श्रवण भक्ति का आदर्श उदाहरण : परीक्षित राजा !
‘श्रवणभक्ति’ कहते ही राजा परिक्षित का स्मरण होता है । राजा परीक्षित, अर्जुनपुत्र अभिमन्यु के पुत्र ! राजा परीक्षित धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ थे । उन्होंने राज्यप्राप्ति के पश्चात अश्वमेध यज्ञ किया था । जिसमें अंत में प्रत्यक्ष देवताओं ने आकर हविर्भाग ग्रहण किया । उनके कार्यकाल में द्वापारयुग का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ ।
एक दिन राजा परीक्षित धनुष्य लेकर शिकार के लिए वन में गए थे । वे वन्यप्राणियों के पीछे दौडते-दौडते थक गए । उन्हें बहुत प्यास और भूख लगने लगी; परंतु उन्हें वहां निकट कोई जलाशय दिखाई नहीं दिया । तब वे निकट के ही एक ऋषि के आश्रम जा पहुंचे । वहां उन्होंने देखा कि एक ऋषि आंखें मूंदकर एक आसन पर शांत चित्त से ध्यानस्थ बैठे हुए हैं । प्यास के कारण गला सूख जाने से राजा परीक्षित ने उनसे पानी मांगा; परंतु ध्यानावस्था में होने के कारण उन्हें ऋषि से कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला । इस पर राजा ने अपमानित अनुभव हुआ । प्यास-भूख से व्याकुल और क्रोध के आवेग में उन्होंने अपने धनुष्य के अग्रभाग से पास में पडे हुए एक मरे सांप को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी लौट गए ।
उस ऋषि का पुत्र बडा तेजस्वी था । जब उसने यह सुना कि राजा ने उसके पिता के साथ अभद्र व्यवहार किया है, तो वह बोला, ‘मेरे शाप के कारण आज से ७ वें दिन राजा को तक्षक सर्प डस लेगा ।’
राजधानी पहुंचने पर राजा परीक्षित को अपने निंदनीय कर्म के कारण बहुत पश्चाताप हुआ । वे अत्यंत उदास होकर विचार करने लगे, ‘मैने उस निर्दोष महात्मा का अपमान किया, जिसके कारण मुझ पर कोई भयानक संकट अवश्य ही आएगा और उसे आना ही चाहिए; क्योंकि उससे मुझसे हुए पाप का प्रायश्चित होगा और पुनः ऐसा कृत्य मुझसे नहीं होगा । तब उसे यह ज्ञात हुआ कि ऋषिकुमार के शाप से तक्षक उन्हें डसनेवाला है । इससे उन्हें न तो दुख हुआ और न ही बुरा लगा । इसके विपरीत उन्हें ऐसा लगा कि मेरे जैसे गृहस्थी में आसक्त जीव के लिए, शीघ्र ही वैराग्य की प्राप्ति करा देनेवाली तक्षकरूपी मृत्यु ही अच्छी है ! सभी सुखों को त्यागकर और भगवान श्रीकृष्णजी के चरणों की सेवा को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर, प्राणांतिक व्रत लेकर वे गंगातटपर बैठ गए । वे अनन्यभाव से श्रीकृष्णजी के चरणकमलों का ध्यान करने लगे । उसी समय कुछ ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहां आ पहुंचे । ऋषि को आते देखकर राजा ने सभी को नमस्कार किया । वे उनके सामने खडे रहकर शुद्ध मन के साथ हाथ जोडकर कहने लगे, ‘‘मैं सदैव घर-गृहस्थी में आसक्त रहने के कारण पापी बन गया हूं; इसीलिए स्वयं भगवान ही ब्राह्मण के शाप के रूप में मुझपर कृपा की है । यह शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है; क्योंकि इसप्रकार के शाप से विरक्ति उत्पन्न होती है । मैंने अपना चित्त भगवत्चरणों में समर्पित किया है । मुझे इसकी चिंता नहीं है कि ब्राह्मणकुमार के शाप के कारण तक्षक मुझे डस लेगा । आप भगवान की रसमय लीला का गायन करें । मुझे अपने कर्म के अनुसार जिन-जिन योनियों में जन्म लेना पडेगा, उन योनियों में भगवान श्रीकृष्णजी के चरणों के प्रति ही मुझमें प्रेम हो और उनके चरणों में आश्रित महात्माओं का मुझे सत्संग प्राप्त हो । साथ ही सभी प्राणिमात्र से मेरी मित्रता हो । आप मुझे यह आशीर्वाद दें ।
