शारदीय नवरात्र

१. महत्त्व

श्री दुर्गासप्तशतिके अनुसार श्री दुर्गादेवीके तीन प्रमुख रूप हैं ।

अ. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्वकी प्रतीक है ।

आ. महालक्ष्मी, जो ‘दिक्’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्वकी प्रतीक है ।

इ. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्वका प्रतीक है ।

ऐसी जगत्‌का पालन करनेवाली जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्तिकी उपासना हिंदु धर्ममें वर्ष में दो बार नवरात्रिके रूपमें, विशेष रूपसे की जाती है ।

 

 नवरात्रि : दृश्यपट १७ (Navratri Videos : 17)

 

अ. वासंतिक नवरात्रि

यह उत्सव चैत्र शुद्ध शुक्ल प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है ।

आ. शारदीय नवरात्रि

यह उत्सव आश्विन शुक्ल शुद्धप्रतिपदासे आश्विन शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है।

नवरात्रिकी कालावधिमें महाबलशाली दैत्योंका वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओंने उनकी स्तुति की । उस समय देवीमांने सर्व देवताओं एवं मानवोंको अभयका आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि,

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।। – मार्कंडेयपुराण ९१.५१

अर्थ : जब-जब दानवोंद्वारा जगत् को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओंका नाश करूंगी ।

इस श्लोकके अनुसार जगतमें जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अर्थात साधकोंको कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरोंका नाश करती हैं ।

 

२. दुर्गादेवीका पूजाविधी

नवरात्रिके प्रथम दिन घटस्थापनाके साथ श्री दुर्गादेवीका आवाहन कर स्थापना करते हैं । इसके अंतर्गत देवताओंकी स्थापनाविधि, षोडशोपचार पूजन, श्री दुर्गादेवीकी अंगपूजा तथा आवरण पूजा की जाती है । इसके उपरांत देवी मांके नित्यपूजनके लिए पुरोहितकी आवश्यकता नहीं होती । घटस्थापनाके दिन वेदीपर बोए अनाजसे नवमीतक अंकुर निकलते हैं । देवीमां नवरात्रिके नौ दिनोंमें जगतमें तमोगुणका प्रभाव घटाती हैं और सत्त्वगुण बढाती हैं ।

 

३. नवरात्री अंतर्गत प्रमुख दिन एवं उनका महत्त्व

नवरात्रिकी कालावधिमें महाबलशाली दैत्योंका वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओंने उनकी स्तुति की । उस समय देवीमांने सर्व देवताओं एवं मानवोंको अभयका आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि,

 

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।

तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।। – मार्कंडेयपुराण ९१.५१

अर्थ : जब-जब दानवोंद्वारा जगत् को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओंका नाश करूंगी ।

इस श्लोकके अनुसार जगतमें जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अर्थात साधकोंको कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरोंका नाश करती हैं ।

`असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासितामें लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें इस असुरका वास्तव्य है, जिसने मनुष्यकी मूल आंतरिक दैवीवृत्तियोंपर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुरकी मायाको पहचानकर, उसके आसुरी बंधनोंसे मुक्त होनेके लिए शक्तिकी उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रिके नौ दिनोंमें शक्तिकी उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषिमुनियोंने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमोंसे देवीमां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशतिके एक श्लोकमें कहा गया है,

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।। – श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय ११.१२

अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगोंका रक्षण करनेमें सदैव तत्पर और सभीकी पीडा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी, आपको मेरा नमस्कार है । देवीकी शरणमें जानेसे हम उनकी कृपाके पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्यमें समाजकी आसुरी वृत्तिमें परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवीतत्त्वके अधिकतम कार्यरत रहनेकी कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूपसे मनायी जाती है ।

नवरात्रिके नौ दिनोंमें घटस्थापनाके उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमीका विशेष महत्त्व है । पंचमीके दिन देवीके नौ रूपोंमें से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुरसुंदरीका व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियोंपर चंडीहोम करते हैं । नवमीपर चंडीहोमके साथ बलि समर्पण करते हैं ।

