मंदिरों में देवता का पूजन करते समय उपचार के अंतर्गत दर्पण उपचार में देवता को दर्पण दिखाते हैं अथवा दर्पण से सूर्य की किरण भगवान की ओर परावर्तित करते हैं । इस हेतु केरल में धातु से बने हुए विशेष दर्पण के प्रयोग की परंपरा है । यह दर्पण आरनमुळा कण्णाडी नाम से प्रसिद्ध है । यह दर्पण केरल की संस्कृति में बताए अष्टमंगल वस्तुओं में से अर्थात विवाह आदि पवित्र धार्मिक विधियों में उपयोग की जानेवाली ८ पवित्र वस्तुओं में से एक है । ये दर्पण समृद्धि और भाग्यकारक माने जाते हैं, इसके साथ ही वे प्राचीन भारत की विकसित धातु विज्ञान का एक उत्तम उदाहरण हैं । इस दर्पण-निर्मिति की प्रक्रिया और उसमें प्रयुक्त धातुओं के मिश्रण का अनुपात प्राचीन काल से गुप्त रखा गया है ।
इसकी जानकारी पाने के उद्देश्य से २१.३.२०१९ को महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के साधक ये दर्पण जहां बनते हैं वहां केरल स्थित पत्तनम्तिट्टा जिलेके आरनमुळा इस गांव में गए । वहां वे ’श्रीकृष्ण हैंडीक्राफ्ट सेंटर’ दर्पण बनानेवाले कारखाने में गए । इस कारखाने के मालिक श्री. के.पी. अशोकन का दर्पण बनाने का पुश्तैनी व्यवसाय है । वे इस प्रकार के दर्पण बनानेवाले व्यवसायियों के विश्वब्राह्मण मेटल मिरर निर्माण सोसाइटी संगठन के सक्रिय सदस्य हैं । उन्होंने यह विशेष दर्पण बनाने की संपूर्ण प्रक्रिया की जानकारी दी ।
१. आरनमुळा कण्णाडी का अर्थ क्या है ?
‘आरनमुळा एक गांव का नाम है और दर्पण को मलयालम भाषा में कण्णाडी कहते हैं । इसलिए आरनमुला नामक इस गांव में बनाए जानेवाले धातु के दर्पण को आरनमुळा कण्णाडी नाम पडा । केरल में पत्तनम्तिट्टा जिले के पम्बा (पंपा) नदी के किनारे आरनमुळा गांव है । वहां का पार्थसारथी मंदिर सुप्रसिद्ध है । इस मंदिर के आसपास की अनेक दुकानों में आरनमुला कण्णाडी दर्पण देखने मिलता है । इस दर्पण का प्रतिबिंबदर्शक भाग तांबे और कथील नामक धातुओं के विशेष अनुपात के मिश्रण पर विशिष्ट प्रक्रिया कर बनाया जाता है । इन दर्पणका फ्रेम पीतल का होता है । इस दर्पण की विशेषता यह है कि किसी वस्तु को इस दर्पण पर टिका कर रखने से वह वस्तु और दर्पण में दिखाई देनेवाले उस वस्तु का प्रतिबिंब एक-दूसरे से सटकर दिखाई देता है (उनमें अंतर नहीं होता) । इसका कारण यह है कि इस दर्पण में वस्तु का प्रतिबिंब दर्पण के पृष्ठभाग पर दिखाई देता है । सामान्य दर्पण में कांच के पिछले भाग पर प्रतिबिंबदर्शक रसायन का लेप लगाया जाता है । उस रासायनिक लेप में वस्तु का प्रतिबिंब दिखाई देता है । इसलिए सामान्य दर्पण में किसी वस्तु को यदि टिका कर रख दें, तो उस वस्तु और उसके प्रतिबिंब में दर्पण के कांच की मोटाई जितना अंतर रहता है । प्रतिबिंब की यह कमतरता आरनमुळा कण्णाडी में नहीं । यह दर्पण की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषता है । (छायाचित्र क्र. ३)
