गायत्रीदेवी का आध्यात्मिक महत्त्व और उनकी गुणविशेषताएं !

हमें गायत्रीमंत्र ज्ञात है । हममें से अनेक लोग इस प्रचलित मंत्र का जप भी करते हैं । अब हम गायत्रीदेवी के चरणों में प्रार्थना कर उसके संदर्भ में जान लेते हैं ।

 

१. उत्पत्ति की कथा

१ अ. श्रीगणेशजी की सहायता करने के लिए ब्रह्मदेव द्वारा गायत्रीदेवी की निर्मिति करना

‘सत्ययुग का आरंभ होने से पूर्व ब्रह्मदेव ने देवताओं की निर्मिति की । सत्ययुग का आरंभ होने के उपरांत भी देवताओं का तेज मनुष्य तक नहीं पहुंच रहा था; इसलिए कि देवता अधिक प्रमाण में निर्गुण स्वरूप के थे । देवताओं में विद्यमान निर्गुण तत्त्व का रूपांतर सगुण तत्त्व में करने के लिए श्रीगणेश को एक शक्ति की सहायता की आवश्यकता थी । इसलिए ब्रह्मदेव ने सरस्वती और सवितृ, इन देवताओं की संयुक्त तत्त्वों से गायत्री देवी की निर्मिति की । – (संदर्भ : ज्ञान से प्राप्त जानकारी)

 

२. गायत्री शब्द का अर्थ

‘गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति है – गायन्तं त्रायते । अर्थात गायन करने से (मंत्र से) रक्षा जो करे और गायंतं त्रायंतं इति । अर्थात सतत गाते रहने से जो शरीर से गायन करवाए (शरीर में मंत्रों के सूक्ष्म स्पंदन निर्माण करती है ।) और जो तारने की शक्ति उत्पन्न करती है, वह है गायत्री । – संदर्भ (सनातन का ग्रंथ : मंत्रयोग)

 

३. अन्य नाम

अथर्ववेद में गायत्री को ‘वेदमाता’ कहा गया है । गायत्री देवी की उत्पत्ती सरस्वती से हुई है । इसलिए कुछ स्थानों पर उनका उल्लेख सावित्री किया जाता है । गणेश गायत्री, सूर्य गायत्री, विष्णु गायत्री आदि प्रचलित गायत्रीमंत्रों के नाम से भी गायत्री को संबोधित किया जाता है ।

 

४. निवास

उनका निवास ब्रह्मलोक से सूर्यलोक की ओर जानेवाले मार्ग पर है । यह ब्रह्मलोक का उपलोक होने से उसे ‘गायत्रीलोक’ भी कहते हैं । वहां अखंड वेदमंत्रों का जयघोष होता रहता है और सुनहरे रंग का प्रकाश सर्वत्र फैला होता है । वहां कभी रात्रि नहीं होती । वहां का वातावरण उत्साहवर्धक और आल्हाददायी है । गायत्री उपासकों को मृत्यु उपरांत गायत्रीलोक में स्थान प्राप्त होता है । कुछ सूर्योपासकों को भी इस लोक में स्थान मिलता है ।

 

५. त्रिगुणों की मात्रा (प्रतिशत)

५ अ. सत्त्व – ७०

५ आ. रज – २०

५ इ. तम – १०

 

६. क्षमता की मात्रा (प्रतिशत)

६ अ. उत्पत्ति – ६०

६ आ. स्थिति – ३०

६ इ. लय – १०

 

७. शक्ति

७ अ. प्रकट शक्ति की मात्रा (प्रतिशत) : ७०

७ आ. शक्ति का प्रकार

७ आ १. तारक शक्ति की मात्रा (प्रतिशत) : ७०

७ आ १ अ. मारक शक्ति की मात्रा (प्रतिशत) : ३०

७ आ २. सगुण शक्ति की मात्रा (प्रतिशत) : ५०

७ आ २ अ. निर्गुण शक्ति की मात्रा (प्रतिशत) : ५०

 

