भावजागृति की दृष्टि से अब तक हमने ईश्वर की शरण जाकर प्रार्थना करना, कुलदेवी की मानसपूजा करना, जिनके कारण आज हम स्वादिष्ट भोजन का लाभ ले पाते हैं उन माता अन्नपुर्णा देवी की मानसपूजा करना, रसोईघर में हर वस्तु को भावपूर्ण कैसे उपयोग में ला सकते हैं, जिस वास्तु में हम रह रहे हैं, उस वास्तुदेवता के प्रति कृतज्ञताभाव रखना, वाहन के प्रति कृतज्ञता भाव मन में रखना, ऐसे अनेक प्रयासों से भाववृद्धि होने हेतु कैसे प्रयास कर सकते हैं, यह जानकर लिया ।
हिन्दू धर्म इतना व्यापक है कि वह हम सभी को हमारे संपर्क में आनेवाली प्रत्येक वस्तु में ईश्वर का रूप कैसे देखना चाहिए, यह सिखाता है । यह सब अनुभव करना प्रत्यक्ष में बहुत सरल है और उसके लाभ भी अनेक हैं । यह भाव स्थिति अनुभव करने के लिए यदि हम उसमें आनेवाली रुकावटें दूर करने का प्रयास करेंगे, तो हम सभी निरंतर भावावस्था का अनुभव ले सकते हैं ।
यह भावस्थिति अनुभव करने में मुख्य रुकावटें कौन-सी हैं ? तो वह है, हमारे स्वभावदोष तथा अहं ! ईश्वर कैसे हैं ?, तो वह आनंदमय है । उनको अनुभव करने में जब रुकावटें निर्माण होती है, तब हम पर दोषों का प्रभाव बढ जाता है । इससे क्या होता है ? हम इश्वर को अनुभव ही नहीं कर पाते । तात्पर्य यह है कि हमारी भावस्थिति टिक नहीं पाती ।
अभी कलियुग है । इस कलियुग में हम सभी दोष तथा अहं को साथ लेकर ही जन्मे हैं । कलियुग में जन्मे हर एक जीव में दोष, संस्कार तो रहते ही हैं । इनको दूर कैसे करना है, यह केवल साधना ही हमें सिखा सकती है । इसलिए प्रत्येक के लिए साधना करना अनिवार्य है । क्योंकि हम पर दोषों का, अहं का इतना प्रभाव रहता है कि हमें भले ही कितना भी लगे कि हम शांत रहेंगे, भाव की स्थिति में रहेंगे, ईश्वर के अनुसंधान में रहेंगे, सतत ईश्वर के चरणों में ही रहेंगे, ईश्वर को अनुभव करेंगे, तब भी हम दोष और अहं के कारण वह अनुभव नहीं कर पाते हैं । भावस्थिति में रहना, सुनने में बहुत अच्छा लगता है, अनुभव करने में भी अच्छा लगता है, किंतु इसमें आनेवाली बाधाएं अनेक हैं । उसमें से कुछ अडचनें आज हम समझकर लेंगे ।
भावजागृति की एक बडी बाधा है कर्तापन लेना !
हम दिनभर अपना काम-काज करते समय मैं कर रही हूं, मेरे कारण यह सब हो रहा है, मैं नहीं करती, तो यह कृति पूर्ण ही नहीं हो पाती, इसप्रकार के अलग-अलग विचार हमारे मन में अखंड आते रहते हैं । इसप्रकार के विचारों को ही आध्यात्मिक परिभाषा में कर्तापन कहते हैं और यह कर्तापन ईश्वर के प्रति भाव जागृत होने में सबसे बडी रुकावट है ।
इसके संदर्भ में हम एक कथा देखेंगे ।
मैं न होता, तो क्या होता ?
