युवावस्था में सन्यासाश्रम की दीक्षा लेकर हिन्दू धर्म का प्रचारक बने तेजस्वी और ध्येयवादी स्वामी विवेकानंद

‘मनुष्य’ को स्वावलंबी बनानेवाली और चरित्र निर्माण करनेवाली शिक्षा चाहिए !

जब यहां अंग्रेजों का आधिपत्य था, तब हिन्दू धर्म के उद्धार का विचार दिन-रात करनेवाले तथा तन, मन, धन एवं प्राण इसी कार्य के लिए अर्पित करनेवाले कुछ नररत्नों ने भारत में जन्म लिया था । उनमें एक देदीप्यमान रत्न थे, स्वामी विवेकानंद । धर्मप्रवर्तक, दार्शनिक, विचारक, वेदान्तमार्गी राष्ट्रसंत आदि विविध रूपों में विवेकानंद का नाम पूरे विश्‍व में प्रसिद्ध है । भरी युवावस्था में संन्यास की दीक्षा लेकर हिन्दू धर्म का प्रचारक बने तेजस्वी एवं ध्येयवादी व्यक्तित्त्व थे, स्वामी विवेकानंद ।

स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्‍चात आज भी भारत में हिन्दू धर्म की दुरवस्था रोकने के लिए स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचारों की आवश्यकता है । – श्री. चेतन राजहंस

 

जन्म, बचपन और शिक्षा

स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेंद्रनाथ था । उनका जन्म १२ जनवरी १८६३ को कोलकाता में हुआ था । उनके आचरण में बचपन से ही दो प्रमुख बातें दिखाई देने लगी थीं; एक श्रद्धा-दया और दूसरी साहसपूर्ण कार्य करने से न हिचकना । स्वामी विवेकानंद का परिवार अध्यात्ममार्गी था । इसलिए, बचपन में उनपर उचित संस्कार हुए । वर्ष १८७० में उन्हें ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर के विद्यालय में भेजा गया । विद्यालय में वे अध्ययन के साथ-साथ व्यायाम भी करते थे ।

बचपन में स्वामी विवेकानंद में स्वभाषाभिमान बहुत था, यह दर्शानेवाली एक घटना है । अंग्रेजी भाषा पढाए जाते समय उन्होंने कहा कि यह भाषा गोरों (अंग्रेजों) की है; मैं इसे कदापि नहीं पढूंगा । ऐसा कहकर वे लगभग ७-८ महीने तक वह भाषा नहीं पढे । परंतु, आगे विवश होकर अंग्रेजी पढनी पडी ।

विवेकानंद ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम क्रमांक से उत्तीर्ण कर परिवार और विद्यालय का नाम ऊंचा किया । पश्‍चात, उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेन्सी महाविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय में एम.ए. किया ।

 

गुरुभेंट और संन्यासदीक्षा

नरेंद्र के घर में ही पले-बढे उनके निकट संबंधी डॉ. रामचंद्र दत्त रामकृष्ण परमहंस के भक्त थे । धर्मभावना से प्रेरित नरेंद्र के मन में बचपन में तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ देखकर डॉ. दत्त ने एक बार उनसे कहा, ‘भाई, यदि तुम्हारे जीवन कर उद्देश्य धर्मलाभ ही प्राप्त करना है, तो तुम ब्राह्म समाज आदि के चक्कर में मत पडो, दक्षिणेश्‍वर में स्वामी श्रीरामकृष्ण के पास जाओ ।’

एक दिन उन्हें पडोसी श्री. सुरेंद्रनाथ के यहां श्री रामकृष्ण परमहंस के दर्शन हुए । आरंभ के कुछ दिनों तक श्री रामकृष्ण नरेंद्रनाथ को पलभर भी दूर नहीं रखना चाहते थे । उनको पास बैठाकर अनेक उपदेश करते थे । जब वहां दोनों के अतिरिक्त कोई नहीं रहता था, तब दोनों आपस में बहुत बातें करते थे । श्री रामकृष्ण अपने अधूरे कार्यों का दायित्व नरेंद्रनाथ को सौंपना चाहते थे ।

एक दिन श्री रामकृष्ण ने कागज के टुकडे पर लिखा, ‘नरेंद्र लोकशिक्षा का कार्य करेगा ।’ कुछ आनाकानी करते हुए नरेंद्रनाथ ने उनसे कहा कि यह सब मुझसे नहीं होगा । तब श्री रामकृष्ण ने तुरंत ऊंचे स्वर में कहा, ‘क्या कहा ? नहीं होगा ? अरे, यह काम तो तुम्हारी हड्डियां करेंगी ।’ आगे, श्री रामकृष्ण ने नरेंद्रनाथ को संन्यासदीक्षा देकर उनका नाम ‘स्वामी विवेकानंद’ रखा ।

