नवविधा भक्ति का श्रवण, कीर्तन यह क्रम सृष्टिक्रम के अनुरूप है । मनुष्य जब जन्म लेता है, तब वह जो सीखना आरंभ करता है, वह श्रवण से सीखता है । श्रवण के पश्चात कीर्तन अर्थात बोलना; इसलिए नवविधा भक्ति के अंतर्गत दूसरी भक्ति है कीर्तन भक्ति !
कीर्तन भक्ति
जो ईश्वर की अनंत लीलाओं से अवगत होता है और उनकी लीलाओं का अखंड वर्णन करता है, वही सच्चा भक्त है ! ईश्वर के गुण, रूप, कार्य, कीर्ति, शक्ति, महिमा, उनकी लीलाएं; ऐसा सब कुछ अन्यों को बताए बिना भक्त को चैन ही नहीं मिलता । यही कीर्तन भक्ति है ।
सच्चा भक्त लोगों के सामने निरंतर ईश्वर का अखंड गुणगान करता रहता है । इसलिए कि उसके मन में निरंतर ईश्वर के ही विचार आते हैं । ईश्वर तो सर्वगुण संपन्न हैं । इसलिए उनके गुणों का बखान कभी रुकेगा नहीं । अतः कीर्तन से उसकी भक्ति निरंतर चलती रहती है । भगवान की लीलाएं, कीर्ति, शक्ति, महिमा, चरित्र, गुण, नाम आदि का प्रेमपूर्वक वर्णन करना, कीर्तन भक्ति है । देवर्षि नारद, महर्षि व्यास, ऋषि वाल्मिकि, महर्षि शुकदेव आदि सभी ने कीर्तन भक्ति की है ।
१. व्यासपुत्र शुकदेव
हमने श्रवणभक्ति के संदर्भ में पढा । उसके अंतर्गत श्रवण भक्ति से साधना के आदर्श उदाहरण राजा परीक्षित के संबंध में सुना था । उस राजा परीक्षित को ज्ञान प्रदान करनेवाले व्यासपुत्र शुकदेव थे । उन्होंने स्वयं कीर्तन भक्ति कर, श्रवणभक्ति द्वारा परीक्षित को मुक्ति का अवसर दिया ।
२. नारद
देवर्षि नारद भगवान विष्णुजी के परमभक्त हैं । श्रीहरि विष्णुजी को भी नारदजी अत्यंत प्रिय हैं । नारदजी अपनी वीणा की मधुर झंकार से अखंड श्रीविष्णु का गुणगान करते हैं । वे निरंतर ‘नारायण नारायण’ जाप करते-करते भ्रमण करते रहते हैं । केवल इतना ही नहीं, अपितु नारदजी उनके आराध्य, श्रीविष्णुजी के भक्तों की सहायता भी करते हैं । लोककल्याण की तीव्र लगन रखनेवाले नारदमुनिजी ने अनेक जीवों को भगवान के पावन चरणों तक पहुंचाया है, जिसकी गणना हो ही नहीं सकती । देवर्षि नारदजी ने ही भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष एवं बालक ध्रुव जैसे भक्तों को उपदेश देकर उन्हें भक्ति के लिए प्रेरित किया । यही उनकी कीर्तनभक्ति है । भक्ति के संदर्भ में अन्यों को उपदेश देना, नारायणजी का अखंड स्मरण करते हुए इस ब्रह्मांड का भ्रमण करते हुए उनके संदर्भ में बताना, विष्णुजी की अखंड स्तुति करते रहना, अन्यों का मार्गदर्शन करते रहना, अन्यों को श्रीविष्णुजी के संदर्भ में बताकर हम भगवान विष्णुजी के चरणोंतक कैसे पहुंच सकते हैं, इस विषय में भक्तों का दिशादर्शन करना, इन पद्धतियों से देवर्षि नारद अखंड कीर्तनभक्ति करते हैं ।
३. वाल्मिकि ऋषि
वाल्या डाकू को रामनाम की महिमा बतानेवाले नारदजी ही थे ! नारदजी की कीर्तनभक्ति के कारण वाल्या से वाल्मिकि ऋषि बन गए और आगे जाकर इसी वाल्मिकि ऋषि ने रामायण लिखी । रामायण की रचना करना, यह भी उनकी कीर्तनभक्ति ही थी ।
४. महर्षि व्यास
व्यासजी ने ‘महाभारत’ लिखी । उन्होंने ही एक वेद का ४ भागों में विभाजन किया । वे सभी पुराणों के आदिकर्ता हैं । इसप्रकार उनके द्वारा हमें वेद-पुराणों के माध्यम से प्रदान किए गए ज्ञान के कारण तथा उनकी महान ग्रंथरचना के कारण ही उन्हें आदिगुरु कहा जाता है । यह उनकी कीर्तनभक्ति ही है ।
