु
४ अ. गुरु की आवश्यकता
१. अकेले साधना कर अपने बल पर ईश्वरप्राप्ति करना अत्यधिक कठिन होता है । इसकी अपेक्षा आध्यात्मिक क्षेत्र के किसी अधिकारी व्यक्ति की, अर्थात गुरु अथवा संत की कृपा प्राप्त कर लें, तो ईश्वरप्राप्ति का ध्येय शीघ्र साध्य होता है । उन्हीं की कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । इसीलिए कहा गया है, ये तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस कटाय गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ॥ अर्थात गुरुप्राप्ति होना आवश्यक है ।
२. शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो, इसलिए उसका अज्ञान नष्ट करने हेतु गुरु उसे साधना बताकर उससे वह साधना करवाते हैं एवं अनुभूति भी प्रदान करते हैं । गुरु का ध्यान शिष्य के ऐहिक सुख की ओर नहीं होता (क्योंकि वह प्रारब्धानुसार होता है), अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति की ओर होता है ।
४आ. गुरुतत्त्व एक ही है
गुरु केवल स्थूलदेह नहीं है । गुरु की सूक्ष्मदेह (मन) एवं कारणदेह (बुद्धि) भी नहीं होती, इसलिए वे विश्वमन एवं विश्वबुद्धि से एकरूप हो चुके होते हैं । अर्थात सर्व गुरुओं के मन एवं बुद्धि विश्वमन तथा विश्वबुद्धि होते हैं, इसलिए वे एक ही होते हैं । इसलिए सर्व गुरु बाह्यतः स्थूलदेह से भले ही भिन्न हों, तब भी आंतरिक रूप से वे एक ही हैं ।
५. गुरुकृपायोग
५ अ. अर्थ
कृपा शब्द कृप् धातु से बना है । कृप् अर्थात दया करना तथा कृपा अर्थात दया, करुणा, अनुग्रह अथवा प्रसाद । गुरुकृपा के माध्यम से जीव का शिव से जुडना, अर्थात जीवको ईश्वरप्राप्ति होना, इसे गुरुकृपायोग कहते हैं ।
५ आ. महत्त्व
विभिन्न योगमार्गों से साधना करने में अनेक वर्ष व्यर्थ न गंवाकर अर्थात अन्य समस्त मार्गों को छोडकर किसप्रकार शीघ्र गुरुकृपा प्राप्त की जा सकती है, यह गुरुकृपायोग सिखाता है । इस कारण स्वाभाविक ही इस मार्गद्वारा आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होती है ।
५ इ. विशेषताएं
१. गुरुकृपायोगानुसार साधना करते समय प्रतिभा शीघ्र जागृत होना अर्थात उचित एवं अनुचित के संबंध में ईश्वरीय मार्गदर्शन प्राप्त होना ।
गुरुकृपायोगानुसार साधना करते समय उचित मार्गानुसार साधना आरंभ होने के कारण साधक को नई-नई बातें सूझनी आरंभ हो जाती हैं, अर्थात उसकी प्रतिभाशक्ति जागृत होनी आरंभ हो जाती है । इसके द्वारा ईश्वर उसे उचितअनुचित क्या है, इसके विषयमें मार्गदर्शन करते हैं । कर्म, ध्यान एवं ज्ञानयोग समान अन्य साधनामार्गोंमें अत्यधिक साधना होने के उपरांत ही प्रतिभा जागृत होने का स्तर आता है । गुरुकृपायोगानुसार साधना करते समय जागृत हुई प्रतिभा को बनाए रखना गुरुकृपा एवं साधना हेतु स्वयं के प्रयत्नों पर निर्भर रहता है ।
५ ई. गुरुकृपा कैसे कार्य करती है ?
कोई कार्य हो रहा हो, तो उसमें कार्यरत विविध घटकों द्वारा यह निश्चित होता है वह कार्य कितने प्रमाण में सफल होगा । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक सामर्थ्यवान होता है, जैसे अणुध्वम (अणुबम) से परमाणुध्वम (परमाणुबम) अधिक प्रभावशाली होता है । गुरुकृपा स्थूल, स्थूल और सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम और अस्तित्व (अति सूक्ष्मतम) इन विविध चरण अनुसार/स्तरों पर कार्य करती है । कोई बात हो जाए केवल इतना ही विचार किसी आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत के मन में आया, तो वह बात सत्य हो जाती है । इससे अधिक उन्हें कुछ नहीं करना पडता है । शिष्य की उन्नति हो, ऐसा संकल्प गुरु के मन में आने के उपरांत ही शिष्य की खरी उन्नति होती है । इसी को गुरुकृपा कहते हैं । उसके बिना शिष्य की उन्नति नहीं होती । अंतिम चरण में गुरु के केवल संकल्प से, सान्निध्य में अथवा सत्संग में शिष्य की साधना और उन्नति अपनेआप होती है ।
६. गुरुकृपा निरंतर होने के लिए गुरुकृपायोगानुसार साधना आवश्यक
कार्यालयमें काम करनेवाले कर्मचारीको यदि पदोन्नति चाहिए हो, तो उसे अपने वरिष्ठों की अपेक्षा अनुसार करना पडता है । उसी प्रकार गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा हेतु गुरु का मन जीतना आवश्यक है । अखंड गुरुकृपा प्राप्त करने हेतु गुरु का मन निरंतर जीतना आवश्यक है । और किसी भी योगमार्गानुसार साधना करें, तब भी यह सत्य ही है । गुरु अथवा संतोंको सर्वाधिक प्रिय साधना ही है । अर्थात् गुरुप्राप्ति एवं अखंड गुरुकृपा हेतु तीव्र साधना निरंतर करते रहना ही आवश्यक है । यही गुरुकृपायोगानुसार साधना है ।
७. गुरुकृपायोगानुसार करने योग्य साधना का नियम
७ अ. जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग
गुरुकृपायोगानुसार की जानेवाली साधना का एक ही नियम है और वह है जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग । पृथ्वी की जनसंख्या ७०० करोड से अधिक है, इसलिए ईश्वरप्राप्ति के ७०० करोड से अधिक मार्ग हैं । ७०० करोड में से कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं होते । प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, मन, रुचि-अरुचि, गुण-दोष, आशा-आकांक्षाएं, वासनाएं, सर्व भिन्न हैं; प्रत्येक की बुद्धि भिन्न है; संचित, प्रारब्ध भिन्न हैं, पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश, ये तत्त्व (मनुष्य इन पंचतत्त्वों से बना है ।) भिन्न हैं; सत्त्व, रज, तम, ये त्रिगुण भिन्न-भिन्न हैं । संक्षेपमें, प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति एवं पात्रता भिन्न है । इसीलिए ईश्वरप्राप्ति के साधनामार्ग भी अनेक हैं । अपनी प्रकृति तथा पात्रता के अनुरूप साधना करने पर शीघ्र ईश्वरप्राप्ति होने में सहायता मिलती है ।
सनातन संस्था के सहस्रों साधक गुरुकृपायोग के एक ही छत्र के तले अपनी-अपनी भिन्न साधना कर रहे हैं । इसके विपरीत सांप्रदायिक एवं विभिन्न पंथों की साधना सभी के लिए एक ही होती है ।
८. साधनामें संभवित मूलभूत चूकें
८ अ. स्वयंनिर्धारित साधना करना
८ आ. सांप्रदायिकता
८ इ. गुरु ‘धारण करना’ : वास्तवमें गुरु कोई ‘धारण करने’की वस्तु नहीं है । आवश्यक है कि गुरु कहें, ‘यह मेरा शिष्य है ।’
८ ई. अपनेआपको साधक समझना