 

धर्म प्रचार का कार्य आरंभ : रामकृष्ण मठ की स्थापना

श्री रामकृष्णजी की महासमाधि के उपरांत स्वामी विवेकानंद ने अपने एक गुरुबंधु तारकनाथ की सहायता से कोलकाता के पास वराहनगर के एक जीर्ण-शीर्ण भवन में मठ स्थापित किया । उससे पहले, वहां के लोग मानते थे कि उस भवन में भूत रहते हैं । उस मठ में विवेकानंद ने श्रीरामकृष्ण के उपयोग में आई वस्तुएं और उनका अस्थि कलश रखा । पश्‍चात, उनके भक्त भी वहां रहने लगे ।

 

सर्वधर्म सम्मेलन के लिए शिकागो में जाने की पूर्वसूचना

एक रात स्वामी विवेकानंद ने एक अद्भुत स्वप्न देखा । श्री रामकृष्ण प्रकाशमान शरीर धारण कर समुद्र पर चलते जा रहे हैं और विवेकानंद को अपने पीछे आने के लिए संकेत कर रहे हैं । यह दृश्य देखते ही विवेकानंद की आंखें खुल गईं । उनका हृदय अवर्णनीय आनंद से भर गया । उन्हें, ‘जाओ’ यह देववाणी स्पष्ट सुनाई दी । विदेश जाने का संकल्प पक्का हुआ । एक-दो दिन में विदेशयात्रा की सारी व्यवस्था पूरी कर ली गई ।

 

धर्मसम्मेलन के लिए प्रस्थान

३१ मई १८९३ को पेनिनशुलर नौका ने मुंबई का समुद्रतट छोडा । १५ जुलाई को विवेकानंद कनाडा देश के वैंकूवर स्थान पर पहुंचे । वहां से वे रेल से अमेरिका के प्रख्यात महानगर शिकागो पहुंचे । वहां उन्हें पता चला कि सर्वधर्मसम्मेलन ११ सितंबर को होनेवाला है ।

धर्मसम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए उनके पास आवश्यक परिचयपत्र नहीं था । इतना ही नहीं, प्रतिनिधि के रूप में नाम पंजीयन की समयसीमा भी बीत गई थी । विदेश में विवेकानंद जहां भी जाते, लोग उनकी ओर आकृष्ट होते । पहले ही दिन हार्वर्ड विश्‍वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्राध्यापक जे.एच. राईट विवेकानंद से चार घंटे बात करते रहे । उनकी प्रतिभा और बुद्धिमत्ता से वे इतने प्रभावित हुए कि धर्मसम्मेलन में उन्हें प्रतिनिधि के रूप में प्रवेश दिलाने का सारा दायित्व अपने पर ले लिया ।

 

शिकागो सर्वधर्मसम्मेलन में विवेकानंद का समावेश

इस सुवर्णभूमि के इस सत्पुरुष ने श्रेष्ठतम हिन्दू धर्म की पहचान विश्‍व को कराई, जो एक दैवी योग ही था । अमेरिका के शिकागो में ११ सितंबर १८९३ को हुए सर्वधर्म सम्मेलन के माध्यम से पूरे विश्‍व को आवाहन करनेवाले स्वामी विवेकानंद, हिन्दू धर्म के सच्चे प्रतिनिधि सिद्ध हुए । सोमवार, ११ सितंबर १८९३ को सवेरे धर्मगुरुओं के मंत्रोच्चार के उपरांत संगीतमय वातावरण में धर्मसम्मेलन आरंभ हुआ ।

व्यासपीठ पर बीच में अमेरिका के रोमन कैथोलिक पंथ के प्रमुख बैठे थे । स्वामी विवेकानंद किसी भी पंथ के प्रतिनिधि नहीं थे । वे सारे भारतवर्ष के सनातन हिन्दू वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में इस सम्मेलन में पहुंचे थे । इस सम्मेलन में छह से सात सहस्त्र (हजार) स्त्री-पुरुष उपस्थित थे । अध्यक्ष की सूचना के अनुसार व्यासपीठ पर उपस्थित प्रत्येक प्रतिनिधि अपना पहले से लिखा भाषण पढकर सुनाता था । विवेकानंद अपना भाषण लिखकर नहीं लाए थे ।

