सीता का पतिधर्म अलग और उर्मिला के लिए अलग कैसे ?
वनवास में जाने की आज्ञा श्रीराम को हुई थी । सीता क्योंकि अर्धांगिनी थी; इसलिए श्रीराम के जीवन के सुख-दुःख के किसी भी कर्म में सहभागी होना ही उनका धर्म था । इस कारण वह श्रीराम के साथ वनगमन में साथ चली । परंतु लक्ष्मणजी को कोई पिता का वचन या आज्ञापालन आवश्यक नहीं था, वह तो श्रीराम के प्रेम से साथ चले थे । इसकारण वह बात उर्मिला पर लागू नही होती ।
श्री रामजी की अवतार समाप्ति कैसे हुई थी ?
पृथ्वी पर का कार्य समाप्त होनेपर प्रभु श्रीरामने सरयू नदी में जलसमाधि ले ली । आजकल श्रीरामजी के आदर्श पर चलना लोगों को संभव नहीं होता है; पर हिन्दू धर्मविरोधी उनके संदर्भ में जानबूझकर गलत धारणाओं का प्रचार करते हैं ।
ऐसे कहा जाता है कि कैकयी माता के कान मंथरा ने भरे, तो मंथरा की क्या भूमिका है ?
कैकेयी की माता को उनके पिता ने राज्य के बाहर निकालने के कारण उनका संगोपन मंथरा ने किया था । इसकारण कैकेयी पर मंथरा का प्रभाव था । कैकयी से विवाह के समय उनके पिता को महाराज दशरथ ने वचन दिया था कि मैं कैकयी के पुत्र को राजा बनाउंगा । इसलिए कि उस समय कौशल्या एवं सुमित्रा को पुत्र नहीं था । फिर दशरथ का कैकेयी से विवाह के पश्चात भी उसे पुत्र नहीं हुआ । तत्पश्चात यज्ञ के प्रसाद के कारण कौशल्या, सुमित्रा व कैकेयी सभी को पुत्रप्राप्ति हुई । कैकेयी का श्रीराम पर अत्यंत प्रेम था । जब ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण श्रीराम का राज्याभिषेक निश्चित हुआ । तब भी कैकेयीने उसका कोई विरोध नहीं किया था, वह भी आनंद में थी; फिर मंथरा ने उसे दशरथजी के वचन का स्मरण करवाया । उस समय मंथरा पर शनि का प्रभाव था । ऐसा कहा जाता है कि देवताओं ने रावण वध के लिए ही शनिद्वारा मंथरा से ऐसे करवाकर लिया था । रावण के अत्याचारों से जनता पीडित थी । इस कारण उसका वध आवश्यक था और यह कार्य श्रीरामके सिवाय अन्य कोई नहीं कर सकता था । इसलिए हमें कार्यकारणभाव समझकर लेना आवश्यक है ।
प्रभु श्रीराम ने समुद्र पर ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की धमकी दी, क्या रावण के साथ युद्ध में यह प्रकृति को हानि पहुंचानेवाला नहीं है ? प्रभु श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है । संपूर्ण जीवनकाल में ऐसे ३-४ ही प्रसंग हैं, जब प्रभु श्रीराम क्रोधित हुए । इसमें से एक यह समुद्र को रास्ता देने की विनती का प्रसंग है । यदि हम इस प्रसंग को समझ लें, तो इसके पीछे की भूमिका ध्यान में आ सकती है ।
रामेश्वरम से लंका के मार्ग में विशाल समुद्र आने के कारण पूरी वानरसेना का उत्साह भंग हो गया । तब लक्ष्मणजी ने रामजी से अपने अस्त्र से समुद्र को सुखाने का निवेदन किया । परंतु रामजी ने इसके विषय में पहले सबसे सलाह ली । तब विभीषण बोले, “प्रभु, सागर का नाम अपने पूर्वज सगर पर ही पडा है और वे आपके कुलगुरु हैं । ऐसे में उचित तो यही होगा कि आप उनसे रास्ता मांगें और वे अवश्य दे देंगे । यही तरीका उचित होगा ।
रामजी ने ऐसा ही किया और समुद्र तट पर बैठकर अपने कुलगुरु की उपासना की; परंतु गर्व के कारण सागर ने रामजी पूजा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । इसप्रकार तीन दिन बीत गए तब ‘बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति अर्थात श्रीराम क्रोधित होकर लक्ष्मण से कहते हैं भय बिना प्रीति नहीं होती है । बिना डर दिखाए कोई भी हमारा काम नहीं करता है।
श्रीराम लक्ष्मण से आगे कहते हैं – ‘हे लक्ष्मण, धनुष-बाण लेकर आओ । मैं अग्निबाण से समुद्र को सुखा डालता हूं । किसी मूर्ख से विनय की बात नहीं करनी चाहिए । कोई भी मूर्ख व्यक्ति दूसरों के आग्रह अथवा प्रार्थना को समझता नहीं है, इसलिए कि वह जड बुद्धि होता है । मूर्ख लोगों को डराकर ही उनसे काम करवाया जा सकता है ।