एक बार हनुमान प्रभु श्रीरामजी से बोले, अशोक वाटिका में जब रावण क्रोध के आवेग में तलवार लेकर सीता माता को मारने के लिए आए, तब मुझे लगा कि उसके हाथ से तलवार लेकर उसका ही सिर काट डालूं, परंतु उतने में ही मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड लिया । यदि मैंने नीचे उतर कर रावण का हाथ पकड लिया होता, तो मुझे भ्रम हो जाता कि मैं न होता तो क्या हो गया होता ।
अनेक बार अनेक लोगों को ऐसा ही भ्रम होता है । मुझे भी लगा था कि मैं नहीं होता तो सीता माता को कौन बचाता ? परंतु आपने सीता माता को बचाया ही नहीं, अपितु बचाने का काम रावण की पत्नी को सौंपा था । तब मुझे समझ में आया कि आपको जिससे जो कार्य करवाना होता है वह आप उससे करवा ही लेते हैं ।
आगे जब त्रिजटा बोली कि लंका में एक वानर आया है, जो लंका जला डालेगा । तब मैं चिंतित हो गया कि प्रभु श्रीराम ने तो मुझे लंका जलाने के लिए नहीं कहा । अब त्रिजटा ऐसा कह रही है, तो मैं क्या करूं ? परंतु जब रावण के सैनिक मुझे मारने के लिए आए तो मैंने अपने बचाव के लिए कोई प्रतिकार नहीं किया । फिर जब बिभीषण आकर कहने लगा कि दूत को मारना अनीति है, तब मुझे समझ में आया कि प्रभु ने मुझे बचाने के लिए यह उपाय किया है ।
आश्चर्य तो तब हुआ जब रावण बोला, ‘‘वानर को मारा नहीं जाएगा, अपितु उसकी पूंछ पर कपडा लपेटकर उस पर घी डालकर उसे आग लगा दो ।’’ तब मेरी समझ में आया कि त्रिजटा का कहना ठीक ही था । अन्यथा लंका जलाने के लिए मैं कहां से घी, कपडा, अग्नि लाता । परंतु यह व्यवस्था आपने ही रावण से करवा ली । जब आप रावण से भी काम करवा सकते हो, तो मुझसे काम करवाना कौन-सी विशेष बात है ।
इसलिए हमेशा याद रखें कि भगवान आपके जीवन में होने वाली हर चीज का ध्यान रख रहा है। हम तो सिर्फ एक बहाना है। तो इस भ्रम में कभी मत रहिए कि मैं न होता, तो क्या होता।
हमारी दिनभर की कृतियों में हमारा कर्तापन कैसे
कार्यरत रहता है, इसके कुछ उदाहरण समझकर लेंगे ।
१. सुबह उठने के बाद मैं घर के लोगों के लिए नाश्ता बनाती हूं, उसे सबको परोसती हूं,
तब मेरे मन में विचार आता है कि किसी को तो मेरे बनाए हुए नाश्ते की प्रशंसा करनी चाहिए ।
इसमें प्रत्यक्ष में भाव ऐसे होना चाहिए कि कर्ता-धर्ता तो ईश्वर ही है । ईश्वर ने ही मुझसे यह नाश्ता बनवाकर लिया है I उनके बिना तो मैं कुछ भी नहीं कर पाती, परंतु कर्तापन के कारण हमारे मन में यह कृतज्ञता टिक नहीं पाती ।
२. खाने में मैंने कोई नया पदार्थ बनाया हो और घर का कोई सदस्य
उसमें कुछ कमियां निकालता है, तो तुरंत मुझे बुरा लगता है और मन में
विचार आते हैं कि मैंने कितने कष्ट लेकर बनाया है; परंतु इन्हें उसका कोई मूल्य नहीं ।
इसमें भाव ऐसे होना चाहिए कि ईश्वर ने ही उनके माध्यम से मेरी कमियां बताकर मुझे और अच्छा कैसे करना चाहिए, यह सिखाया और यदि मैंने यह सीख लिया, तो ईश्वर मुझे और घर के सभी सदस्यों को कितना आनंद देंगे ।
