क्या सभी संत ‘गुरु’ होते हैं ?
कुछ संत लोगों की व्यावहारिक अडचनों के निवारण हेतु तथा बुरी शक्तियों के प्रभाव के कारण उन्हें होनेवाले दुःख के निवारण हेतु कार्य करते रहते हैं, ऐसे संतों का कार्य ही वही होता है । कोई संत जब किसी साधक को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेता है, तो उसके लिए वे गुरु बन जाते हैं । गुरु केवल ईश्वर की प्राप्ति हेतु पूर्णरूपसे मार्गदर्शन करते हैं । जब कोई संत गुरु बनकर कार्य करने लगते हैं, तब उनके पास जो सकामसंबंधी अडचनें लेकर आता है, धीरे-धीरे ऐसी अडचनों पर उनका मार्गदर्शन करना कम होने लगता है अथवा बंद हो जाता है; परंतु जब वे किसी को शिष्य के तौर पर स्वीकारते हैं, तब वे उसकी पूर्णरूप से जिम्मेदारी उठाते हैं ।
प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत गुरु नहीं होते । इसका कारण यह है कि गुरु शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति के कार्य में मग्न रहते हैं; जबकि संत कभी-कभी भक्तों के सत्संबंधी कार्य भी करते हैं । फिर भी संतों के अधिकांश लक्षण गुरुओं को लागू होते हैं ।
गुरु को कैसे पहचानें ?
एक उदाहरण से हम यह समझ लेते हैं । वैद्य तीन प्रकार के होते हैं – उत्तम, मध्यम व कनिष्ठ । जो वैद्य नाड़ी देखकर, ‘औषधि लो’ ऐसी सलाह देकर चला जाता है । फिर वह रोगी औषधि लेता है अथवा नहीं, इसकी पूछताछ नहीं करता; वह है कनिष्ठ वैद्य । जो वैद्य रोगी को औषधि न लेते देख, ‘दवा लेनेसे तुम स्वस्थ हो जाओगे’, ऐसे नाना प्रकारके मृदु वचन बोलकर उसे समझानेका प्रयत्न करता है, वह हुआ मध्यम वैद्य और जो वैद्य रोगीको किसी भी प्रकार औषधि न लेते देख, उसकी छाती पर घुटने टिकाकर बलपूर्वक दवा खिलाता है, उसे कहते हैं उत्तम वैद्य ।
इसीप्रकार, जो गुरु व आचार्य उपदेश देने के पश्चात् शिष्य की पूछताछ नहीं करते, वे आचार्य अथवा गुरु कनिष्ठ होते हैं । शिष्य उपदेश ग्रहण कर सके, उसका कल्याण हो, इस हेतु जो पुनः-पुनः उसे समझाते हैं व उसपर प्रेम करते हैं, वे हुए मध्यम गुरु; परंतु शिष्य यदि ध्यान नहीं देता अथवा अनुरूप आचरण नहीं करता है, यह देखने पर जो आचार्य प्रसंग के अनुरूप आचरण करनेपर विवश कर देते हैं, वही आचार्य उत्तम होते हैं ।’ अर्थात, यह ज़ोर-ज़बरदस्ती स्थूल माध्यमद्वारा न होकर सूक्ष्मद्वारा की जाती है, इसी कारण सामान्य व्यक्ति की समझ में नहीं आती ।
गुरु ‘ईश्वर’ का रूप होते हैं !
कहा जाता है ‘गुरु ईश्वर का रूप होते हैैं ।’ इसकी वास्तविकता क्या है ? इसका आधारभूत शास्त्र क्या है ?
