हम यहां पर धर्मशास्त्र को समझकर ले सकते हैं ।
१९६० के उपरांत अंग (शरीर के अवयवों का दान) दान प्रथा-सी बन गई है और आधुनिक चिकित्साविज्ञान द्वारा इसे प्रोत्साहित किया जा रहा है । अनेक चिकित्सालयों में किसी व्यक्ति की मृत्यु होते ही अंग दान करवानेवाले संगठन के कार्यकर्ता आकर मृतक के परीवार से अवयव दान के संदर्भ में पूछते हैं । मृतक का परिवार ऐसी दुःखद परिस्थिति में ठीक से सोच-विचार नहीं कर पाता । वह दुविधा में पड जाता है और अनेक बार अवयव दान के लिए अनुमति दे देता है; परंतु ऐसी कठिन परिस्थिति में किया गया अवयव दान, क्या दान की व्याख्या में आ सकता है ? दान तो विचारपूर्वक समाजहित की दृष्टि से करना होता है । आज यदि किसी को हजार-लाख रुपए समाज के लिए दान देने के लिए कहा जाए, तो वह लाख बार सोचता है; परंतु मरने के बाद देहदान करने के लिए वह तैयार हो जाता है । इसका कारण यह है कि वह न तो धर्म जानता है और न ही दान का महत्त्व ! हिन्दू धर्म में अपनी क्षमता के अनुसार दान करने के लिए बताया गया है । इसके लिए कर्ण का उदाहरण भी है ।
ऐसी बात नहीं है कि हिन्दू धर्मशास्त्र में देहदान का उल्लेख ही नहीं, अपितु देहदान के संदर्भ में महर्षि दधीचि की एक कथा भी है !
कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक को ‘वृत्रासुर’ नामक राक्षस ने अपने नियंत्रण में लेकर, इन्द्र सहित सभी देवताओं को देवलोक से निकाल दिया । सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, परंतु समस्या वैसी ही बनी रही । तदुपरांत ब्रह्माजी ने देवताओं को एक उपाय बताया, ‘‘पृथ्वी लोक में ‘दधीचि’ नामक एक महर्षि रहते हैं । यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें और उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाए तो वृत्रासुर इसी वज्र से मारा जा सकता है । इसका कारण यह है कि वृत्रासुर को वरदान मिला है कि उसे किसी भी अस्त्र-शस्त्र सेे नहीं मारा जा सकता । महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है । इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं !’’
देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पडा । महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा । इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने पूछा ‘‘देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूं ।’’ देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की बताईं बातें सुनाईं और उनसे उनकी अस्थियां का दान मांगा । महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार किया । फिर उन्होंने समाधि लगाई और अपना देह त्याग दिया । तदुपरांत इन्द्र आदि देवताओं ने महर्षि दधीचि के अस्थियों से वज्र का निर्माण कर, उससे वृत्रासुर का नाश किया ।
हमारे एक महर्षि ने अपने तपोबल से देहत्याग कर समाज की रक्षा के लिए अंग दान किया है । यहां पर एक बात समझनी आवश्यक है कि यह अंग दान किसी सामान्य व्यक्ति ने नहीं किया था । इसलिए हमारे जैसे सामान्य व्यक्ति के अंग दान का आध्यात्मिक दृष्टि से क्या परिणाम हो सकता है, यह अभी हम जानकर लेते हैं ।
अवयव दान के आध्यात्मिक प्रभाव
१. हमारे प्रत्येक कर्म मेें लेन-देन निर्माण करने की क्षमता होती है । कर्म जो दूसरों को सुख दे, वह पुण्य है और उसके फलस्वरूप हमें सुख मिलता है और जो कर्म दूसरों को दु:ख देता है, उसका दु:खद फल हमें भी भोगना पडता है ।
२. हमें ऐसा लगता है कि अवयव दान करने से किसी का जीवन बचने से हमें पुण्य मिलेगा; परंतु सदैव ही ऐसा होगा आवश्यक नहीं । आध्यात्मिक शोधकार्य से यह देखा गया है कि जब हम अवयव दान करते हैं, तब हम लेन-देन निर्माण करते हैं और अवयव (अंग) प्राप्त होनेवाले व्यक्ति के कर्मों द्वारा संचित पाप तथा पुण्य में सहभागी होते हैं । इसका अर्थ यह है कि यदि दान किया हुआ अवयव (अंग) किसी दुष्ट व्यक्ति के शरीर को स्वस्थ करने के लिए उपयोग किया जाए, तो उसके बुरे कर्मों के फलस्वरूप हमें भी पाप-फल भुगतना पड सकता है ।
आध्यात्मिक उन्नति के परिप्रेक्ष्य से, पुण्य अर्जित करने के लिए सीमाएं हैं ।
३. मृत्यु के उपरांत हमारा क्या होता हैं यह समझना आवश्यक है । मृत्यु के उपरांत, व्यक्ति का अपनी देह, अपने परिवार, संपत्ति इत्यादि के प्रति किसी भी प्रकार की आसक्ति न रहे इसलिए स्थूल शरीर का दहन किया जाता है; परंतु उसके सूक्ष्म-शरीर को अपने भौतिक शरीर और अपनी पूर्व की संपत्ति के प्रति लगाव तुरंत कम नहीं होती । इसीलिए सूक्ष्म-शरीर के एक वर्ष अथवा अधिक समय तक उसके दान किए अंगों और उसकी पूर्व संपत्ति के आसपास मंडराने की संभावना है ।
जब सूक्ष्म-शरीर अपने अवयव अथवा अवयवों केे समीप आता है, तब दो घटनाएं हो सकती हैं । पहली, मृत्यु के उपरांत वह अपनी आगे की यात्रा में न बढ पाने से उस पर अनिष्ट शक्तियां सहजता से आक्रमण कर सकती हैं । दूसरी, सूक्ष्म-शरीर को प्रभावित करनेवाली कोई भी नकारात्मक शक्ति जिसके शरीर में अंगों का प्रत्यारोपण किया है, उस व्यक्ति में संचारित हो सकती है । जिसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति के भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कष्टों में वृद्धि हो सकती है ।
इन कारणों से जो व्यक्ति तपस्वी है अथवा जीवन्मुक्त है, वह समाजहित के लिए देहदान कर सकता है; परंतु सामान्य व्यक्ति यदि देहदान करता है, तो उसे उसके परिणाम भुगतने पड सकते हैं ।
किसी को यह लग सकता है कि अवयव दान के कारण किसी शारीरिक दिव्यांग को नेत्र अथवा अन्य अवयव प्राप्त होने से उसका जीवन सुखी हो सकता है । अब हमें यहां पर ध्यान देना है कि जो भगवान सृष्टि का संचालन करता है, उसनेे सृष्टि के नियमों में अच्छे-बुरे कर्म तथा उस कारण मिलनेवाले फल के संदर्भ में बताया है; परंतु उस पर ध्यान न देकर मनुष्य अपने अहंकार में ही बुरे कर्म करते रहता है । जब उसके शरीर में कोई व्यंग-दोष होता है, तब भी वह भगवान को ही दोष देता है, परंतु वास्तव में वह तो उसी के बुरे कर्मों का फल है । भगवान का तो किसी से निजी बैर नहीं होता । जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों का फल भुगतकर उससे बाहर निकल रहा है, क्या हमें उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार है ? इसलिए किसी भी व्यक्ति के लिए अंग दान करना शास्त्रों के अनुसार अयोग्य है ।