अ. पंचमी

नवरात्रिकी कालावधिमें पंचमीकी तिथिपर ब्रह्मांडमें शक्तितत्त्वकी गंधतरंगें अधिक मात्रामें कार्यरत रहती हैं । शक्तितत्त्वकी इस गंधतरंगोंकी गंधमयताको `ललिता’ के नामसे जानते हैं । यही कारण है कि, नवरात्रिके कालमें आनेवाली पंचमीको `ललितापंचमी’ कहते हैं । पंचमीके दिन देवीपूजन करनेसे ब्रह्मांडमें विद्यमान ये गंधतरंगें पूजास्थानकी ओर आकृष्ट होती हैं । इन गंधतरंगोंके कार्यके कारण पूजकके मनोमयकोषकी शुद्धि होती है ।

आ. षष्ठी

षष्ठीके दिन देवीका विशेष पूजन किया जाता है और देवीकी आंचलभराई भी की जाती है । इस कालमें भक्त रातभर जागरण करते हैं, जिसे उत्तर भारतमें जगराता भी कहते हैं। यह देवीकी उपासनाका एक अंग है । जिसमें देवीसंबंधी भजन-कीर्तन होता है । उसी प्रकार महाराष्ट्रमें कुछ लोग `वाघ्या-मुरळी’के गीत एवं भारूडके नामसे प्रचलित संत एकनाथजीके भजन गाते हैं । इस जागरणको महाराष्ट्रमें `गोंधळ’ कहते हैं । देवीकी स्तुतिवाले भजन गानेके लिए विशेष लोगोंको बुलाया जाता है । देवीका पूजन किया जाता है । लकडियोंपर वस्त्र लपेटकर विशेष दीप बनाए जाते हैं । ऐसे दीपको `दिवटी’ कहते हैं । इन दीपोंका पूजन कर प्रज्वलित करते हैं । विशेष तालवाद्यके साथ गीत गाते हैं ।

इ. सप्तमी

सप्तमीके दिन देवीमांके दैत्य-दानव, भूत-प्रेत इत्यादिका नाश करनेवाले `कालरात्रि’ नामक रूपका पूजन करते हैं।

बंगालमें दुर्गापूजाकी सप्तमीपर नदी अथवा किसी जलाशयसे पांच कलशोंमें जल लाकर श्री गणेश, श्री महालक्ष्मी, कार्तिकेय, सरस्वती देवी तथा दुर्गादेवीके लिए घटस्थापना करते हैं । यहां उल्लेखनीय भाग यह है कि, इस दिनसे केलेके पेडको/तनेको पीली साडी पहनाकर श्री गणेशजीकी प्रतिमाके साथ रखते हैं और श्री गणेशकी शक्तिके प्रतीकके रूपमें उसका पूजन करते हैं ।

ई. अष्टमी

दुर्गाष्टमीके दिन देवीके अनेक अनुष्ठान करनेका महत्त्व है । इसलिए इसे `महाष्टमी’ भी कहते हैं ।

अष्टमी एवं नवमीकी तिथियोंके संधिकालमें अर्थात अष्टमी तिथि पूर्ण होकर नवमी तिथिके आरंभ होनेके बीचके कालमें देवी शक्तिधारणा / शक्ति धारण करती हैं । इसीलिए इस समय श्री दुर्गाजीके ‘चामुंडा’ रूपका विशेष पूजन करते हैं, जिसे `संधिपूजन’ कहते हैं ।

