१. मानस सर्व देहशुद्धि का अभिप्रेत अर्थ
यहां सर्व देहशुद्धि, अर्थात स्थूलदेहसहित मनोदेह (मन), कारणदेह (बुद्धि) और महाकारणदेह (अहं) इन सूक्ष्मदेहों की शुद्धि ।
२. मानस सर्व देहशुद्धि का अध्यात्मशास्त्रीय आधार
२ अ. संतों के संकल्प से लाभ !
यह मानस सर्व देहशुद्धि साधना-पद्धति सनातन के छठे संत पू. राजेंद्र शिंदेजी ने बताई है । इसलिए, इसे साधना-पद्धति सुननेवालों को भी उनके संकल्प का लाभ मिलेगा । – संकलनकर्ता
३. लाभ
३ अ. शारीरिक
रोग की तीव्रता घट सकती है ।
३ आ. मानसिक
नकारात्मक विचार घटने से उत्साह बढता है ।
३ इ. आध्यात्मिक
१. नामजप एक लय में होने लगता है और ध्यान लगने में सहायता होती है ।
२. अनिष्ट शक्तियों के कारण मन में आनेवाले वासना के विचार घटने में सहायता होती है ।
३. अनिष्ट शक्तियों से पीडित साधक इस पद्धति का उपयोग करें, तो उनका कष्ट घटने लगेगा ।
४. पू. राजेंद्र शिंदेजी द्वारा बताई गई मानस सर्व देहशुद्धि की प्रक्रिया
आगामी सर्व क्रियाएं अनुभव करते हुए अत्यंत मंद गति से कहना है ।
४ अ. भावपूर्ण प्रार्थना
हम पहले भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना कर अपने में संपूर्ण शरणागतभाव लाने का प्रयास करेंगे ।
हे श्रीकृष्ण, मैं आपकी शरण में आया हूं । आपके अस्तित्व और चैतन्य से मुझे पूरा लाभ हो, ऐसी कृपा कीजिए । इस प्रार्थना के पश्चात, श्रीकृष्ण से चैतन्य का प्रवाह मेरी ओर आने लगा है । यह प्रवाह सहस्रारचक्र से मेरे शरीर में जा रहा है । यह प्रवाह प्रत्येक श्वास के साथ मेरे शरीर में जा रहा है ।
४ आ. चैतन्य से शरीर के अवयवों का क्रमशः शुद्धीकरण
४ आ १. दायां पैर
चैतन्य का प्रवाह मेरे दाएं पैर में जा रहा है । मेरा दायां पैर, उसकी पांचों उंगलियां और तलवे धीरे-धीरे चैतन्य से भरते जा रहे हैं । अब दायां पैर घुटनों तक चैतन्य से भर गया है । यह चैतन्य पेट तक पहुंच गया है और आगे बढता ही जा रहा है । अब जांघ भी चैतन्य से भरती जा रही है । श्रीकृष्ण की ओर से आनेवाली अखंड चैतन्यधारा से मेरे शरीर में चैतन्य बढ रहा है । अब दाईं जांघ तक पूरा पैर चैतन्य से भर गया है ।
टिप्पणी – दाएं पैर की ही भांति बाएं पैर को शुद्ध करना है ।
४ आ २. कटि से कंधा तक
मेरे, दाएं और बाएं दोनों पैर, चैतन्य से भर गए हैं । इसके पश्चात, यह चैतन्य कटि के निचले भाग में जमा हो रहा है तथा वह बढता ही जा रहा है । अब कोख और कटि के नीचे का संपूर्ण भाग चैतन्य से भर गया है । इसके पश्चात, इस चैतन्य का प्रवाह पेट में जा रहा है । अब पेट भी चैतन्य से भर गया है । श्रीकृष्ण की कृपा से मेरे शरीर में चैतन्य संचित हो रहा है । जिस प्रकार, किसी नल के नीचे बरतन रखने पर उसमें पानी संचित होता है, उसी प्रकार, मेरे शरीर में चैतन्य संचित हो रहा है । अब यह चैतन्य छाती में भी संचित हो रहा है । अब छाती चैतन्य से भर गई है । अब पीठ और छाती चैतन्य से भर गई हैं । कंधे तक का शरीर चैतन्य से भर गया है ।
४ आ ३. दायां हाथ
दाएं हाथ की पांचों उंगली और कलाई तक का भाग चैतन्यमय हो गया है । अब यह चैतन्य बढ रहा है । कलाई और कोहनी तक का भाग धीरे-धीरे चैतन्य से भर रहा है । श्रीकृष्ण की मुझ पर कितनी कृपा है ! मेरा शरीर चैतन्यमय हो रहा है । भुजाआें में चैतन्य भर रहा है । अब, पूरा दायां हाथ चैतन्य से भर गया है ।