महर्षि शुकदेव, महर्षि व्यास, वाल्मिकि ऋषि तथा देवर्षि नारद ने कीर्तनभक्ति की । उनकी कीर्तनभक्ति के माध्यम से ईश्वर हमें बताना चाहते हैं कि हम किसप्रकार कीर्तनभक्ति कर सकते हैं ।
भगवान को प्रिय देवर्षि नारदजी के चरणों में यह प्रार्थना करेंगे कि जिसप्रकार आप प्रभु की अखंड भक्ति में लीन रहते हैं । उनका स्मरण, उनकी स्तुति और उन्हीं की इच्छा से आप तीनों लोकों में भ्रमण करते हैं; उसीप्रकार से आप हमें भी प्रभु की अखंड भक्ति करना सिखाएं । जिसप्रकार आपने अनेक जीवों को भगवान के चरणों तक पहुंचाया, उसीप्रकार हमें भी भगवान के चरणों तक पहुंचाएं, यह आपके चरणों में प्रार्थना है ।
कीर्तनभक्ति का लाभ
कीर्तन के समय भक्त ईश्वर के सबसे निकट होते हैं । कीर्तनभक्ति में भगवान के गुणवर्णन कर, भक्त अपने मन का भाव दृढ बनाता है । भक्तिरसपूर्ण कीर्तन के कारण सुननेवाले के सामने केवल शब्दों से ही भगवान का भावचित्र उपस्थित होता है । कीर्तनभक्ति के कारण सुननेवाले और उसे बतानेवाले अर्थात श्रोता और हरिदास, इन दोनों की आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
स्वयं परमात्मा का गुणसंकीर्तन करने का अर्थ है ‘कीर्तनभक्ति’ इसमें प्रत्यक्ष भगवान की उपस्थित होते हैं ।
भगवान कहते हैं, ‘जो कोई मेरा गुणसंकीर्तन और स्तुति गाता है; मैं सर्वदा उसके निकट ही रहता हूं । इसीसे हमें कीर्तनभक्ति का महत्त्व ध्यान में आता है ।
॥ ध्यायन कृते यजन यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेअर्चयन ॥
॥ यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम ॥
ध्यान और जप से सतयुग में, यज्ञ से त्रेता युग में, अर्चन से द्वापर युग में जो फल मिलता है । वह कलियुग में, केवल भगवान नाम के कीर्तन से ही प्राप्त हो जाता है ।
- जहां भगवान का नामघोष चलता है, वहां भगवान का वास होता है ।’, ऐसा भगवान स्वयं गीता में बताते हैं । गीता में भगवान के मुख में जो भाषा है, उसे ज्ञानेश्वर महाराजजी ने ज्ञानेश्वरी में अचूकता से पकड ली है । भगवान कहते हैं,
मी तो वैकुंठी नसे। एक वेळ भानुबिंबीही न दिसे,
वरी योगियांची माणसे। उमरोडोनी जाय॥
अर्थात भगवान कहते हैं, ‘मैं वैकुंठ में नहीं रहता । सूर्य की किरणें जहांतक पहुंची हैं, वहां भी मुझे यदि ढूंढने का प्रयास करेंगे, तो भी मैं नहीं मिलूंगा । मैं योगियों के मन में भी नहीं होता ।’ तब अर्जुन ने पूछा, ‘हे भगवन, आप कहां होते हैं, यह भी तो बताएं ।’
परी तयापाशी पांडवा। मी हरपला गिवसावा ।
जेथ नामघोषण बरवा। करीती ते माझे ॥
अर्थ : जहां मेरे नाम का घोष चल रहा अथवा जहां भगवान के गुणों का संकीर्तन हो रहा हैै, वहां मैं होता हूं ।
महाराष्ट्र के पंचप्राण के रूप में सुविख्यात ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम एवं रामदास, ये सभी संत उत्तम कीर्तनकार थे । उत्तरभारत के परम कृष्णभक्त कवि सूरदासजी, परमानंद दासजी, संत मीराबाई जैसे संतों ने कीर्तन-भक्ति को अनन्य महत्त्व दिया है । हरिकीर्तन का विषय भगवान के गुणगान का और साधना का होने के कारण वह अत्यंत मनोरम होता है । कीर्तन के परमानंद में सामान्य से सामान्य मनुष्य ही नहीं, अपितु वैकुंठ के अधिपति भी डोलने लगते हैं ।
- नामदेवजी के कीर्तन में स्वर्ग की ध्वजा नीचे उतारी जाती थी और स्वयं विठ्ठल तल्लीन होकर नाचते थे । इसीलिए कहते हैं, ‘नामदेव करें कीर्तन, आगे नाचें पांडुरंग’