परीक्षित की यह भक्तिपूर्ण बातें सुनकर आकाश से देवी-देवताओं ने आनंदित होकर पृथ्वीपर फूलों की वर्षा की । वहां उपस्थित महर्षिजी ने परीक्षित के इस निश्चय की प्रशंसा की । राजा परीक्षित ने उन्हें, भगवान का मनोहारी चरित्र सुनने की इच्छा से प्रार्थना की । तब उस समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से संचार करनेवाले, किसी से कोई अपेक्षा न रखनेवाले व्यासपुत्र वहां प्रकट हुए । परीक्षित ने उन्हें पूछा, ‘हे भगवन्, मनुष्य को क्या श्रवण करना चाहिए, कौनसा जाप करना चाहिए, कौनसा कर्म करना चाहिए; साथ ही क्या त्याग देना चाहिए ? तब सभी धर्मों का मर्म जाननेवाले व्यासपुत्र भगवान शुकदेव इन प्रश्नों के उत्तर देने लगे । परीक्षित ने भगवान की लीला का वर्णन करनेवाली कथाएं सुनने हेतु प्रार्थना की, तब शुकदेव अत्यंत प्रसन्न हुए । ब्राह्मकल्प के आरंभ में स्वयं भगवान ने जो ब्रह्माजी को बताया था, वही वेदतुल्य श्रीमद् भागवतमहापुराण शुकदेवजी ने उन्हें बताया । तक्षक का दंश होनेतक ७ दिनों में शुकदेवजी ने परीक्षित राजा को संपूर्ण ‘श्रीमद्भागवत’ का उपदेश किया ।
राजा ने कहा, ‘हे भगवन ! आप करुणा के मूर्तिमंत स्वरूप हैं । आपने मुझपर कृपा कर मुझे अनादि-अनंत श्रीहरिजी का स्वरूप और लीलाओं का साक्षात वर्णन किया । आप की कृपा से मैं धन्य-धन्य हुआ । हे गुरुवर्य, आपने मुझे परम शांतिस्वरूप ब्रह्म में स्थिर कर अभय प्रदान किया है । अब मुझे तक्षकादि किसी से भी मृत्यु का भय नहीं लगता । अब आप मुझे अनुमति दें, जिससे मैं मौन धारण करूंगा और कामना के संस्कारों से नष्ट हुए चित्त को परमात्मा में विलीन कर अपने प्राण त्याग दूंगा ।’, ऐसा कहकर राजा परीक्षित महर्षि श्रीशुकजी का पूजन कर स्वयं की अंतरात्मा को परमात्मा के साथ एकरूप कर उनके ध्यान में मग्न हुए । उस समय उनकी सांस भी नहीं चल रही थी । वे ब्रह्मस्वरूप हो गए ।
तत्पश्चात तक्षक ब्राह्मण का रूप लेकर राजा के पास आया और पुनः सर्परूप धारण कर राजा को डस गया । उससे पहले ही राजा ब्रह्मरूप हो चुके थे । अब तक्षक की विष की आग से उनका शरीर तत्काल जलकर भस्म हुआ । तब पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं में बडा हाहाकार मच गया । परीक्षित की परमगति को देखकर देवता, असुर, मनुष्य आदि सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए । देवताओं की दुंदुभियां बजने लगीं । गंधर्व और अप्सराएं नृत्य करने लगीं । सभी देवी-देवता पुष्पवर्षा करने लगे ।