टिप्पणी – दाएं हाथ की ही भांति बाएं हाथ को शुद्ध करना है ।
४ आ ४. गले से सहस्रारचक्र तक शरीर चैतन्यमय होना
अब यह चैतन्य गले में पहुंच गया है । गला चैतन्य से भर गया है । अब चैतन्य मेरे मुख और सिर की ओर जा रहा है । अब मुख भी चैतन्य से भर गया है । नाक के दोनों छिद्रों में चैतन्य भर गया है । दोनों कान में चैतन्य का प्रवाह जा रहा है । दोनों आंखें चैतन्य से भर गई हैं । अब, भगवान की कृपा से मेरा पूरा शरीर चैतन्यमय हो गया है ।
४ आ ५. स्थूलदेह में स्थित सर्व कष्टप्रद शक्तियां नष्ट होने के लिए प्रार्थना
हे श्रीकृष्ण, आपके चरणों में शीश झुकाकर प्रार्थना करता हूं कि इस चैतन्य से मेरे शरीर में स्थित सर्व कष्टप्रद शक्तियां नष्ट हों । अब शरीर की सर्व कष्टप्रद शक्यिां नष्ट होने लगी हैं ।
४ इ. सूक्ष्मदेह
हे भगवान, मुझ पर कृपा करें । यह चैतन्य, मेरी सूक्ष्मदेह में भी जाए । अब चैतन्य, मेरी सूक्ष्मदेह की ओर भी जाने लगा है ।
४ इ १. प्राणदेह
मेरी प्राणदेह चैतन्यमय हो रही है । प्राणदेह में चैतन्य भरता जा रहा है । इससे मेरी प्राणशक्ति बढ रही है । प्राणदेह चैतन्यमय होने के पश्चात अब यह चैतन्य मनोदेह की ओर जा रहा है ।
४ इ २. मनोदेह (बाह्यमन और अंतर्मन)
मनोदेह में चैतन्य जा रहा है । अंतर्मन में मेरे स्वभावदोषों के केंद्र हैं । अरे बाप रे ! मेरे अंतर्मन में इतने दोष हैं ! चैतन्य, भीतर ही भीतर गहराई में जा रहा है । दोषों से मन पर निर्मित कष्टदायक आवरण से चैतन्य युद्ध कर रहा है । मुझे साधना कर दोष शीघ्र अल्प करने हैं । भगवान की कृपा से मेरे सर्व दोषों पर निर्मित कष्टदायक आवरण नष्ट हो रहे हैं । दोष भी दुर्बल होते जा रहे हैं ।
४ इ २ अ. बाह्यमन और अंतर्मन पर चैतन्य का प्रभाव :
धीरे-धीरे अंतर्मन पर चैतन्य का प्रभाव पड रहा है । अब पूरा अंतर्मन चैतन्य से भर गया है । बाह्यमन भी चैतन्य से भर गया है । सर्व दोष और उनसे निर्मित आवरण दूर होने से मेरा मन तनावमुक्त हो गया है । अब मुझे शांति और प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । मनोदेह का आवरण पूर्णतः हट गया है और यह चैतन्यमय हो गया है ।
४ ई. कारणदेह (बुद्धि)
अब यह चैतन्य कारणदेह में जा रहा है । इससे बुद्धि के ऊपर का आवरण दूर हो रहा है । बुद्धि पर छाया पूरा आवरण नष्ट हो रहा है । बुद्धि मुझे बार-बार कह रही है, ईश्वर को प्राप्त करना ही तुम्हारे जीवन का प्रथम और अंतिम ध्येय है । तुम्हें केवल ईश्वर प्राप्त कर, यह मनुष्यजन्म सार्थक करना है । अब यह सब बुद्धि को ठीक से समझ में आने लगा है । सात्त्विकता बुद्धि का बल है । यह बल बढता जा रहा है । अब बुद्धि पूर्णतः चैतन्यमय हो गई है, कारणदेह शुद्ध हो गई है ।
प्राणदेह, मनोदेह तथा कारणदेह पूर्णतः शुद्ध हो गई हैं ।
४ उ. महाकारणदेह