अंत में, गुरु को स्मरण कर वे अपने स्थान से उठे और ‘अमेरिकी भाइयों तथा बहनों’ इन शब्दों से भाषण आरंभ किया । उनके संबोधन के इस पहले वाक्य में इतनी अद्भुत शक्ति थी कि इसे सुनकर सहस्त्रों स्त्री-पुरुष अपने स्थान से उठकर बहुत देर तक तालियां बजाते रहे । उनकी ओजस्वी वाणी से वहां उपस्थित सारे श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए । उनके आत्मीयताभरे शब्द सुनकर सारे श्रोता पुलकित हो उठे हुए ।

‘भाइयों और बहनों’ इन शब्दों से सारी मानवजाति का आवाहन करनेवाले स्वामी विवेकानंद पहले वक्ता थे । ‘हिन्दू समाज पददलित हो सकता है; किन्तु घृणा करनेयोग्य कभी नहीं । वह दीन है, दु:खी है; किन्तु बहुमूल्य पारमार्थिक संपत्ति का उत्तराधिकारी है । धर्म के क्षेत्र में वह जगद्गुरु बन सके, इतनी उसमें योग्यता है ।’ ऐसे शब्दों से हिन्दू धर्म की महानता बताकर स्वामी विवेकानंद ने अनेक शताब्दियों के उपरांत हिन्दू समाज को उसकी विस्तृत सीमाओं का ज्ञान कराया ।

विवेकानंद ने किसी धर्म की निंदा अथवा आलोचना नहीं की । उन्होंने किसी धर्म को क्षुद्र भी नहीं कहा । विदेशियों ने हिन्दू धर्म से घृणा की और उसपर झूठे आरोपों के कीचड उछाले । उन्होंने ऐसी विकट स्थिति में पहुंचे हिन्दू धर्म को निकाल कर उसके मूल तेजस्वी रूप में विश्‍व सर्वधर्म सम्मेलन में सर्वोच्च आसन पर बैठाया । इस सम्मेलन में उन्होंने हिन्दुस्थान के विषय में कहा, ‘हिन्दुस्थान पुण्यभूमि है, कर्तव्यभूमि है, यह निर्विवाद सत्य है ।’

जिसे आंतरिक दृष्टि का और आध्यात्मिकता का मायका कह सकते हैं, वह हिन्दुस्थान है ! प्राचीन काल में यहां अनेक धर्मसंस्थापकों का जन्म हुआ । उन्होंने संतप्त और त्रस्त विश्‍व को परमपवित्र और सनातन आध्यात्मिक सत्य के शीतल जल से तृप्त किया । विश्‍व में परधर्म के प्रति सहिष्णुता और आत्मीयता का अनुभव केवल इसी भूमि में होता है ।

 

प्रवचनों के माध्यम से प्रचारकार्य

विदेश में भारत का नाम प्रकाशमान कर कोलकाता लौटने पर नागरिकों ने विवेकानंद का भव्य स्वागत किया । यहां आने के पश्‍चात वे, ‘मेरे अभियान की योजना’, ‘भारतीय जीवन में वेदान्त’, ‘हमारा आज का कर्तव्य’, ‘भारतीय महापुरुष’, ‘भारत का भविष्य’ जैसे विषयों पर व्याख्यान देने लगे ।

स्वामी विवेकानंद ने विदेश और स्वदेश में दिए अपने व्याख्यान समय-समय पर विचार ओजस्वी भाषा में दिए । उनके इन विचारों का लोगों पर बहुत बडा प्रभाव पडा । विदेश में भी उन्होंने वेदान्त का प्रचार किया था । इससे आर्यधर्म, आर्यजाति, आर्यभूमि को विश्‍व में प्रतिष्ठा मिली ।

 

परहित में सर्वस्व का समर्पण ही खरा संन्यास !

भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का प्रगाढ अभिमान होने पर भी उन्होंने उसमें घुसी अनिष्ट रूढियां, परंपरा, जातिभेद आदि हीन बातों पर अपने भाषणों में कठोर प्रहार कर सोए समाज को झकझोरने का प्रयास किया । वे समाज की निष्क्रियता पर वज्रप्रहार कर, देशबांधवों को जगाने के लिए बडे विकल हृदय से आवाहन करते थे ।

निराकार समाधि में लीन रहने की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से हटकर उन्होंने सर्वसामान्य लोगों के सुख-दु:ख का विचार किया और उनके कल्याण हेतु प्रयास किया । इसी प्रकार, परहित में सर्वस्व अर्पित करना ही खरा संन्यास है, यह वचन उन्होंने सत्य सिद्ध किया ।

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