८. मूर्तिविज्ञान

गायत्रीदेवी दो प्रकार दिखाई जाती हैं ।

८ अ. पहला रूप

‘गायत्रीदेवी धन और ऐश्‍वर्य का प्रतीक हैं और लाल कमल पर विराजमान होती हैं । उनके पांच मुख होते हैं । उनके नाम अनुक्रम से मुक्ता, विद्रुमा, हेमा, नीला और धवला हैं । वे दस नेत्रों से दसों दिशाओं का अवलोकन करती हैं । उनके आठ हाथों में शंख, सुदर्शनचक्र, परशु, पाश, जपमाला, गदा, कमल और पायसपात्र (देवी को नैवेद्य के रूप में चढाए जानेवाला पायस नामक पदार्थ (खीर)) का पात्र होता है । उनका नौवां हाथ आशीर्वाद देनेवाला और दसवां हाथ अभयदान देनेवाली मुद्रा में होता है ।

८ आ. दूसरा रूप

गायत्रीदेवी हंस पर आरूढ होती है । वह द्विभुज होती हैं । उनके एक हाथ में वेद, जो ज्ञान के प्रतीक हैं और दूसरा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में होता है । – संदर्भ (जालस्थल पर जानकारी)

 

९. कार्य और विशेषताएं

९ अ. आदिशक्तिस्वरूप

गायत्रीदेवी माता सरस्वती, महालक्ष्मी और पार्वती, इन तीनों देवियों का एकत्र रूप हैं । वे आदिशक्तिस्वरूप हैं ।

९ आ. ब्रह्मदेव की कार्यरत शक्ति

वे ब्रह्मदेव की कार्यरत शक्ति होने से ब्रह्मदेव उनके बिना निष्क्रिय होते हैं ।

९ इ. १२ आदित्य और सूर्य को तेज प्रदान करना

सवितृ से गायत्री को और गायत्री से १२ आदित्यों को तेज प्रदान किया जाता है । स्थूल से दिखाई देनेवाले सूर्य को भी तेज प्रदान करनेवाली शक्ति गायत्री ही हैं । उनमें सूर्य से १६ गुना अधिक शक्ति है ।

९ ई. देवताओं की अप्रकट अवस्था में विद्यमान शक्ति और चैतन्य प्रकट होना

गायत्रीमंत्र के उच्चारण से विविध देवताओं की अप्रकट अवस्था में विद्यमान शक्ति और चैतन्य प्रकट होकर कार्यरत होते हैं । इससे उपासक को शीघ्र देवताओं की कृपा मिलती है ।

 

१०. उपासना

१० अ. प्रतिमा का पूजन करना

गायत्रीदेवी की उपासना के अंतर्गत उसकी प्रतिमा का पूजन किया जाता है ।

१० आ. गायत्रीमंत्र का उच्चारण करना

त्रिकाल संध्या उपासना में और यज्ञोपवीत संस्कार के समय गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाता है । गायत्री मंत्र कहने से वेदोच्चारण करने का फल मिलता है ।

१० इ. गायत्रीयाग

सवितृ और गायत्री, इन देवियों को प्रसन्न करने के लिए अनुक्रम से सवितृकाठ्ययाग (टिप्पणी) और गायत्रीयाग किया जाता है ।

टिप्पणी : सवितृ देवता को प्रसन्न करने के लिए सवितृकाठ्ययाग किया जाता है । सहस्रों वर्षों पूर्व अत्री ऋषि ने यह याग पीठापुर, आंध्रप्रदेश में किया था, ऐसा उल्लेख श्रीपादश्रीवल्लभ के चरित्र में है । इस याग का उल्लेख धर्मशास्त्र में है ।

 

११. गायत्रीमंत्र

११ अ. गायत्रीमंत्र

‘चौदह अक्षरी मंत्र होने से उसका संबंध मनुष्य के शरीर में २४ स्थानों पर वास करनेवाले २४ देवताओं से है । यह सिद्ध मंत्र है ।

११ अ १. गायत्रीमंत्र की व्युत्पत्ति और अर्थ

पहला शब्द ॐ उभरा । उससे मुख्य गायत्री मंत्र बना; इसीलिए गायत्री मंत्र को सर्व वैदिक मंत्रों का राजा, ऐसी संज्ञा दी गई है । छंद में भी मुख्य छंद गायत्री ही है । गायत्री मंत्र का पाठ निर्धारित छंद में ही होना चाहिए, अन्यथा वह केवल जप होता है । – संदर्भ (सनातन का ग्रंथ : मंत्रयोग)