श्रवणभक्ति से भगवान से किसप्रकार एकरूपता साधी जा सकती है, यह हमें राजा परीक्षित के इस उदाहरण से ध्यान में आता है । राजा परीक्षित को जब यह ज्ञात हुआ कि अब उनके जीवन के केवल ७ ही दिन शेष हैं, तब उन्होंने उन ७ दिनों का उपयोग केवल और केवल भगवदप्राप्ति हेतु ही करना निश्चित किया और उन ७ दिनों में उन्होंने ऋषियों से भगवान की विविध कथाएं, लीलावर्णन और मनुष्य को भक्ति कैसे करनी चाहिए ?, इसका श्रवण किया । इससे उन्होंने भगवद्प्राप्ति भी करवाकर ली । श्रवण के कारण परीक्षित राजा का मृत्यु का भय टल गया । भागवत श्रवण करने से उन्होंने हंसते-हंसते मृत्यु का क्षण जीत लिया । उनकी देहासक्ति ही नष्ट हो चुकी थी । उन ७ दिनों में उन्होंने जो कुछ भी श्रवण किया था, वह केवल उनके लिए नहीं था, अपितु अखिल मनुष्यजाति के लिए था । राजा परीक्षित की तीव्र लालसा के कारण अखिल मनुष्यजाति को संतों और महान ऋषियों की दिव्य वाणी के ज्ञानामृत का लाभ मिला । भगवान की विविध दिव्य लीलाएं विस्तृतरूप में ज्ञात हुईं । उसके कारण ही आज हमें उन लीलाओं को अनुभव करना संभव हो रहा है ।
इससे राजा परीक्षित की भक्ति कितनी उच्च कोटि की होगी, यह हमारे ध्यान में आता है । संपूर्ण पृथ्वीतल के विविध स्थानों के ऋषिगण एकत्रित हुए हैं, ऐसे समय में व्यासपुत्र भगवान श्री शुकदेव अपनी चैतन्यमय वाणी से भगवान की लीलाओं का वर्णन कर रहे थे । राजा परीक्षित के साथ ही सभी ऋषिमुनि यह कथामृत ग्रहण कर रहे थे । हमने इस प्रसंग को हमारे जीवन के साथ जोडा, तो हमारे यह ध्यान में आएगा कि हम सभी कितने सौभाग्यशाली हैं । साधना में श्रवणभक्ति आवश्यक है, इस श्रवणभक्ति को करने हेतु ईश्वर ने हमें यह भावसत्संगरूपी वरदान दिया है । इसके लिए हम ईश्वर के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
भक्ति करनी है, तो उसका पहला स्तर है श्रवणभक्ति ! वह किसप्रकार करनी चाहिए, यह हमें आज सभी को ध्यान में आ रहा है । श्रवणभक्ति का महत्त्व केवल सुनने से ध्यान में नहीं आता, अपितु उसके सुनने में भी उतनी भक्ति और भाव चाहिए । तभी जाकर हमें उसका लाभ मिलता है ।
भगवान के गुणों के श्रवण से सत्त्वगुणों का संग्रह होता जाता है । भावपूर्ण श्रवण करने से भक्ति तीव्रगति से फलदायक होती है, यह श्रवणभक्ति की महिमा है । हम जो सुनते हैं, वह गहरे अंतःकरण तक पहुंचना चाहिए ।
‘कैसे सुनना है’, यह जिसके ध्यान में आता है, वह साधना का सारांश ही समझ गया ।
मनुष्य के जीवन में यदि किस से वास्तविक परिवर्तन आता है, तो वह सुनने के कारण आता है । सुनना कैसे है, यह जिसने जान लिया, उसकी साधना में सहायता करने के लिए संपूर्ण विश्व ही आता है । मार्ग में किसी दुखी व्यक्ति के मुख से भी ऐसे कुछ शब्द सुनाई देते हैं कि जिसके कारण उसका संपूर्ण जीवन ही बदल सकता है; और जो ठीक से सुन नहीं सकता, उसे यदि प्रत्यक्ष भगवान भी उपदेश दें, तब भी वह संतुष्ट नहीं होता । हम सभी सहस्रों कथाएं सुनते हैं और उन सभी का एक मिश्रण बनाकर जीवन कैसे जीना है, इसका समीकरण रखते हैं । हमने क्या सुना है, इसपर हमारे संस्कार निर्भर होते हैं ।
स्वयं के जीवन में कुछ परिवर्तन करना है, तो हमें अन्यों से कुछ न कुछ सीखना होगा, सुनना होगा और स्वयं को जो बोध मिलता है, उसको अपने आचरण में लाना होगा । अतः केवल सुनने की वृत्ति होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु हम क्या सुनते हैं ?, इसपर हमारे जीवन की नौका पार लगती है अथवा डूब जाती है, यह सुनिश्चित होता है ।