गागर फूंकना

नवरात्रिकी अष्टमीपर रात्रिमें श्री महालक्ष्मी देवीके सामने गागर फूंकी जाती है । गागर फूंकनेसे पूर्व उसका भी पूजन करते हैं । पूजनके उपरांत गागरको धूपपर पकडते हैं । यह धूप दिखाई गागर फूंकते हैं । वस्तुतः यह धार्मिक नृत्यका एक प्रकार है । महाराष्ट्रमें अनेक स्थानोंपर अष्टमीके दिन देवीका विशेष पूजन होता है । इसमें चावलके आटेकी सहायतासे देवीका मुखौटा बनाते हैं । इस प्रकार चावलके आटेके मुखौटेवाली देवीको खडी मुद्रामें स्थापन कर उनका पूजन किया जाता है।

उ. नवमी

महानवमीके दिन सरस्वतीतत्त्वकी इच्छातरंगें कार्यरत रहती हैं। इस दिन सरस्वतीपूजन करते हैं । सरस्वतीपूजन करनेसे व्यक्तिका लगाव ईश्वरके मूर्त स्वरूपकी ओर बढता है ।

सरस्वती ज्ञान, कला एवं विद्याकी देवता होनेके कारण लेखन-पट्ट अर्थात `स्लेट’ पर श्री सरस्वतीदेवीका यंत्र चित्रित कर उसका पूजन करते हैं । सरस्वतीपूजनके साथही नवमीके दिन शस्त्रों एवं आयुधोंका पूजन भी करते हैं । कुछ स्थानोंपर विजयादशमीके दिन भी श्री सरस्वतीदेवीका पूजन एवं शस्त्रपूजन करते हैं ।

शस्त्रपूजन करते समय ईश्वर एवं गुरुको प्रार्थना करते हैं – हे ईश्वर, हे गुरुदेव, यही प्रार्थना है कि, हम जिन अस्त्रों एवं शस्त्रोंका स्थूल रूपसे उपयोग कर रहे हैं, उनके साथ सूक्ष्म अस्त्र एवं शस्त्र भी कार्यरत हो जाएं और हमें आपसे शक्ति एवं चैतन्य प्राप्त हो ।

प्रार्थना करनेसे ईश्वर एवं गुरुदेवका आशीर्वाद प्राप्त होता है । आशीर्वादके साथ उनकी संकल्पशक्ति भी कार्यरत होती है । इस प्रकार व्यक्तिद्वारा किए प्रयत्नोंको ईश्वरीय बल प्राप्त होता है और उचित फलप्राप्ति होती है । इससे व्यक्तिको ईश्वर एवं गुरुकी महानताका परिचय अनुभूत होता है और उसमें लीनता एवं व्यापकता जैसे ईश्वरीय गुण बढने लगते हैं । जिससे व्यक्तिद्वारा सभीके कल्याणके लिए प्रयत्न होने लगते हैं ।

नवमीके दिन यजमान परिवारके कल्याणके लिए देवीकी मंगल आरती करते हैं ।

४. बंगालकी दुगार्पूजा

बंगालमें शारदीय दुर्गापूजा दस दिन मनाते हैं । प्रतिपदाके दिन संध्याकालमें श्री दुर्गादेवीका आवाहन कर बेलके वृक्षमें उनकी स्थापना करते हैं । इसे `श्री दुर्गादेवीका अधिवास’ अथवा `छोटी बिल्लववरण’ कहते हैं । छठे दिन अर्थात षष्ठी तिथिको बेलके वृक्षमें उनका पूजन करते हैं । इस पूजनमें देवीको विभिन्न प्रकारके फल, फूल, पत्र तथा अनाज अर्पण करते हैं । इस पूजनमें बेलके फूलोंका विशेषरूपसे उपयोग करते हैं । इस पूजनको `बडी बिल्लववरण’ कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि, मां दुर्गा नवरात्रिके प्रथम दिनसे षष्ठीतक बेलके वृक्षमें वास करती हैं अर्थात इस कालमें शक्तितत्त्व बेलके वृक्षमें आकर्षित होकर संचयित रहता है । षष्ठीके दिन देवीका विशेष पूजन एवं अनुष्ठान करते हैं ।

 

