देवर्षि नारद

साक्षात श्रीविष्णुजी ने की नारदजी की स्तुति !
सदा सर्वदा हरिकीर्तन । ब्रह्मसुत करी आपण ।
तेणें नारद तोचि नारायेण । बोलिजेत आहे ॥ ३०॥

अर्थ : ब्रह्माजी के पुत्र नारद सदोदित हरिगुण गाते हैं । उसके कारण लोग उन्हें प्रत्यक्ष नारायण कहते हैं । (नारद सर्वदा सर्वकाल हरिकीर्तन ही करते हैं; इसलिए उन्हें नारायणस्वरूप माना गया है ।)

जो अखंड भगवान का कीर्तन और उनकी स्तुति में कीर्तनरूपी भक्ति करता है, उसकी स्तुति साक्षात भगवान ही गाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – ‘देवर्षीणाम् च नारद:।’ अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं ।

 

भगवान श्रीकृष्ण ने की नारदजी की स्तुति !

एक बार महीसागर संगम तीर्थ में भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारदजी की पूजा अर्चना की । वहां  महाराज उग्रसेन ने पूछा ‘‘जगदीश्‍वर श्रीकृष्ण ! आपके प्रति देवर्षि नारदजी का अत्यंत प्रेम कैसे है ?’’ भगवान श्रीकृष्णने कहा ‘‘राजन ! मैं देवराज इन्द्र द्वारा किए गए स्तोत्रपाठ से दिव्य-दृष्टि संपन्न श्री नारदजी की सदा स्तुति करता हूं ! आप भी वह स्तुति सुनिए !

‘जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए हैं, जिनके मन में अंहकार नहीं है, जिनका विश्‍वविख्यात चरित्र किसी से छिपा नहीं है, जिनमें उद्वेग, क्रोध, चपलता व भय का सर्वथा अभाव है, जो धीर होते हुए भी दीर्घसूत्री (किसी कार्य में अधिक विलंब करनेवाले) नहीं हैं, जो कामना या लोभवश असत्य नहीं कहते, जो अध्यात्म गति के तत्त्व को जाननेवाले हैं, जो ज्ञानशक्ति संपन्न तथा जितेन्द्रिय हैं, जिनमें सरलता है और जो यथार्थ बात कहनेवाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूं !

जो तेज, यश, बुद्धि, विनय, जन्म तथा तपस्या – इन सभी दृष्टियों से बडे हैं, जिनका स्वभाव सुखमय, वेश सुन्दर और भोजन उत्तम; जो प्रकाशमान, शुभदृष्टि-संपन्न तथा सुन्दर वचन बोलनेवाले हैं, जो उत्साहपूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पाप का लेशमात्र भी नहीं है, जो परोपकार करने से कभी अघाते नहीं, जो सदा वेद, स्मृति व पुराणों में बताए हुए धर्म का आश्रय लेते हैं तथा प्रिय-अप्रिय से रहित हैं, जो आलस्य रहित तथा बहुश्रुत ब्राह्मण हैं, जिनके मुख से अद्भुत बातें सुनने मिलती हैं, जिन्हें धन के लोभ, काम अथवा क्रोध के कारण भी पहले कभी भ्रम नहीं हुआ है, जिन्होंने इन तीनों दोषों का नाश कर दिया है, जो कल्याणमय भगवान व भागवत धर्म में दृढ भक्ति रखते हैं, जिनकी नीति बहुत उत्तम है, जिनके मन में किसी संशय के लिए स्थान नहीं है, जो बडे अच्छे वक्ता हैं, तपस्या का अनुष्ठान ही जिनका जीवन है, जिनका समय भगवत-चिंतन में ही व्यतीत होता है और जो अपने मन को सदा वश में रखते हैं, उन श्री नारदजी को मैं प्रणाम करता हूं !

जिन्होंने तप के लिए श्रम किया, जिनकी बुद्धि पवित्र एवं वश में है, जो समाधि से कभी तृप्त नहीं होते, अपने प्रयत्न में सदा सावधान रहते हैं, जो अर्थ लाभ होने से हर्ष नहीं मानते व हानि से क्लेश का अनुभव नहीं करते, जो सर्वगुणसंपन्न, दक्ष, पवित्र, कालज्ञ व नीतिज्ञ हैं, उन देवर्षि नारदजी को मैं भजता हूं !’

श्रीविष्णु बताते हैं इस स्तुति के कारण मुनि-श्रेष्ठ नारद मुझ पर अधिक प्रेम रखते हैं ! ’’

देवर्षि नारदजी की इस स्तुति के द्वारा भगवान विष्णु भक्तों के आदर्श गुणों को प्रकट करते हैं ! भक्त की इतनी महिमा है कि स्वयं भगवान भी उनकी स्तुति करते हैैं ।

भगवद् भक्तों के गुणों का स्मरण करनेवाले में भी वे गुण आते है । भक्त की स्मृति तथा उनके गुणों का स्मरण, चर्चा करने से अंतःकरण पवित्र होता है और जगत का मंगल होता है !

साक्षात भगवान को जिसकी स्तुति गाना प्रिय है, उस भक्त की भक्ति कितनी होगी ? उस भक्त ने भगवान का मन कैसे जीत लिया है ?, जिसने अपने तन-मन के साथ अपना संपूर्ण जीवन ही भगवान को समर्पित कर दिया है, यही विशेषताएं हमें नारदजी से सिखने को मिलती हैं ।

भगवान श्रीकृष्णजी ने अत्युच्च शब्दों में अपने भक्त देवर्षि नारदजी की स्तुति की । ईश्‍वर प्रतिक्षण अपने भक्तों का स्मरण करते हैं । इससे श्रीकृष्णजी को देवर्षि नारदजी के प्रति कितनी कृतज्ञता लगती है, यह ध्यान में आता है । जिसप्रकार नारदमुनि भगवान का अखंड स्मरण और स्तुति करते हैं; उसीप्रकार श्रीकृष्णजी भी अखंड अपने भक्त का स्मरण एवं स्तुति करते हैं, यही इससे सीखने मिला । इसीप्रकार हमें भी श्रीकृष्णजी के प्रिय भक्त बनने हेतु हमारे द्वारा उनकी अधिकाधिक स्तुति कैसी होगी, इसके लिए प्रयास करेंगे । यही कीर्तन भक्ति है ।

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