आज कहा जाता है – ‘शास्त्रात् रुढिर्बलियसी’ ! धर्मशास्त्र के अज्ञान के कारण ऐसे अनेक अयोग्य विचार, रुढियां समाज में पनप रही हैं । हनुमानजी को घर में नहीं रखना, भगवान श्रीकृष्ण का महाभारत का चित्र घर में नहीं रखना, सुदर्शन चक्रवाला चित्र घर में नहीं रखना, यह सब अंधविश्वास की बातें हैं । दुःख की बात है कि एक ओर तो हम चीनी मेंढक, लाफिंग बुद्धा तथा दौडनेवाले 7 घोडों का चित्र हम घर में रख रहे हैं, तो दूसरी ओर अपने ही देवी-देवताओं को घर से बाहर निकाल रहे हैं । कई बार हमारे धर्मविरोधी भी इस प्रकार प्रचार करके हमारे धर्म के संदर्भ में गलत धारणाओं को फैलाने का कार्य करते हैं । हमें इससे बचकर रहना चाहिए ।
हनुमानजी को रुई (मदार) की माला क्यों चढाते हैं ?
ऐसा कहते हैं कि देवता को जो वस्तु भाती है, वही उन्हें पूजा में अर्पण की जाती है । उदाहरणार्थ गणपति को लाल फूल, शिवजी को बेल, विष्णु को तुलसी इत्यादि । वास्तव में उच्च देवताओं को रुचि-अरुचि नहीं होती । विशिष्ट वस्तु अर्पण करने के पीछे अध्यात्मशास्त्रीय कारण होता है । पूजा का उद्देश्य है मूर्ति में चैतन्य निर्माण होकर पूजक को उसका लाभ हो । यह चैतन्य निर्माण होने के लिए विशिष्ट देवता को विशिष्ट वस्तु अर्पित की जाती है, जैसे हनुमानजी को तेल, सिंदूर एवं मदार के फूल तथा पत्ते । इन वस्तुओं में हनुमानजी के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण, जिन्हें पवित्रक कहते हैं, उन्हें आकृष्ट करने की क्षमता होती है । अन्य वस्तुओं में ये पवित्रक आकृष्ट करने की क्षमता अल्प होती है । इसीलिए हनुमानजी को तेल, सिंदूर एवं मदार के पुष्प-पत्र इत्यादि अर्पण करते हैं ।
ओडिशा राज्य मे विशुभ संक्रांति में हनुमान जयंती क्यों मनाते हैं ?
हनुमान जयंती का पर्व स्थानीय मान्यताओं एवं दिनदर्शिका (कैलेंडर)के आधार पर देश में अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है । हनुमान जयंती उत्तर भारत में चैत्र माह की पूर्णिमा को अर्थात मार्च-अप्रैल में मनाया जाता है । यहां ये पर्व एक दिन का ही होता है । वहीं कुछ ग्रंथों और परंपराओं के कारण ये पर्व दक्षिण भारत में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अर्थात दीपावली से एक दिन पहले और मार्गशीर्ष माह में मनाया जाता है । ओडिशा में ये पर्व वैशाख माह के पहले दिन मनाया जाता है । इसके अतिरिक्त आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में ये महोत्सव के रूप में एक महीने से अधिक समय तक मनाया जानेवाला त्योहार है ।
हनुमान जयंती पर मान्यता : काशी विद्वत परिषद के अध्यक्ष डॉ. कामेश्वर उपाध्याय के अनुसार, मान्यताओं के आधार पर भगवान श्रीराम जन्म से पहले ही धरती पर हनुमानजी का प्राकट्य हो गया था । परंपराओं के अनुसार कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को हनुमानजी का जन्म हुआ था । जो आज के समय में दीपावली के एक दिन पहले आता है । वहीं व्रत रत्नाकर ग्रंथ के अनुसार श्रीराम जन्म चैत्र माह के शुक्लपक्ष की नवमी को मनाया जाता है । उत्तर भारत के अधिकांश भाग में इसी दिन हनुमान जयंती पर्व मनाने की परंपरा है । ग्रंथों के अनुसार हनुमानजी का जन्म मंगलवार को स्वाती नक्षत्र के दौरान मेष लग्न में हुआ था ।
ऐसा क्यों ? : डॉ. उपाध्याय के अनुसार प्राचीन काल में हनुमानजी की पूजा शिव पंचायतन (शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय एवं नंदी ) और राम पंचायतन (श्रीराम, सीता और लक्षमण) के साथ होती थी । कुछ समय बीतने पर हनुमानजी को एकल देवता के रूप में अलग से पूजा जाने लगा । फिर हनुमानजी के मंदिर बनने लगे एवं जयंती पर्व मनाने की परंपरा आरंभ हुई । तब देश में ये पर्व अलग-अलग ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार कहीं चैत्र, वैशाख, कार्तिक और मार्गशीर्ष महीने में मनाया जाने लगा ।
हनुमानजी के सामने सिर झुकाकर नमस्कार नहीं करना चाहिए,
ऐसी एक प्रथा है । इसी समान दूसरा प्रश्न है कि महिलाओं को हनुमानजी के
मंदिर में हाथ जोडकर नमस्कार की अपेक्षा हाथ पीछे बांधकर रखने को क्यों कहा जाता है ?
