भयंकर दोष उत्पन्न करनेवाली आज की शिक्षा पद्धति की तुलना में मनुष्य का चारित्र बनानेवाली शिक्षा देना क्यों आवश्यक है, इसपर स्वामी विवेकानंद के अमूल्य विचार हम प्रस्तुत लेख में जानेंगे ।
‘शिक्षा कैसी होनी चाहिए ?’
१. शिक्षा, ‘मनुष्य’ को मनुष्यता सिखानेवाली और चरित्र बनानेवाली होनी चाहिए !
‘जीवन से न जुडा और मस्तिष्क में जैसे-तैसे ढूंसा गया बोझिल ज्ञान, शिक्षा नहीं कहलाता ! हमें स्वावलंबी करनेवाली, मनुष्यता सिखानेवाली, चरित्र बनानेवाली और अच्छे विचार ग्रहण करने में रुचि उत्पन्न करनेवाली शिक्षा चाहिए । आप ४ – ५ अच्छे विचार अपना कर उन्हें आचरण में लाएंगे, तो ग्रंथालय के सारे ग्रंथ कंठस्थ करनेवालों से भी आपकी शिक्षा श्रेष्ठ होगी !
२. मनुष्य को मनुष्यता सिखाने में पूर्णतः विफल और भयंकर दोष उत्पन्न करनेवाली आज की शिक्षा !
अपने देश में आध्यात्मिक और भौतिक शिक्षा का भार हमें उठाना चाहिए, क्या यह आप समझ पा रहे हैं ? आज आपको जो शिक्षा मिल रही है, उसमें कुछ अच्छी बाते हैं; किंतु उसमें इतने भयंकर दोष हैं कि उनके कारण अच्छी बातें भी निरुपयोगी हो रही हैं । पहिली बात यह है कि यह शिक्षा ‘मनुष्यता’ नहीं उत्पन्न करती; इसलिए सर्वथा निरर्थक है । निरुपयोगी शिक्षा अथवा नकारात्मक विचार देनेवाली शिक्षा, मृत्यु से भी बुरी होती है ।’
स्वामी विवेकानंद के मनुष्य की दुर्बलता नष्ट करनेवाले उद्बोधक विचार
१. जगत् के पाप और दुष्टता का ढोल पीटकर उसे अधिक दुर्बल न बनाएं !
‘जगत् के पाप और दुष्टता का निरर्थक ढोल न पीटें । इसके विपरीत, हमें अभी भी जो पाप दिखाई दे रहा है, उसपर खेद होना चाहिए । हमें चारों ओर जो पाप दिख रहा है, उससे मन को बहुत बुरा लगना चाहिए और यदि आप इस जगत् को सहायता करना चाहते हैं, तो उसे निरंतर कोसते अथवा दोष देते न रहें । उसे और अधिक दुर्बल न बनाएं; क्योंकि पाप कहिए अथवा दुःख, सब दुर्बलता के ही कारण हैं । ‘हम दुर्बल हैं, पापी हैं’, यह हमें बचपन से ही सुनाया जा रहा है । इस सीख के कारण संसार प्रतिदिन अधिक दुर्बल होता जा रहा है ।
२. मनुष्य को उसमें छिपी शक्ति का स्मरण कराएं !
सिर पर हाथ रखकर अपनी दुर्बलता पर लंबी सांसें भरना, यह तो दुर्बलता दूर करने का उपाय नहीं है । दुर्बलता दूर करने का उपाय है, बल और शक्ति । मनुष्य की सोई शक्ति जग जाए, ऐसा कुछ करें । उसे उसका स्मरण कराएं, उस विषय का ज्ञान दें ।’
संदर्भ : शक्तिदायी विचार, स्वामी विवेकानंद (छठी आवृत्ति), रामकृष्ण मठ, नागपुर
अनमोल विचारधन
स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म का पूरे विश्व में प्रचार किया । हिन्दू धर्म के विषय में फैलाए गए दुष्प्रचारों का खंडन कर, स्वामीजी ने हिन्दुओं का धर्माभिमान जगाया । हिन्दुओ ! स्वामीजी के इन विचारों के अनुसार आचरण करना ही उनके चरणों में खरी कृतज्ञता व्यक्त करना है, यह ध्यान में रखो !
१. भारतीय युवक समग्र क्रांति के लिए संगठित हों !
भारतमाता को अपने सर्वश्रेष्ठ संतान के बलिदान की आवश्यकता है । इस पृथ्वी के सबसे पराक्रमी और सर्वश्रेष्ठ लोगों को, ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ आत्मबलिदान करना ही पडता है । यदि उत्साही, श्रद्धावान और निष्कपट युवक मिलें, तो पूरे विश्व में समग्र क्रांति की जा सकती है । हिन्दुस्थान के लिए अपना तन, मन और प्राण न्योछावर करने के लिए तत्पर युवकों को संगठित करें ! – स्वामी विवेकानंद
२. युवको, अपने में ऐसा प्रखर धर्माभिमान जगाओ !