११ अ २. गायत्रीमंत्र

ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुः वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात ।

११ अ ३. गायत्रीमंत्र का अर्थ

श्‍लोक का अर्थ समझने के लिए शब्दों की बदली हुई रचना : सवितु: देवस्य तत् वरेण्यं भर्ग: धीमहि । य: न: प्रचोदयात ।

अर्थ : जो सूर्य हमारी बुद्धि को प्रेरणा देता है, ऐसे सर्वश्रेष्ठ तेज की हम उपासना करते हैं ।

११ अ ४. संबंधित ऋषि और देवता

इस मंत्र के ऋषि विश्‍वामित्र हैं और मंत्र के देवता सवितृ हैं ।

११ अ ५. गायत्रीमंत्र के प्रकार

११ अ ५ अ. त्रिपादगायत्री : इसमें ॐ आगे दिए अनुसार तीन बार आता है ।

ॐ भूर्भुवः स्वः ।
ॐ तत् सवितुः वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् ।

त्रिपादगायत्री में श्‍वास लेते समय पहला पद, रोक कर रखने पर दूसरा पद और छोडते समय तीसरा पद मन में कहते हैं । इससे पूरक, कुंभक और रेचक का प्रमाण १:४:२ प्राणायाम भी होता है ।

पूरक, कुंभक और रेचक, ये प्राणायाम की तीन क्रियाएं हैं ।

११ अ ५ आ. चतुष्पादगायत्री : इसमें त्रिपादगायत्री के तीन ॐ हैं । चौथा ॐ प्रचोदयात् के उपरांत लगाया जाता है । चौथे ॐ के कारण रेचक के उपरांत का कुंभक भी होता है ।

११ अ ५ इ. अजपागायत्री : श्‍वास अंदर लेते समय नैसर्गिक रीति से सोऽ (सः) और श्‍वास छोडते समय नैसर्गिक रीति से होनेवाले इस हं की ध्वनि पर (सोऽहं) लक्ष देना, इसे अजपागायत्री अथवा अजपाजप कहते हैं ।

११ अ ६. विविध देवी-देवताओं के गायत्री मंत्र

विविध देवी-देवताओं के भिन्न-भिन्न गायत्रीमंत्र हैं । उदा. कृष्ण, राम, सरस्वती । आवश्यकता के अनुसार कौन-से गायत्रीमंत्र का जप करना चाहिए, यह उन्नत (संत) बताते हैं ।

११ अ ७. गायत्रीमंत्र के उच्चारण से होनेवाले लाभ

११ अ ७ अ. वाणी शुद्ध होना

गायत्रीमंत्र के उच्चारण से वाणी शुद्ध होती है । शुद्ध वाणी से ही वेदमंत्रों का उच्चारण करना होता है । इससे उपनयन के समय बटु को गायत्रीमंत्र की दीक्षा दी जाती है ।

११ अ ७ आ. पिंड की शुद्धि होना

गायत्रीमंत्र के उच्चारण से पिंड की शुद्धि होकर जीव में वेेदमंत्रों के उच्चारण से निर्माण होनेवाली दैवीय ऊर्जा ग्रहण करने की क्षमता निर्माण होती है ।

११ अ ७ इ. जीव की अंतर्बाह्य शुद्धि होना

गायत्रीमंत्र के उच्चारण से प्राणवहन में आनेवाली बाधाएं दूर होकर देह की रक्तवाहिनियों, ७२००० नाडियों और प्रत्येक कोशिका की शुद्धि होने से जीव की अंतर्बाह्य शुद्धि होती है ।

११ अ ७ ई. वेदाध्ययन में सहायक होना

गायत्री की उपासना से वेदाध्ययन करना सुलभ होता है ।

११ अ ७ उ. कर्मकांड के अनुसार उपासना करने के लिए सहायक होना

गायत्रीमंत्र के उच्चारण से देवताओं के तत्त्व दिव्य तेज सहित जागृत होकर कार्यरत होते हैं । इससे कर्मकांडानुसार उपासना करते समय, अर्थात धार्मिक विधि और यज्ञ आदि कर्म करते समय गायत्री मंत्र अथवा विशिष्ट देवता का गायत्री मंत्र का जानबूझकर उच्चारण किया जाता है ।