गुरु अर्थात ईश्वर का साकार रूप व ईश्वर अर्थात गुरु का निराकार रूप, ऐसे शास्त्र बताते हैं । यह हम कुछ उदाहरण द्वारा समझकर लेते हैं ।
१. बैंक की अनेक शाखाएं होती हैं । ऐसे में, दूरके मुख्य कार्यालय में जाकर पैसे जमा करने का कष्ट उठाने की कोई आवश्यकता नहीं; बैंक की किसी भी स्थानीय शाखा में खाता खोलकर पैसे जमा करने से काम बन जाता है, जो कि सुलभ भी है । ईश्वर, जो दिखाई नहीं देते, उनके प्रति भाव-भक्ति, सेवा, त्याग इत्यादि करने की बजाय उनके सगुणरूप के अर्थात गुरु के प्रति यह करना आसान है । स्थानीय शाखा में जमा की गई धनराशि जैसे बैंक के मुख्य कार्यालय में ही चली जाती है, उसीप्रकार गुरु की सेवा करने से वह ईश्वरतक पहुंचती है ।
२. दूसरा वामन पंडितजी का बहुत अच्छा उदाहरण है । उससे गुरू का महत्त्व ध्यान में आता है । वामन पंडित ने संपूर्ण भारत भ्रमण कर बडे-बडे विद्वानों को पराजित किया और उनसे पराजयपत्र लिखवाए । एक बार संध्याकाल में विजयपत्र साथ ले जाते समय वे एक वृक्ष के नीचे संध्या करने बैठ गए । उसी समय उन्हें एक डाल पर एक ब्रह्मराक्षस बैठा दिखाई दिया । एक अन्य ब्रह्मराक्षस भी वहां बैठने ही लगा था कि पहले ब्रह्मराक्षस ने उसे रोककर कहा, ‘‘यह स्थान वामन पंडित के लिए है क्योंकि उसे अपनी विजय का अत्यधिक अहंकार हो गया है ।’’ यह सुनते ही वामन पंडित ने सभी विजयपत्र फाड़ दिए व तपश्चर्या हेतु हिमालय के लिए निकल पड़े । कई वर्ष की तपश्चर्या उपरांत भी जब उन्हें ईश्वरके दर्शन नहीं हुए, तो निराश होकर वे चट्टानसे नीचे कूद पड़े । उसी क्षण ईश्वरने उन्हें थाम लिया व उनके मस्तकपर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया । उसके पश्चात् आगे दिया संभाषण हुआ ।
पंडित : मस्तक पर बायां हाथ क्यों रखा, दाहिना क्यों नहीं ?
ईश्वर : वह अधिकार गुरु का है ।
पंडित : गुरु कहां मिलेंगे ?
ईश्वर : सज्जनगड़ में ।
तदोपरांत वामन पंडित समर्थ रामदासस्वामीके दर्शन हेतु सज्जनगड़ गए । समर्थ ने उनकी पीठपर दाहिना हाथ रखकर आशीर्वाद दिया ।
पंडित : मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद क्यों नहीं दिया ?
स्वामी : अरे, ईश्वरने हाथ रखा है न ।
पंडित : फिर ईश्वरने ऐसा क्यों कहा कि, ‘मस्तक पर हाथ रखने का अधिकार गुरुका है’ ?
स्वामी : ईश्वर का दाहिना अथवा बायां हाथ एक ही बात है । ईश्वर व गुरु एक ही हैं, यह समझते क्यों नहीं तुम !
३. आदि शंकराचार्य ने अपने ग्रंथ सर्ववेदांतसिद्धांतसारसंग्रह में कहा है, ‘‘सैकड़ों जन्म सात्त्विक, श्रद्धायुक्त, वैदिक पद्धति व विधिपूर्वक जब भक्त ईश्वर की उत्तम आराधना करता है, तब कहीं जाकर (किसी जन्म में) प्रभु ईश, अर्थात शंकर, संतुष्ट होकर साक्षात गुरुरूप में दृष्टिगोचर होते हैं । फिर वे उत्तम प्रकार का तत्त्वबोध देकर संसाररूपी दुःखसागर से उस शिष्य का उद्धार करते हैं ।
इसी ग्रंथ में ऐसा कहा गया है कि शिव अर्थात साक्षात् गुरु व गुरु स्वयं शिव हैं । मुमुक्षु को उन दोनों को किंचित्मात्र भी भिन्न नहीं समझना चाहिए ।
हम यह देखते हैं कि हमारे यहां रामकृष्णादि जो अवतार थे, उनके भी गुरु थे । इसका कारण क्या है ?
गुरु का कार्य अधिकतर दो-चार शिष्यों के संदर्भ में होता है, तो दूसरी ओर अवतार का कार्य साधारणतः समाज के संरक्षण हेतु व धर्म की स्थापना हेतु होता है । मानव देह धारण करनेवाले रामकृष्णादि अवतार भी गुरुगृह में रहे व उन्होंने गुरुसेवा कर गुरुकृपा संपादन की । इन सबका अभिप्राय दूसरों को सिखाने का ही होता है ।