इन सब विचारों का कारण है – ‘शास्त्रात् रुढिर्बलियसी’ ! धर्मशास्त्र के अज्ञान के कारण ऐसे अनेक अयोग्य विचार, प्रथाएं, रुढियां समाज में प्रचलित हैं । क्या ऐसे कथन के लिए आप किसी धर्मशास्त्र का आधार दे सकते हैं ? हम भी अन्य किसी से इनके लिए धर्मशास्त्र का आधार नहीं मांगते हैं । हमें यह देखना आवश्यक है कि कौन क्या कह रहा है और क्या वह धर्मशास्त्र के आधार पर कह रहा है ? अन्यथा ऐसी अयोग्य धारणाओं का प्रचार होता ही रहेगा और आज की पीढी को अपना ही हिन्दू धर्म अटपटा अथवा अंधश्रद्धा लगने लगता है ।
आप ही सोचिए कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही घर के बडों को नमस्कार, प्रणाम करना सिखाते हैं । हम उन्हें बताते हैं कि बडों को नमस्कार करने से उनसे आशीर्वाद मिलता है । यदि घर के बडों से आशीर्वाद मिलता है, तो क्या महिलाओं के समक्ष हाथ जोडने से वे आशीर्वाद नहीं देंगे ? स्वयं हनुमानजी दास्यभाव में श्रीरामजी के सामने हाथ जोडकर विनम्रता से रहते हैं, तब हमें भी उन्हीं के समान आचरण करना चाहिए और ऐसी अयोग्य धारणाओं को समाप्त करना चाहिए ।
अनेक स्थान पर हनुमानजी और शनिदेवता
के मंदिर एक साथ होते हैं, इसका क्या कारण है ?
आजकल मुख्य देवता के मंदिर के साथ, नवग्रह, शनि तथा हनुमान मंदिर भी बनाए जाते हैं । इसका कारण है कि मंदिर बनानेवाले की यह इच्छा होती है कि लोगों को एकसाथ ही देवताओं के दर्शन का लाभ मिले । इसका एक कारण यह भी है कि शनि की साढेसाती में हनुमानजी की उपासना बताई गई है । इस कारण शनिदेवता और हनुमानजी के मंदिर साथ में बनाने का प्रचलन बढा है ।
कोई विवाह नहीं करता, तो क्या उस पर अनिष्ट शक्ति का कष्ट होता है ?