११ अ ७ ऊ. गायत्रीमंत्र के पुरश्‍चरण करने से विविध प्रकार के ऐहिक लाभ होना

प्रतिदिन नियमितरूप से एक सहस्र बार गायत्रीमंत्र का पुरश्‍चरण करने से व्यक्ति पापमुक्त होता है, उसे धनलाभ होता है और स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है ।

११ अ ७ ए. गायत्रीमंत्र के पुरश्‍चरण से पारमार्थिक लाभ होना

संपूर्ण जीवनभर गायत्रीमंत्र का भावपूर्ण, नियमित और श्रद्धा से पुरश्‍चरण करने से गायत्रीदेवी के प्रसन्न होने से उस व्यक्ति को मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

 

१२. पुणे (महाराष्ट्र) के मंत्रतज्ञ डॉ. मोहन फडके के बताए
अनुसार गायत्रीमंत्र से अभिमंत्रित जल के प्राशन से हुई अनुभूति

दो माह पूर्व पूणे के मंत्रतज्ञ डॉ. मोहन फडके सनातन के रामानथी आश्रम में आए थे । उन्होंने मेरे शरीर का मेद (वसा) न्यून करने के लिए मुझे प्रतिदिन गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल पीने के लिए कहा । मैं प्रतिदिन १०८ बार गायत्रीमंत्र कहते हुए तांबे के पात्र में रखे जल में दाएं हाथ की उंगलियों को डुबोकर जल अभिमंत्रित करता था । मंत्रजप पूर्ण होने पर जब मैंने उस पानी को स्पर्श किया तब ध्यान में आया कि वह बहुत गर्म हो गया है । मैंने निरंतर १५ दिनों तक गायत्रीमंत्र से अभिमंत्रित जल पीता था । इससे मुझ पर आगे दिए अनुसार परिणाम हुए ।

१२ अ. कष्टदायक शक्ति का घना काला आवरण पिघलते जाना प्रतीत होना

‘मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरे शरीर, मन और बुद्धि पर आया कष्टदायक शक्ति का घना काला आवरण पिघलता जा रहा है और मन का उत्साह बढ रहा है । इससे बुद्धि को नए-नए विचार सूझ रहे हैं ।

१२ आ. शरीर में अच्छी ऊर्जा निर्माण होना

मेरे नाभी के स्थान पर अच्छी ऊर्जा निर्माण हुई है और उसका विस्तार मेरी नाभी से लेकर मेरे आज्ञाचक्र और सहस्रारचक्र तक होता प्रतीत हुआ ।

१२ इ. देह के विविध भागों से उष्ण वाष्प बाहर निकलती हुई प्रतीत होना

मंत्रजप करते समय मेरे कान, आंख, ओंठ, गाल, हथेलियों और तलुओं से उष्ण वाष्प बाहर निकलती प्रतीत हुई ।

१२ ई. गायत्रीमंत्र की ऊर्जा सहन न होने से विविध शारीरिक कष्ट होना

पंद्रह दिन अखंड गायत्रीमंत्र से अभिमंत्रित जल (तीर्थ) प्राशन करने पर मुझे गायत्रीमंत्र की ऊर्जा सहन न होने से पेट में वेदना होने लगी और मुंह में छाले पड गए । इसलिए मैं प्रतिदिन १०८ के स्थान पर केवल २१ बार गायत्रीमंत्र कहकर, अभिमंत्रित किया जल पीने लगा । तब से मुझे होनेवाला कष्ट पूर्णरूप से थम गया ।

 

१३. कृतज्ञता

गायत्रीमाता की ही कृपा से उनके संदर्भ में जानकारी मिली, जिससे यह लेख पूर्ण हुआ । इसके लिए उनके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता ! सूर्य के क्षात्रतेज और वेदों के ब्राह्मतेज को हम मानवों तक पहुंचाने के लिए गायत्रीदेवी के श्रीचरणों में प्रणाम कर भावपूर्ण कृतज्ञता व्यक्त करेंगे ।

– कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१.६.२०१७)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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