२. आरनमुळा कण्णाडी दर्पण का इतिहास
हिन्दुओं की परंपरा है कि भगवान को उत्तमोत्तम वस्तु भगवान के लिए प्रयोग करना । इसलिए उनके पूजन में दर्पण उपचार के लिए प्रयोग किया जानेवाला दर्पण भी उत्तम ही होना चाहिए; श्रद्धालुओं की इस लगन और भगवान की कृपा के कारण ही आरनमुळा कण्णाडी नामक इस दर्पण की निर्मिति हुई । यह दर्पण बनाने का व्यवसाय करनेवाले श्री. के.पी. अशोकन ने इसकी निर्मिति का इतिहास आगे दिए अनुसार बताया ।
उनके पूर्वज पार्थसारथी श्रीकृष्ण के मंदिर के काम के लिए अपना मूल गांव छोडकर आरनमुला आकर बस गए । उनके पूर्वजों में से एक को स्वप्न में धातु का दर्पण बनाने का ज्ञान मिला । उस अनुसार प्रयत्न कर उन्होंने दर्पण बनाया और तबसे धातु के दर्पण बनाना आरंंभ हो गया । वर्तमान में ये दर्पण विविध आकारों में उपलब्ध हैं; परंतु उनमें शंख, पद्म आदि कुछ परंपरागत आकार और उनकी लंबाई-चौडाई निर्धारित है ।
३. आरनमुळा कण्णाडी (धातु का दर्पण) बनाने की प्रक्रिया
आरनमुळा कण्णाडी बनाने की प्रक्रिया साधारणत: आगे दिए अनुसार है ।
३ अ. रेखांकन करना
आरनमुळा कण्णाडी में प्रतिबिंब दिखाई देनेवाला धातू का भाग (दर्पण) और अधिकतर पीतल का भाग (फ्रेम), ऐसे दो भाग होते हैं । इन दोनों भागों का कागद पर रेखांकन किया जाता है ।
३ आ. रेखांकनानुसार साचे बनाना
कागद पर बनाए रेखांकनानुसार दर्पण बनाने के लिए चिकनी मिट्टी, गाय का गोबर, भूसा, नारियल की जटा, सूती कपडा आदि से साचे बनाए जाते हैं । (छायाचित्र क्र. १)
३ इ. साचे में धातु का पिघला हुआ मिश्रण डालकर दर्पण और उसका फ्रेम बनाना
दर्पण में प्रतिबिंब दिखाई देनेवाला भाग बनाने के लिए साचे में योग्य अनुपात में डाले गए तांबा और जस्ता पिघलाकर बनाया हुआ मिश्रण और दर्पण के फ्रेम के लिए साचे में पिघलाया गया पीतल डाला जाता है । यह मिश्रण ठंडा होने पर किनारे की मिट्टी निकालकर धातु का भाग स्वच्छ किया जाता है । (छायाचित्र क्र. २)
३ ई. प्राथमिक स्वरूप का दर्पण और फ्रेम को अंतिम रूप देना
प्राथमिक स्वरूप के दर्पण पर कुछ घंटे पॉलीश पेपर पर निरंतर घिसकर दर्पण में यदि स्पष्ट प्रतिबिंब दिखाई देने लगे, तब उसे अंतिम माना जाता है । इस चरण तक आने के लिए अत्यधिक परिश्रम करना पडता है ।
३ उ. धातु का दर्पण पीतल के फ्रेम में बिठाना
धातु से बनाए गोल अथवा लंबगोल आकार का दर्पण लाख, मोम आदि की सहायता से फ्रेम में बिठाया जाता है । इस प्रकार आरनमुळा कण्णाडी तैयार होता है ।
– कु. प्रियांका विजय लोटलीकर और श्री. रूपेश लक्ष्मण रेडकर, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१९.१०.२०१९)
साधक, पाठक और शुभचिंतक को विनम्र आवाहन !
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