थियोसोफिस्टों के हिन्दुत्व विरोध पर बेधडक बोलनेवाले स्वामी विवेकानंद !

यह लेख वर्ष १८९७ में चेन्नई के विक्टोरिया सभागार में, ‘मेरी प्रचार योजना’ (My plan of campaign) विषय पर स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान के संपादित अंश हैं । इस व्याख्यान में ‘स्वामी विवेकानंद ने धर्मविध्वंसक सुधारकों की कटु आलोचना की थी । कथित समाज सुधारकों, ईसाई पादरियों और थियोसोफिस्टों (ब्रह्मविद्या प्रचारकों) ने हिन्दू धर्म का प्रचार करनेवाले स्वामी विवेकानंद को कैसे सताया’, इसके प्रमाण हैं । थियोसोफिस्टों की हिन्दुत्व विरोधी प्रवृत्ति पर उनके विचार आगे दे रहे हैं ।

 

१. स्वामी विवेकानंद का ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’ के विषय में मत !

‘भारत में ‘थियोसोफिकल (ब्रह्मविद्या) सोसाइटी’ ने कुछ अच्छे कार्य किए हैं, यह सब जानते हैं । इसलिए प्रत्येक हिन्दू इस संस्था के प्रति, विशेषकर श्रीमती एनी बेसेंट के प्रति कृतज्ञ है । किंतु उनके प्रति कृतज्ञ होना और ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’का अनुयायी होना, दो अलग-अलग बातें हैं । किसी के प्रति आदर, शद्धा, प्रेम होना अलग बात है और बुद्धि की कसौटी पर बिना परखे किसी के विचार अथवा तर्क पूर्णतः ग्रहण करना अलग बात है ।

१ अ. स्वामी विवेकानंद को ‘थियोसोफिस्ट’ लोगों ने सहायता की, यह दुष्प्रचार !

इंग्लैंड और अमेरिका में मेरे छोटे-से कार्य को ‘थियोसोफिस्ट’ लोगों ने सहायता की, यह समाचार सर्वत्र फैलाया जा रहा है । आपको यह स्पष्ट बताना चाहता हूं कि यह समाचार पूर्णत: असत्य है । अमेरिका में न तो मेरा कोई परिचित था और न मेरे पास किसीका परिचयपत्र था । इसलिए मैं ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’के एक नेता से मिला । स्वाभाविक ही मुझे लगा कि वे एक भारतप्रेमी अमेरिकन होने के कारण वहां के किसी नागरिक के नाम से परिचयपत्र देंगे । उन्होंने मुझसे पूछा ‘‘क्या आप हमारी संस्था के सदस्य बनेंगे ?’’ मैंने कहा, नहीं । जब इस सोसाइटी के विचार मुझे मान्य नहीं हैं, तब मैं उसका अनुयायी कैसे बन सकता हूं ?’’ इसपर उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करें, मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता ।’’ क्या उनके इस उत्तर से मेरा मार्ग खुलनेवाला था ? सर्वधर्मसम्मेलन आरंभ होने से कई महीने पहले मैं अमेरिका पहुंच गया था । मेरे पास बहुत थोडा धन था और वह शीघ्र व्यय भी हो गया था । शीतऋतु आई; परंतु मेरे पास ग्रीष्मऋतु में पहने जानेवाले पतले कपडे थे । इस कडाके की ठंड में क्या करूं, यह सूझ नहीं रहा था । मार्ग पर भिक्षा मांगता, तो कारागारमें डाल दिया जाता । उस समय मेरे पास थोडे ही डॉलर बचे थे । मैंने मद्रास (चेन्नई) के अपने मित्रों को तार भेजा । जब थियोसोफिस्टों को यह पता चला, तब उनमें से एक ने लिखा, ‘अब यह शैतान मरनेवाला है । ईश्‍वर ने इससे हमारी रक्षा की है ।’ यह क्या मेरा मार्ग प्रशस्त करना हुआ ? सर्वधर्मसम्मेलन में कुछ थियोसोफिस्ट मुझे मिले, उनसे मैंने घुलने-मिलने और बात करने का प्रयास किया । फिर भी उनके मुखमंडल पर मेरे प्रति तिरस्कार की भावना झलक रही थी । मानो वे कहना चाहते हों, ‘यह क्षुद्र प्राणी देवताओं के इस मेले में क्यों आया ?’

१ आ. स्वामी विवेकानंद ने स्वयं ‘थियोसोफिस्ट’ न होने का बताया कारण !

सर्वधर्मसम्मेलन में मेरा बडा नाम होने पर, मेरे आगे एक बडा कार्यक्षेत्र खुला; किन्तु प्रत्येक कार्य में थियोसोफिस्ट लोगों ने मेरी टांग खींचने का प्रयास किया । मेरे व्याख्यानों में थियोसोफिस्ट उपस्थित न रहें, ऐसा आदेश दिया गया; क्योंकि ऐसा न करने पर उन्हें सोसायटी की सहानुभूति खोने का भय था । उनके गुप्त (Esoteric) विभाग के नियमानुसार जो मनुष्य इस विभाग का अनुयायी बनता है, उसे कुथुमी और मोरिया से उपदेश लेना ही चाहिए । अर्थात, यह उपदेश उनके पृथ्वी पर स्थित प्रतिनिधि श्री. जज् और श्रीमती बेझंट से ही लेना चाहिए । इसलिए इस गुप्त विभाग का अनुयायी बनना, अपनी स्वतंत्रता खोने समान है । उनका यह नियम मानना मेरे लिए असंभव था । इतना ही नहीं, जो मनुष्य इनके नियमों को मानेगा, उसे मैं तो हिन्दू भी नहीं कहूंगा ।

– स्वामी विवेकानंद (वर्ष १८९७)
    • ‘ईश्‍वर ने गुण और कर्म के अनुसार वर्ण बनाए; किन्तु मनुष्य ने जन्म के आधार पर जातियां बनाईं !’

    • ‘जो स्वदेश से प्रेम नहीं कर सकता, वह विश्‍व को कैसे अपनाएगा ? पहले देशप्रेम, पश्‍चात विश्‍वबंधुत्व !’

– स्वामी विवेकानंद

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