हम सभी ने भक्त प्रहलाद के बारे में तो सुना ही है । साथ ही उनकी असीम भक्ति कैसी थी, यह भी सुना है । उनके जीवन में बहुत-सी घटनाएं घटी, तब भी उनके अंत:करण में श्रीविष्णु के प्रति श्रद्धा और भक्ति में थोडी-सी भी कमी नहीं आई । इसके विपरीत उन्होंने महाविष्णु की प्रीति अनुभव की । उन्होंने सदैव ही श्रीविष्णु की कृपा की छत्रछाया अनुभव की । अपने पिता द्वारा किए गए अनेक अत्याचारों और षड्यंत्रों से उनकी भक्ति खंडित नहीं हुई । ऐसी असीम भक्ति करनेवाले प्रहलाद के लिए ही जिन्हें अवतार लेना पडा, उन भगवान नरसिंह को हम भावपूर्ण वंदन करते हैं ।
भक्त प्रहलाद केवल अकेले ही भक्ति करके ईश्वर से एकरूप नहीं हुए, अपितु उन्होंने संपूर्ण मानवजाति के लिए, सभी जीवों के कल्याण के लिए भक्ति सूत्र भी बताए हैं । हम भी उनके समान भक्ति कैसे कर सकते हैं ? इस विषय पर भी उन्होंने हमें ज्ञान दिया है ।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य के पुत्र शंड और अमर्क राजमहल के पास रहकर बालक प्रहलाद और अन्य बालकों को राजनीति आदि विषय सिखाते थे । हिरण्यकश्यप ने एक दिन अपने पुत्र को गोद में लेकर पूछा, ‘बालक प्रहलाद इतने दिनों तक तुमने गुरुजी से जो ज्ञान प्राप्त किया है उसमें से कोई एक बात मुझे बताओ । तब भक्त प्रहलाद ने कहा, ‘भगवान विष्णु की भक्ति के ९ प्रकार हैं’, ऐसे कह कर उन्होंने नवविधा भक्ति के प्रकार हिरण्यकश्यप को बताए ।
श्रवण, कीर्तन, विष्णुस्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन ।
ईश्वर के गुणों का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनका स्मरण, उनके चरणों की सेवा, उनकी अर्चना, उनका वंदन, उनके प्रति दास्यभाव, उनके प्रति सखा भाव और उनसे आत्मनिवेदन । ईश्वर की यह ९ प्रकार की भक्ति, समर्पणभाव से करें । ईश्वर को अपेक्षित है कि हम सभी में ईश्वर प्राप्ति का भाव बढे । वैसे ही सभी को ईश्वर की अनन्य भक्ति करनी चाहिए, इसके लिए हमें भाव से भक्ति की ओर ले कर जानेवाले इस भावसत्संग में नवविधा भक्ति की १-१ पंखुडी ईश्वर खोल रहे हैं ।
ईश्वर के प्रति परम प्रेम अर्थात भक्ति, मानव का सर्वश्रेष्ठ धर्म अर्थात भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति ! भक्ति से मन आनंदी रहता है । शांत रहता है । मन एकाग्र करके ईश्वर के गुणगान को निरंतर श्रवण करना, उनका कीर्तन करना ही भक्ति है । जिसप्रकार हम देवी का तत्त्व जागृत करने के लिए उनका जागरण करते हैं, उसीप्रकार हमारे अंदर ‘मैं’ को भूलकर सतत ईश्वर से अनुसंधान रखने के लिए भक्ति को जागृत करने की आवश्यकता है ।
अपना अंतःकरण परमेश्वर में विलीन करना अर्थात नवविधा भक्ति । इस नवविधा भक्ति के पहले तीन प्रकार – श्रवण, कीर्तन और स्मरण । यह परमेश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए सहायक होते हैं । इसके आगे के तीन भक्तिप्रकार – सेवन, अर्चन और वंदन, ईश्वर के सगुण रूप से संबंधित हैं और अंत में दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन, यह आंतरिक भाव है । पहले ३ में नाम को विशेष महत्त्व है । ईश्वर की कीर्ति, गुण आदि का श्रद्धायुक्त अंतःकरण से श्रवण करने के पश्चात कीर्तन और स्मरणभक्ति होती है ।
हम आज जानेंगे कि श्रवण भक्ति का महत्त्व क्या है ? श्रवण भक्ति कैसे करें ? हम लोग सभी कीर्तन, भजन, कथा आदि के माध्यम से ईश्वर के गुणों का श्रवण करते रहते हैं । यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सब हमें इसप्रकार श्रवण करनी चाहिए जिससे हमारे अंत:करण में भक्ति का केंद्र निर्माण हो । यही आज हम जानकर लेने का प्रयास करेंगे ।
१. श्रवण भक्ति
सच्चे भक्तों के मन में ईश्वर के स्मरण के अतिरिक्त दूसरी कोई भी इच्छा नहीं होती । वे मोक्षप्राप्ति की इच्छा भी नहीं रखते । भक्तों के हृदय में भक्ति की ज्योत, गुरुकृपा से तथा साधकों के और संतों के सत्संग से सदैव प्रज्वलित रहती है । यही नवविधा भक्ति में पहली भक्ति है श्रवण भक्ति ।
श्रवण भक्ति, यह शब्द हमने बहुत बार सुना है; परंतु इसका अर्थ क्या है ?