रामचरितमानस में काकभुशुण्डि कहते हैं – हे गरुडजी ! सुनिए, चाहे कोई करोडों उपाय करके सींचे, परंतु केला तो काटने पर ही फलता है । नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥
श्रीरामजी तीन दिन निरंतर सागर से प्रार्थना कर रहे थे, परंतु घमंड में चूर सागर ने उनकी विनती और प्रार्थना को अनसुना कर दिया । श्रीरामजी के ब्रह्मास्त्र उपयोग की बात सुनकर सागर भयभीत होकर प्रभु के चरण पकडकर बोला – हे नाथ ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए । हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड है ।
भगवान राम ने सागर को क्षमा दान दिया । सागर ने बताया, ‘‘आपकी सेना में नल और नील नाम के दो वानर हैं । वे भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं और विश्वकर्मा समान ही शिल्पकला में निपुण भी । इनके हाथों से पुल का निर्माण करवाइए, मैं पत्थरों को लहरों से बहने नहीं दूंगा ।
इस प्रसंग से हमें ध्यान में आता है कि प्रभु श्रीरामजी ने पहले ही अस्त्र का उपयोग नहीं किया था । उन्होंने सागर से बिनती कर तीन दिन राह देखी थी । पर समुद्र का घमंड न उतरने के कारण उन्हें शस्त्र उठाना पडा और उसके उपरांत समुद्र के शरण आनेपर उसे तुरंत क्षमादान भी दे दिया । यह किसी का अपमान करनेवाला प्रसंग नहीं है ।
श्रीराम की सेना समुद्र पर सेतु बनाकर उसे पार कर रही थी, तब रावण को कैसे पता नहीं चला ?
रामसेतु के संदर्भ में रावण को जब पता चला तब पहले तो उसे आश्चर्य हुआ, फिर थोडा भय परंतु अपने घमंड का कारण उस पर ध्यान नहीं दिया । मंदोदरी ने जब रावण से कहा कि श्रीराम भगवान विष्णुजी के अवतार हैं, इसलिए उनसे स्वयं जाकर क्षमा मांगे । इस पर रावण बोला – हे प्रिये ! सुनो, तुम व्यर्थ ही भयभीत हो । बताओ तो जगत में मेरे समान योद्धा कौन है ? वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैंने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है । देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं । फिर तुम्हें यह भय किसलिए ? मंदोदरी ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाते हुए कहा (किंतु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा में जाकर बैठ गया । विदूषी मंदोदरी समझ गई कि काल के प्रभाववश पति को अभिमान हो गया है ।
जब रावण की राज्यसभा मे अंगद के दूत बनकर आनेपर रावणने कहा – रे दुष्ट ! वानरों की सहायता लेकर राम ने समुद्र पर सेतु बना लिया; बस, यही उसकी प्रभुता है । समुद्र को तो अनेक पक्षी भी लांघ जाते हैं; परंतु इससे वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते । अरे मूर्ख वानर ! सुन – मेरी एक-एक भुजारूपी समुद्र में अनेक शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं । तू बता कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों से पार पा जाएगा ? अरे दुष्ट ! मैंने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है !
रावण के समान शूरवीर कौन है ? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ अनेक बार उन्हें अग्नि में होम दिया ! स्वयं गौरीपति शिवजी इसके साक्षी हैं ।
मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना पढकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हंस पडा उस बात का स्मरण करके भी मेरे मन में डर नहीं है । (इसलिए कि मैं समझता हूं कि) वयोवृद्ध ब्रह्मा की बुद्धि संभ्रमित होने से ऐसा लिख दिया है ।
लंकाकांड के इन सभी बातों से हम समझ सकते हैं कि रावण की बुद्धि को अहंकार तथा अभिमान ने संपूर्णत: ग्रसित कर लिया था । इस कारण रामसेतु बनने का समाचार सुनने पर भी रावण ने कुछ नहीं किया ।