३. मेरे बच्चे विद्यालय में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते हैं, तो लगता
है मैंने उन्हें अच्छे से पढाया है । इसलिए बच्चों के गुण अच्छे आए हैं ।
इसमें हमारा भाव ऐसा होना चाहिए कि ईश्वर की अगाध कृपा के कारण ही मुझे सद्बुद्धि और शक्ति मिली है, इसीलिए मैं उन्हें सही ढंग से पढा पाती हूं । इसके लिए हमारे मन में ईश्वर के प्रति कितनी कृतज्ञता होनी चाहिए ।
४. कार्यालय में मैं ही सबसे अधिक काम करती हूं, यदि
मैंने वे पूर्ण नहीं किए होते, तो कितने काम वैसे ही पडे रहते ।
इसमें भाव ऐसे होना चाहिए की ईश्वर ने ही अधिक कार्य करने की क्षमता मुझमें निर्माण की है I दुनिया में कितने लोग ऐसे हैं जो मतिमंद है, जिन्हें लगता है कि वे प्रत्येक काम अच्छे से करें, किंतु कर नहीं पाते I ईश्वर की मुझ पर कितनी कृपा है, जिसके कारण मैं अधिक काम कर पाती हूं । इसके लिए मैं ईश्वर के प्रति कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करूं, तो वह कम ही है ।
५. मैंने यदि एक दिन भी ध्यान नहीं दिया, तो पूरा घर अस्त-व्यस्त हो जाएगा ।
इसमें भाव ऐसे रहना चाहिए कि ईश्वर ने ही मुझे अच्छा शरीर और अच्छी शारीरिक क्षमता दी, इसीलिए समय-समय पर उन्होंने ही दी हुई प्रत्येक वस्तु को मैं अच्छे से संजो कर रख पाती हूं । कितने लोग ऐसे होते हैं, जिनका मन तो बहुत होता है कि अपना घर व्यवस्थित रखें, परंतु अनेक बीमारियों के कारण, शारीरिक कष्टों के कारण वे चाहकर भी कृति कर नहीं पाते ।
किंतु कर्तापन के कारण हमें लगता है मैं कितना व्यवस्थित घर रखती हूं और पडोसी कितना अव्यवस्थित रखते हैं । वे उनके दोषों के कारण ऐसा करते हैं, ऐसा निष्कर्ष हम निकालते हैं । जबकि अच्छा शरीर प्रदान करने और घर को व्यवस्थित रखने की बुद्धि दी, इसके लिए हमें तो ईश्वर के प्रति सदैव कृतज्ञ होना चाहिए ।
इससे हमें ध्यान में आता है कि मैं कर रही हूं यह कर्तापन लेने से मेरे मन में एक के बाद एक विचारों की श्रृंखला चलती रहती है । हम आरती कर रहे हों, पूजा कर रहे हों, भोजन बना रहे हों हमारे मन में वही विचार चलते रहते हैं । ऐसे में हम भावपूर्ण पूजा कैसे कर सकत हैं । भोजन बनाते समय भी हम भाव के साथ भोजन नहीं बना सकते ।
भाव जागृति में कर्तापन को त्याग कर, सब ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है, एसा भाव रखना चाहिए । जैसे मैंने कुछ अच्छा किया, तो यह बुद्धि तो ईश्वर ने ही दी है । जिन हाथों से मैंने किया वह हाथ भी तो ईश्वर ने ही दिए हैं । तो यहां किसी बात का कर्तापन न लेते हुए ईश्वर के प्रति ही कृतज्ञता लगनी चाहिए ।
अहं के अनेक लक्षण होते हैं, उसमें से एक ‘कर्तापन लेना’ हमने विस्तृत रूप में देखा । उसके कारण भावजागृति में कैसे बाधा आती है, यह हमने समझकर लिया । इसप्रकार अहं के अनेक लक्षण होते हैं जैसे ….