सार – श्रवण अर्थात सुनना और श्रवण भक्ति जो हम भक्ति पूर्वक सुनते हैं, उसे ही श्रवण भक्ति कहते हैं । हम ईश्वर के बारे में इतना कुछ सुनते हैं, पर वह श्रवण भक्ति ही है क्या और श्रवण भक्ति शब्द भी हमने अनेक बार सुना ही है, परंतु उसके आगे जाकर श्रवण भक्ति का खरा अर्थ क्या है और हमारे जीवन में श्रवण भक्ति एक सीढी है और उसका उपयोग कैसे करना है, यह आज हम सीख रहे हैं ।
श्रवण भक्ति – समाज के अनेक लोग कीर्तन, प्रवचन, परायण, साप्ताहिक सत्संग इत्यादि में जाते हैं, और केवल बैठकर सुनते हैं । इसका कोई अर्थ नहीं है । सही में तो ‘श्रवण’ यह भक्ति मार्ग का प्रवेश द्वार है । ‘श्रवण’ शब्द का खरा अर्थ क्या है और ‘श्रवण भक्ति’ खरे अर्थ में क्या है ? यह हम आज के सत्संग में सीखेंगे ।
व्यावहारिक स्तर पर – श्रवण अर्थात सुनना । ‘श्रवण’, यह संपर्क साधने के लिए मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है । हमारे पास पांच ज्ञानेंद्रिय हैं, परंतु ज्ञान मिलने की शुरुआत दृश्य और श्रवण अर्थात आंख और कान से होती है । उसमें भी कान से अर्थात सुनकर ज्ञान मिलने की जो क्रिया है, वह सबसे पहले शुरू होती है । श्रवण से ग्रहण किया हुआ ज्ञान लंबे समय तक स्मरण में रहता है । इसलिए श्रवण यह भक्ति का पहला प्रकार है । हम श्रवण भक्ति के बारे अपने जीवन में व्यवहार में उदाहरण से देखते हैं । जब हमें किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना हो, जिसे हमने स्वयं ही न कभी देखा हो, न हम कभी उनसे मिले हैं तब हम सर्वप्रथम उस व्यक्ति के बारे में जितनी संभव है उतनी जानकारी इकट्ठा करते हैं अर्थात वह व्यक्ति देखने में कैसा है, वह क्या काम करता है, उसकी पसंद-नापसंद क्या है, वह कहां रहता है इत्यादि ।
आध्यात्मिक स्तर पर – उसीप्रकार हमें यदि ईश्वर की भक्ति करनी है, तो पहले उनका स्वरूप कैसा है, वह जानना चाहिए ईश्वर को अथवा फिर हमारे जो आराध्य देवता हैं उन्हें क्या पसंद है, उनकी प्राप्ति के लिए कौन-कौन से प्रयत्न करने चाहिए यह सभी पहले सुने बिना अथवा जाने बिना हम उसे आचरण में नहीं ला सकते, इसलिए भक्तिमार्ग में श्रवण भक्ति सबसे पहला चरण है ।
परमात्मा का नाम और गुण संकीर्तन सुनना, भक्ति की सबसे पहली सीढी है । भक्ति के इसप्रकार में ईश्वर का गुणगान सुनना होता है । फिर उसे आत्मसात करना होता है । ईश्वर के बारे में जो कुछ विचार सुनने मिलता है, वह सब हमें अपने हृदय में संभाल कर रखना है । श्रवण, इस माध्यम से ईश्वर का सतत अनुसंधान रखना चाहिए । श्रवण का जो महत्त्व है, भगवान ने हमें उदाहरण के साथ दिखाया है ।