अब यह चैतन्यप्रवाह महाकारण देह की ओर जा रहा है । अरे, इसमें इतना अहंभाव है ! चैतन्य महाकारण देह में नहीं जा पा रहा है क्योंकि; अहं का बहुत मोटा आवरण मेरे सर्व ओर है । मैं यहां ईश्वर से मिलने के लिए आया हूं । किंतु, इस अहं के कारण मैं उनसे दूर हूं । चैतन्यप्रवाह को महाकारणदेह में जाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड रहा है । अंततः, भगवान की ही जीत होती है । अब महाकारण देह में भी चैतन्य जाने लगा है । महाकारण देह पर से आवरण हट रहा है । मेरी महाकारणदेह में चैतन्य जाने लगा है । मुझे अपने अहं का बोध हो रहा है । ईश्वर यह अहंभाव दूर कर कर रहे हैं । अहंभाव दूर करना चाहिए, यह विचार अब बढ रहा है और अब मेरी महाकारणदेह धीरे-धीरे चैतन्यमय हो रही है । अहा ! कितना आनंद मिल रहा है ।
४ ऊ. स्थूलदेह और सूक्ष्मदेह चैतन्यमय होना
स्थूल और सूक्ष्म देह पूर्णतः शुद्ध, पवित्र एवं चैतन्यमय हो गई हैं । ऐसी शुद्ध और पवित्र देह श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर, प्रार्थना कर रहा हूं, हे प्रभु, मेरा जीवन आपको अर्पित करता हूं; मेरा उद्धार कीजिए; मुझे सेवा और साधना करना सिखाइए ।
५. शरणागतभाव से श्रीकृष्ण से की गई प्रार्थनाएं
५ अ. हे प्रभु, मैं आपकी शरण में आया हूं । आप जैसा उचित समझें, उस स्थिति में मुझे रखें । मेरा अहंभाव पूर्णतः नष्ट करें । मेरा प्रतिपल अपमान हुआ, तो भी कोई बात नहीं । किंतु, मुझे सदा अपने चरणों के पास स्थान दीजिए । दोषों के कारण मेरी हानि हो रही है । कभी-कभी लगता है कि मैं माया में फंसा हुआ हूं । इससे छुडाकर मुझे अपने चरणों के पास ले चलिए । मैं आपके पास आने के लिए तत्पर हूं । आप मुझे सदैव इसी स्थिति में रखिए । मुझे निरंतर मेरे दोष एवं अहं का बोध कराते रहें । भावजागृति के लिए कौन-कौनसे प्रयत्न करने चाहिए, अष्टांग साधना कैसे करनी चाहिए, यह आप मुझे सदैव बताते रहें प्रभु !
५ आ. आप जो कुछ बताते हैं, वह मुझे समझ में आए, मैं सबकुछ छोडकर आपकी शरण में आया हूं । आप मुझे सदैव सिखाते रहते हैं; किंतु, मेरी मनःस्थिति ठीक न होने के कारण मुझे समझ में नहीं आता । मेरे मन को सदैव सीखने की स्थिति में रखें प्रभु !
अब, श्रीकृष्णजी के चरणों में संपूर्ण शरणागतभाव से कृतज्ञता व्यक्त कर, आंखें धीरे-धीरे खोलनी हैं ।
६. निरर्थक विचार दूर होने हेतु प्रार्थना !
निरर्थक विचारों से मन का अस्वस्थ होना, नकारात्मकता आना और निरुत्साह लगना, जैसे कष्ट होते हैं । ऐसे अकस्मात उत्पन्न होनेवाले विचारों का मूल कारण हमारी बुद्धि को अवगत नहीं होता । यह कारण, आध्यात्मिक भी हो सकता है । यह पहचानने के लिए एक लक्षण है, बाह्य परिस्थिति प्रतिकूल न होने पर भी, मन में ऐसे विचार आना, कुछ न सूझना इत्यादि । इन सर्व विचारों पर एक ही प्रभावी उपाय है, ईश्वर से प्रार्थना करना ।
अ. हे श्रीकृष्ण, बलवान अनिष्ट शक्तियां मेरे मन में निरर्थक/नकारात्मक विचार उत्पन्न कर रही हैं । (मन के सर्व विचार श्रीकृष्ण से कहें ।) ये विचार मेरे नहीं हैं । इन्हें पूर्णतः नष्ट कीजिए ।
आ. हे श्रीकृष्ण, विचारों के माध्यम से मुझे कष्ट देने के लिए मांत्रिकों ने जो शक्ति, यंत्र और तंत्र बनाए हैं, वे समूल नष्ट हों एवं विचार डालनेवाले बलवान अनिष्ट शक्तियों को अपने पाश से बांधिए ।
उपर्युक्त प्रार्थना के साथ प्रत्येक नकारात्मक विचार पर सकारात्मक दृष्टिकोण देते रहें ।
टिप्पणी : इस लेख में दिया हुआ, मानस सर्व देहशुद्धि, यह पद्धति केवल मार्गदर्शक है । आप इसमें अपने भाव के अनुसार परिवर्तन कर सकते हैं ।
अच्छा लेख है ।