- पैठण क्षेत्र में जब ज्ञानेश्वर महाराज का कीर्तन होता था, तब चराचर सृष्टि रोमांचित हो उठती थी ।
- तुकाराम महाराज के कीर्तन में उपस्थित छत्रपति शिवाजी महाराज को पकडने के लिए आए यवनों को खरे शिवाजी कौन है, यह पहचाना असंभव हो गया । कारण यह कि तब प्रत्यक्ष विठ्ठलजी ने ही शिवाजी महाराज का रूप लेकर यवनों को दूसरी ओर मोड दिया था ।
- इंदौर के संत प. पू. भक्तराज महाराज जी जब अपनी परावाणी में भजन गाते थे, तब सूक्ष्म से देवी-देवता भी वहां भजन सुनने के लिए धरती पर आते थे ।
- एकनाथ महाराज के कीर्तन में भी यही सामर्थ्य था । एकनाथ महाराज कहते हैं,
आवडी करीता हरिकीर्तन ह्रदयी प्रकटे श्री जनार्दन
त्योहोनी श्रेष्ठ साधन सर्वया अन् असेना ।
थोर कीर्तनाचे सुख निष्ठा तुष्टे यदिनायक
कीर्तने तरले असंख्य सवडे लोक हरिनामे ॥
अर्थ : जब कीर्तन मन में ईश्वर के प्रति प्रेम रखकर किया जाता है, तब हृदय में साक्षात भगवान प्रकट होते हैं । इससे अधिक श्रेष्ठ साधना और कोई नहीं है । कीर्तन से सुख मिलता है और साक्षात भगवान आदिनायक संतुष्ट होते हैं । कीर्तन में बताएनुसार लोग भवसागर के पार हो गए हैं ।
- संत सूरदास जी लिखते हैं
जो सुख होत गुपालहीं गाए
सो नहीं होत जप तप के कीने कोटिक तीर्थ नहाएं
अर्थात गोपाल के जप से जो आनंद मिलता है, उसके आगे जप तप तीर्थ आदि चीज हैं ?
- मीरा बाई गाती हैं ‘मेरा मन राम ही राम रटै रे !’
- चैतन्य महाप्रभु ने संस्तुति की है : कलह तथा छल-कपट के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान के नाम का कीर्तन है । कोई अन्य उपाय नहीं है । निरपराध होकर ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र का कीर्तन करने मात्र से सारे पाप-कर्म दूर हो जाते हैं और भगवतप्रेम की कारणस्वरूपा शुद्ध भक्ति प्रकट होती है । भगवान का पवित्र नाम भगवान के ही समान शक्तिमान है, अतः भगवान के नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से लोग भवसागर को शीघ्र ही पार कर लेते हैं (श्रीमद् भागवतम ४.१०.३०) |
शुकदेव गोस्वामीजी ने केवल कीर्तन से मोक्ष प्राप्त किया ।
कीर्तन भक्ति का एक साधक के जीवन में क्या महत्त्व है, आज हमें पराकोटि के भक्तों के माध्यम से ज्ञात हो रहा है । कीर्तन भक्ति में भक्त अपने भगवान की लीलाओं का वर्णन करते हुए भगवान से एकरूप होने लगते हैं । आज भी हम देखते हैं कि अनेक स्थानों पर भगवान का कीर्तन श्रद्धापूर्वक होता है । यहां ध्यान देनेवाली बात केवल यही है कि कीर्तन ऐसा हो जिसमें हम ईश्वरीय तत्त्व की अनुभूति ले पाएं । ईश्वर का गुणगान करते समय अपना अस्तित्व ही भूल जाएं; परंतु वर्तमान में कीर्तन भजन में हमसे अक्षम्य गलतियां भी हो रही हैं, जैसे हम फिल्मी धुनों पर कीर्तन अथवा भजन गाते हैं । इससे क्या होता है वह धुन सुनते ही पहले हमें वह फिल्मी गाना याद आता है । ऐसे में भजन की सात्त्विकता नहीं रहती और वह हमारे लिए मनोरंजन जैसा हो जाता है । इसलिए हमें ध्यान रखना चाहिए कि भजन-कीर्तन कभी भी फिल्मी धुनों पर न हों । संतों और भक्तों द्वारा विरचित भजन उनकी ही बनाई धुनों पर जब हम गाते हैं, तब हमें उन भजनों का चैतन्य मिलता है और देवता के प्रति हमारा भाव भी शीघ्र जागृत होता है ।