एक बार नौका से यात्रा करते समय स्वामी विवेकानंद की अन्य पंथ के दो लोगों से धार्मिक चर्चा हो रही थी । वे लोग अकारण ही हिन्दू धर्म के प्रति अपशब्द कहने लगे । उसी क्षण स्वामीजी ने उनमें से एक का गला पकडा और गरजते हुए कहा, ‘‘इसके आगे एक शब्द भी बोला, तो उठाकर समुद्र में फेंक दूंगा !’’ (कहां ऐसे धर्माभिमानी स्वामी विवेकानंद, तो कहां नाटक, विज्ञापन, भाषण आदि के द्वारा हिन्दू धर्म, धर्मग्रंथ, देवता, संत, महापुरुष आदि का निरादर होता देखकर भी, चुप रहनेवाले हिन्दू ! संपादक)
मातृभूमि की रक्षा हेतु त्याग करने के लिए तत्पर रहें !
स्वामी विवेकानंद हिन्दुओं को लोहे की बाहुओंवाला, इस्पात की नाडियोंवाला और वज्र समान मनवाला बनाना चाहते थे । वे कहा करते थे, ‘बाहु बलिष्ठ होने पर भगवद्गीता अधिक अच्छे से समझ में आती है । जब आपकी धमनियों में रक्त वेग से उछलने लगेगा, तब आपको भगवान् श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष की विराट प्रज्ञा और अपूर्व सामर्थ्य का ज्ञान होगा । आज भारतमाता को अपने सर्वश्रेष्ठ संतान के बलिदान की आवश्यकता है।
ईसाई धर्मप्रचारक हिन्दू धर्म के विरुद्ध विष उगलते हैं; किंतु इस्लाम के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं करते !
‘स्वामी विवेकानंद ने एक बार ईसाई धर्मप्रचारकों के विषय में कहा था, ‘ईसाई धर्मप्रचारकों की भाषा अपने धर्म का प्रचार करते समय हिन्दू धर्म के प्रति सदैव विषैली होती है; किंतु उनमें ‘इस्लाम’ के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं है; क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा करने पर तुरंत तलवारें खिंच जाएंगी।’ (मासिक अभय भारत, १५ सितंबर से १४ अक्टूबर २०१०)
उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत ।
‘कठोपनिषद् का ‘उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत’, यह स्वामी विवेकानंद का बहुत प्रिय वाक्य था । अर्थात, ‘उठो, जागो ! लक्ष्य प्राप्त होने तक रुको नहीं ।’ कुछ लोग पूछते हैं कि स्वामी विवेकानंद ने उठो और जागो, यह एक ही बात दो बार क्यों कही । इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक जगा व्यक्ति उठा ही है, ऐसा नहीं है और प्रत्येक उठा व्यक्ति जगा (सावधान) है, ऐसा भी नहीं है । वर्तमान में यह बात हिन्दू समाज पर पूर्णतः लागू होती है ।’ डॉ. सच्चिदानंद शेवडे, राष्ट्रीय प्रवचनकार (राष्ट्रजागर)
योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद के अन्य ज्वलंत विचार
सच्चे हिन्दू ! : ‘हिन्दू’ शब्द का उच्चारण करते ही, जिनकी धमनियों में अपूर्व चैतन्य तरंगें प्रवाहित होने लगती हैं, वे ‘हिन्दू’ हैं !’
सनातन वैदिक हिन्दू धर्म का महत्त्व : ‘सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के आचरण से पशुसमान व्यक्ति का गुणी मनुष्य में और गुणी मनुष्य का ईश्वर में रूपांतर होता है !’
‘हिन्दू धर्म के नष्ट होने पर सत्य, न्याय, मानवता और शांति सबकुछ मिट जाएंगे ।’ (मासिक अभय भारत, १५ सितंबर से १४ अक्टूबर २०१०)
हिन्दुओं के धर्मांतर से हानि ! : ‘एक हिन्दू जब दूसरे धर्म में जाता है, तब न केवल हिन्दू धर्म का एक सदस्य घटता है, अपितु हिन्दुओं का एक शत्रु भी बढता है !’
हिन्दुओं का आवाहन ! : पूरे विश्व के कल्याण हेतु दीपस्तंभ की भांति कार्य करनेवाले हिन्दू धर्म का प्रकाश संपूर्ण विश्व में फैलाए बिना शांत न बैठें !
साधना का महत्त्व ! : हिन्दुस्थान यदि ईश्वर को ढूंढने में लगा रहेगा, तो अमर हो जाएगा; किंतु यदि राजनीति के कीचड में लोटेगा, तो नष्ट हो जाएगा !
पूरा जावन धर्म के लिए खपानेवाले महापुरुषों से प्रेरणा लेकर आप भी धर्म के लिए कुछ करें ! : युवको, यदि आपको लगता है कि यह राष्ट्र जीवित रहे, तो आप प्रयास करें कि यह राष्ट्र हिन्दू धर्म पर आधारित जीवनप्रणाली अपनाए !