धर्मशास्त्र के अनुसार मानव जीवन के जन्म, मृत्यु, विवाह आदि बडी घटनाओं का कारण उस मनुष्य का प्रारब्ध होता है । ऐसा संभव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति जो विवाह नहीं करना चाहता अथवा जिसका विवाह नहीं होता, उसके पीछे अनिष्ट शक्ति का कष्ट होता है । कई बार शारीरिक समस्या, मानसिक दुर्बलता तथा किसी में वैराग्य की भावना जागृत होने से भी वे विवाह नहीं करना चाहते । आध्यात्मिक दृष्टि से अनिष्ट शक्ति के कष्ट तथा पूर्वजों के कष्ट अर्थात पितृदोष के कारण भी विवाह में बाधाएं आती हैं । ऐसे समय सर्वाधिक प्रकट शक्ति रहनेवाले हनुमानजी के मंदिर में जाकर साधना करने से तथा पूर्वजों की मुक्ति के लिए प्रयास करने से यह कष्ट दूर हो सकते हैं ।
वानरसेना के बारे में बताए । उन्हें बंदरों की सेना कहकर उपहास किया जाता है ।
आज के आधुनिक मनुष्य को देखें तो वह पशुओं से भी नीच बर्ताव करता है; परंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य प्राणियों को कनिष्ठ मानता है और उनका उपहास उडाता है । रामायण तो त्रेतायुग में घटित हुई । कलियुग से पहले के युगों की वर्तमानकाल से तुलना करना ही अयोग्य है । इस कारण सबसे पहले तो हमें समझकर लेना चाहिए कि हिन्दू धर्म में केवल हनुमानजी तथा वानरसेना में ही पशुओं का उल्लेख नहीं, अपितु हमारे भगवान विष्णुजी के दशावतार में मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नरसिंह अवतार आदि अवतारों में स्वयं भगवान ने भी पशुयोनी में अवतार लिया है । अत: इन अवतारों के कारण हम उन्हें कनिष्ठ नहीं कह सकते । देवता तत्त्व चराचर में है, यह हिन्दू धर्म का तत्त्व है ।
अब देखते हैं, हनुमानजी तथा वानरसेना के संदर्भ में –
वानर शब्द का अर्थ होता है, वन में उत्पन्न होनेवाले अन्न को ग्रहण करनेवाला । जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहनेवाले और वहां का अन्न ग्रहण करनेवाले को गिरिजन कहते हैं, उसीप्रकार वन में रहनेवाले को वानर कहते हैं । श्रीराम अवतार में भगवान को वानरों से बहुत सहायता मिली थी, इस कारण प्रथम यह जानने का विषय है की वह वानर कौन थे ?
श्रीमद वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के १७ वें सर्ग में लिखा है
पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः।
उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम् ॥
सत्यसन्धस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः ।
विष्णोः सहायान् बलिनः सृजध्वं कामरूपिणः॥
अर्थ : भगवान विष्णु के महाराजा दशरथ के पुत्र राम के रूप में अवतरित होने के उपरांत ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा, ‘‘आप सभी भगवान की सहायता के लिए अपने-अपने तेज से बलवान इच्छाधारी जीवों को उत्पन्न करें ।’’ तब ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर देवताओं ने अपने-अपने तेज से गन्धर्वी, यक्षी, विद्याधरी, वानरी आदि स्त्रियों में वानररूपधारी अनेक पुत्रों को उत्पन्न किया। इन्द्र ने बालि को, सूर्य ने सुग्रीव को, कुबेर ने गन्धमादन को, विश्वकर्मा ने नल-नील को, पवनदेव ने श्री हनुमान इत्यादि को उत्पन्न किया । क्योंकि रावण को यह वर मिला हुआ था कि उसकी मृत्यु देवताओं के हाथों नहीं हो सकती, केवल मनुष्य तथा वानर के हाथों ही हो सकती है । इसलिए श्रीविष्णु को नर अर्थात मनुष्यरूप तथा अन्य देवताओं को वानर का रूप धारण करना पडा था । वह सभी वानर देवीय गुणों से संपन्न इच्छाधारी थे । इसलिए आवश्यकता अनुसार रूप धारण कर सकते थे ।
श्रीमद् वाल्मीकि रामायण के सुंदर काण्ड के द्वितीय सर्ग में श्रीहनुमानजी के लिए लिखा है : सूर्यास्त होने के बाद हनुमानजी ने अपने शरीर को छोटा बना कर बिल्ली का रूप धारण किया और उसी अपूर्वं रूप में रावणके अन्तःपुर में घुस गए ।
यह सभी देवता स्वरूप वानरों के इच्छाधारी होने का प्रमाण है ।
सुंदरकांड के ही एकपंचाश्च: सर्ग में हनुमानजी ने स्वयं रावण से कहा है : राक्षसों के राजाधिराज ! मैं भगवान् श्री राम का दास, उनका दूत हूं और विशेष बात यह है कि वानर हूं ।
अब प्रश्न उठता है कि वानर यदि बंदर थे तो इतने बुद्धिमान कैसे थे ?