५. जागरण करना

जगराता

जागरण करना, यह देवीकी कार्यस्वरूप ऊर्जाके प्रकटीकरणसे संबंधित है । नवरात्रिकी कालावधिमें रात्रिके समय श्री दुर्गादेवीका तत्त्व इस कार्यस्वरूप ऊर्जाके बल पर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान शक्तिके माध्यमसे व्यक्तिको कार्य करनेके लिए बल प्रदान करता है । जागरण करनेसे उपवासके कारण सात्त्विक बने देहद्वारा व्यक्ति वातावरणमें कार्यरत श्री दुर्गादेवीका तत्त्व इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान इन तीनों स्तरोंपर सरलतासे ग्रहण कर पाता है । परिणामस्वरूप उसके देहमें विद्यमान कुंडलिनीके चक्रोंकी जागृति भी होती है । यह जागृति उसे साधनापथपर अग्रसर होनेमें सहायक सिद्ध होती है । यही कारण है कि, शास्त्रोंने नवरात्रिकी कालावधिमें उपवास एवं जागरण करनेका महत्त्व बताया है ।

 

६. नवरात्रीका उपवास

नवरात्रिके नौ दिनोंमें अधिकांश उपासक उपवास करते हैं । किसी कारण नौ दिन उपवास करना संभव न हो, तो प्रथम दिन एवं अष्टमीके दिन उपवास अवश्य करते हैं ।

 

७. श्री दुर्गासप्तशती पाठ करना

नवरात्रिकी कालावधिमें देवीपूजनके साथ उपासनास्वरूप देवीके स्तोत्र, सहस्रनाम, देवीमाहात्म्य इत्यादिके यथाशक्ति पाठ एवं पाठसमाप्तिके दिन हवन विशेष रूपसे करते हैं । सुख, लाभ, जय इत्यादि कामनाओंकी पूर्तिके लिए सप्तशतीपाठ करनेका महत्त्व बताया गया है । श्री दुर्गासप्तशती पाठमें देवीमांके विविध रूपोंको वंदन किया गया है ।

 

८. नवरात्रीमें ध्यान देने याेग्य कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र

अ. नवरात्रि व्रत कालमें अशौच संबंधी नियम ।

अ. अशौच कालमें नवरात्रि आनेपर अशौच समाप्त होनेके उपरांत ही नवरात्रि व्रत प्रारंभ कीजिए ।

आ. अशौच समाप्ति और नवरात्रि समाप्ति एक ही दिन आनेपर नवरात्रि व्रत प्रारंभ न कर पूजाभिषेक एवं ब्राह्मणोंको भोजन करवाईए ।

इ. नवरात्रि व्रत आरंभ होनेके उपरांत अशौच आनेपर पुरोहितद्वारा नवरात्रि पूजन करवाईए । ऐसी परिस्थितिमें दूधमें शक्कर मिलाकर देवीमांके लिए नैवेद्य समर्पित कीजिए । घरमें पकाए अथवा अन्योंके घरसे लाए अन्नका नैवेद्य देवीमांको अर्पित नहीं कीजिए । नवरात्रि व्रत की समाप्ति भी पुरोहितद्वारा ही करवाईए ।

ई. किसी कारणवश शारदीय नवरात्रि व्रत खंडित हो तो यह व्रत अगले शारदीय नवरात्रिमें करना चाहिए ।

नवरात्रिमें की जानेवाली धार्मिक कृतियां पूरे श्रद्धाभावसहित करनेसे पूजक एवं परिवारके सभी सदस्योंको शक्तितत्त्वका लाभ होता है । नवरात्रिकी कालावधिमें शक्तितत्त्वसे भारित बनी वास्तुद्वारा वर्षभर इन तरंगोंका लाभ मिलता रहता है; परंतु इसके लिए देवीमां की उपासना केवल नवरात्रिमेंही नहीं; अपितु पूर्ण वर्षभर शास्त्र समझकर योग्य पद्धतिसे करना आवश्यक है ।