१. अधिकार वाणी में बोलना, वर्चस्व जताना, दूसरे का कम लेखना, स्वयं को श्रेष्ठ समझना
अहं के कारण ही हम ईश्वर से अनुसंधान नहीं कर रख पाते । इसके लिए हममें अनेक दोष भी रहते हैं, जैसे अव्यवस्थितता, उतावलापन, अपेक्षा करना, नियोजन न करना, आलस्य आदि । इसके लिए हमें स्वाभावदोष और अहं-निर्मूलन के प्रयास ही करने पड़ते हैं । हमारे स्वभावदोष कैसे दूर हों, अहं अल्प कैसे करें, इस संदर्भ में अधिक जानकारी के लिए … www.sanatan.org/hindi/personality-development
स्वभावदोष घटा कर, भावजागृति के प्रयास बढाने के लिए हम ईश्वर से ही शरण जाकर प्रार्थना करेंगे । हम कैसी प्रार्थनाएं कर सकते हैं इसके कुछ उदाहरण देखते हैं ।
१. ‘हे ईश्वर मुझमें अनेक दोष एवं अहं के पहलू हैं । जिसके कारण मैं आपसे दूर जा रही हूं । आप ही मुझसे मन:पूर्वक भाव के प्रयास व स्वभावदोष दूर करने की प्रक्रिया करवा लीजिए ।’
२. ‘हे ईश्वर, मेरे मन में ऐसे विचार आते हैं कि मैं जो बोलता हूं वही सही है । इसकारण अन्य कोई कुछ बताते हैं तो मैं उनकी बात न सुनकर, अपनी ही बात को प्रधानता देती हूं । हे ईश्वर ! दूसरों को तुच्छ देखना, सुनने की वृत्ति का अभाव जैसे दोषों के कारण मैं आपसे दूर जा रही हूं । भाव के स्तर पर इन दोषों को दूर करने के प्रयास आप ही मुझसे करवा लें ।’
३. ‘हे ईश्वर मेरे अंदर अनेक दोष व अहं के पहलु हैं । इसीलिए मैं अपने जीवन का आनंद नहीं ले पा रही हूं । अपने आसपास रहने वाले सगे-संबंधियों और मित्रों को भी जो आनंद दे सकती हूं, वह नहीं दे पाती हूं । आप ही मुझसे इसे दूर करने के लिए भाव के स्तर पर प्रयास करवा लीजिए ।’
४. ‘हे ईश्वर, मुझे भान है कि अनेक जन्मों के अनेक संस्कार मेरे चित् पर अंकित हैं । उनका प्रभाव मेरे जीवन के विभिन्न पहलुओं पर पडता है और उसका परिणाम भी दिखाई देता है जैसे हठ करना, क्रोध करना, कंजूसी, आलस्य इत्यादि । हे ईश्वर, इन सभी दोषों एवं अहं के पहलुओं के कारण मैं स्वयं को ही कष्ट दे रही हूं । मुझे इन दोषों और अहम के जाल में से बाहर निकलना है और भावजागृति कर आनंदी व्यक्ति के समान जीवन जीना है । इसके लिए आप ही मुझसे योग्य प्रयास करवा लीजिए’, ऐसी आपके श्रीचरणों में प्रार्थना है ।’
५. ‘हे ईश्वर, प्रत्येक कर्म का फल भोगना ही पडता है । ईश्वर मैं अपने दोषों व अहं के अधीन होकर, अयोग्य कर्म करके अपने लिए प्रारब्ध निर्माण कर रहीं हूं । अपना संचित बढा रही हूं । आप ही मुझे इससे मुक्त करवाने के लिए मुझसे योग्य प्रयास होने दीजिए, ऐसी आपके श्रीचरणों में प्रार्थना है ।’
तो इसप्रकार हम प्रार्थना के माध्यम से भी स्वभावदोष दूर करने की प्रक्रिया में ईश्वर की सहायता लेंगे ।