पहले ही कहा गया है कि श्रीराम अवतार के कार्य में सहायता करने के लिये देवों के अंश से वानरों का जन्म हुआ था । इसलिए वानरों का सर्वगुण संपन्न होना, समस्त वेदों का ज्ञान होना, सुसंस्कृत देवभाषा का प्रयोग करना इत्यादि के संदर्भ में कोई संदेह नहीं होना चाहिए ।
इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीराम अवतार की पूर्णता तथा रावण को प्राप्त वरदान के कारण ही सभी देवों ने वानर अर्थात बंदर प्रजाति में जन्म लिया था । श्रीराम अवतारी कार्य की समाप्ति के पश्चात उनके निज धाम लौट जाने पर श्रीहनुमानजी को छोड कर यह सभी वानर श्रीराम के साथ वैकुण्ठ चले गए ।
क्या हनुमानजी आज भी जीवित हैं ? उनके दर्शन हो सकते हैं ?
हनुमानजी सप्तचिरंजीवों में से एक हैं । अर्थात सदैव जीवित रहनेवाले । हनुमानजी ने त्रेतायुग में श्रीरामजी की अवतारसमाप्ति के उपरांत भी द्वापारयुग में महाभारत के युद्ध में सहभाग लिया था । उसके उपरांत कलियुग में संत तुलसीदासजी तथा समर्थ रामदासजी, इन संतों ने हनुमानजी के दर्शन किए हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है । श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि कलियुग में हनुमानजी का निवास गंधमादन पर्वतपर रहता है । ऐसे कहा जाता है कि यह पर्वत हिमालय की श्रृंखलाओं में तिब्बत के आगे है ।
हनुमानजी के दर्शन के संदर्भ में पुराणों में लिखा है कि –
’यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि । वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥’’
अर्थात कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं । यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा से इनका आश्रय ले, तो फिर तुलसीदासजी की भांति उसे भी हनुमान और राम-दर्शन होने में देर नहीं लगती ।
हनुमानजी के पंचमुख में नरसिंह, वराह आदि
भगवान विष्णु के अवतारों के भी मुख हैं, इसका कारण क्या है ?
पंचमुखी हनुमानजी के संदर्भ में अन्य एक पौराणिक कथा भी है कि एक ‘मरियल’ नामक दानव भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र चुराता है और जब हनुमान को यह बात पता लगती है तो वे चक्र पुनः प्राप्त कर भगवान विष्णु को सौप देंने का संकल्प लेते हैं ।
मरियल दानव इच्छानुसार रूप बदलने में कुशल था, अत: विष्णु भगवान ने हनुमानजी को आशीर्वाद देने के साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करनेवाला नरसिंह-मुख, हयग्रीव मुख ज्ञान प्राप्त करने के लिए तथा वराह मुख सुख व समृद्धि के लिए प्रदान किए । पार्वतीजी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया । इन सबकी शक्तियों और सभी के आशीर्वाद के साथ हनुमानजी मरियल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे । तभी से उनके इस पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई ।
वास्तव में हमें यह सीखना है कि प्रभु श्रीराम, विष्णुजी के अवतार थे और हनुमानजी रुद्रावतार थे । भगवान श्रीराम ने स्वयं रामेश्वर में शिव भगवान की पूजा की थी । इससे हमें यह सीखने मिलता है कि ‘हरि और हर’ भिन्न नहीं हैं, देवताओं मे कार्य के अनुसार प्रकट शक्ति होती है । असुर-वध के लिए उस असुर को नष्ट करने की आवश्यकताओं के अनुसार देवताओं के विविध अवतार होते हैं, उदाहरण के लिए हिरण्यकश्यप के लिए नरसिंह अवतार, भस्मासुर के लिए मोहिनी अवतार । इसीप्रकार अहिरावण का वध करने के लिए हनुमानजी ने पंचमुखी रूप धारण किया था । इसलिए कि इस रूप में एक साथ पांच अवतारों की शक्ति समाहित है ।
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Sir, aap bahut achchha kaam kar rahe hai. Om Gan Ganapataye Namaha || Jay Shriram ||
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