आ. देवीमांके नित्य उपासनामें ध्यान रखने योग्य बातें ।

अ. देवीमांकी प्रतिमाको अनामिकासे तिलक लगाए ।

आ. उपरांत हलदी कुमकुम अर्पित किजिए ।

इ. डंठल देवीमांकी प्रतिमाकी ओर कर फूल चढाए ।

ई. देवी मांको एक अथवा नौ गुना की संख्यामें फूल चढाइए । फूल गोलाकारमें चढाइ कर मध्यमें रिक्त स्थान रखिए ।

९. नवरात्रिकी कालावधिमें उपासना करनेके लाभ

१. नवरात्रिकी कालावधिमें व्यष्टि अर्थात व्यक्तिगत स्तरपर व्रतके रूपमें उपासना करनेसे व्यक्तिको २० प्रतिशत लाभ होता है । तथा
२. सामूहिक स्तरपर अर्थात समष्टि स्तरपर उत्सवके रूपमें उपासना करनेसे व्यक्तिको ३० प्रतिशत लाभ होता है ।
३. केवल उपासनाके कृत्यके स्तरपर निपटानेकी दृष्टिसे व्रत करनेसे व्यक्तिको १० प्रतिशत लाभ होता है ।
४. लगन एवं भावसहित उपासना करनेसे ४० प्रतिशत लाभ होता है । नवरात्रिके प्रथम दिन घटकी स्थापना की जाती है । कुछ परिवारोंमें घटस्थापनाके साथ मालाबंधन भी करते हैं ।

१०. नवरात्रिकी कालावधिमें उपवास करनेका महत्त्व

नवरात्रिके नौ दिनोंमें अधिकांश उपासक उपवास करते हैं । किसी कारण नौ दिन उपवास करना संभव न हो, तो प्रथम दिन एवं अष्टमीके दिन उपवास अवश्य करते हैं । उपवास करनेसे व्यक्तिके देहमें रज-तमकी मात्रा घटती है और देहकी सात्त्विकतामें वृद्धि होती है । ऐसा सात्त्विक देह वातावरणमें कार्यरत शक्तितत्त्वको अधिक मात्रामें ग्रहण करनेके लिए सक्षम बनता है ।

नवरात्रिमें प्रत्येक दिन उपासक भोजनमें विविध व्यंजन बनाकर देवीको नैवेद्य अर्पित करते हैं । बंगाल प्रांतमें प्रसादके रूपमें चावल एवं मूंगकी दालकी खिचडीका विशेष महत्त्व है । मीठे व्यंजन भी बनाए जाते हैं । इनमें विभिन्न प्रकारका शिरा, खीर-पूरी इत्यादिका समावेश होता है । महाराष्ट्रमें चनेकी दाल पकाकर उसे पीसकर उसमें गुड मिलाया जाता है । इसे `पूरण’ कहते हैं। इस पूरणको भरकर मीठी रोटियां विशेष रूपसे बनाई जाती हैं । चावलके साथ खानेके लिए अरहर अर्थात तुवरकी दाल भी बनाते हैं ।

नवरात्रिमें देवीको अर्पित नैवेद्यमें पुरणकी मीठी रोटी एवं अरहर अर्थात तुवरकी दालके समावेशका कारण चनेकी दाल एवं गुडका मिश्रण भरकर बनाई गई मीठी रोटी एवं तुवरकी दाल, इन दो व्यंजनोंमें विद्यमान रजोगुणमें ब्रह्मांडमें विद्यमान शक्तिरूपी तेज-तरंगें अल्पावधिमें आकृष्ट करनेकी क्षमता होती है । इससे ये व्यंजन देवीतत्त्वसे संचारित होते हैं । इस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेसे व्यक्तिको शक्तिरूपी तेज-तरंगोंका लाभ मिलता है और उसके स्थूल एवं सूक्ष्म देहोंकी शुद्धि होती है ।

 

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ’त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’

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