हिन्दू धर्मशास्त्र में नामजप सहित सात्त्विक अन्नसेवन को ‘यज्ञकर्म’ कहा है । ‘यज्ञकर्म’ करने से अन्न सहज ही पच जाता है और प्राणशक्ति मिलती है । तीखे और तैलीय पदार्थ जैसे तामसिक अन्न खाने की तुलना में सात्त्विक अन्न खाने से मनुष्य का आध्यात्मिक बल बढकर उसके लिए ईश्वरीय अनुसंधान में रहना संभव होता है ।
‘ईश्वरीय प्रसाद’ समझकर ग्रहण किया गया अन्न, देह को पुष्टि और तुष्टि देता है !
‘वदनि कवळ घेता नाम घ्या श्रीहरीचे ।
सहज हवन होते नाम घेता फुकाचे ॥
जीवन करि जिवित्वा अन्न हे पूर्णब्रह्म ।
उदरभरण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म ॥’
समर्थ रामदासस्वामीजी का यह श्लोक सभी को पता ही है । अन्न का सेवन करते हुए नामजप करने से अन्न का पचन सहजता से होता है और ऐसा सात्त्विक अन्न प्राणशक्ति देता है । नाम लेने के लिए कुछ शुल्क (धन) नहीं लगता । वह निशुल्क है । उन्होंने कहा, ‘‘नाम लेने से निशुल्क और सहजता से एक यज्ञ हो जाता हैे’’ अन्न को ‘पूर्णब्रह्म’ बताया है । इसमें उल्लेख कि ‘अन्न ग्रहण करना, केवल ‘पेटभरना’ नहीं, अपितु वह एक ‘यज्ञकर्म’ हैे । ‘ईश्वर का प्रसाद’ समझकर सेवन किया हुआ अन्न, ब्रह्मस्वरूप होकर वह शरीर को पुष्टि और तुष्टि देता है ।’
बहुत समय तक भारत में शाकाहारी लोगों की ही संख्या अधिक थी । अत: हमेशा से भारत में दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दही, छाछ और सलाद जैसा सात्त्विक आहार रहा है । धीरे-धीरे हमारी जीवन शैली में परिवर्तन होने लगा । वर्तमान में हमारी स्थिति कितनी दयनीय है । अब हम कैसा अन्न ग्रहण कर रहे हैं ?
सुबह शाम ताजा दूध पीनेवाले बच्चे आज नाश्ते में बिस्किट-ब्रेड खा रहे हैं । रिफाईन्ड, मैदा, बेंकिग पाउडर का उपयोग बढ गया है । केक, मैगी, आइसक्रीम, बिस्किट, जैम, कस्टर्ड, बर्गर, पीजा, कोल्डड्रिंक्स हमारे भोजन के अविभाज्य अंग बन गए हैं । हम ‘ready to eat’ भोजन के आदिन हो गए हैं ।
मांसाहार दूष्परिणामों के बारे में हम जानते ही हैं । सोशल मिडिया में हम देख ही रहे हैं, अन्य देशों में क्या-क्या खाते हैं । सांप, बिच्छू, चमगादड तक खाते हैं । कच्चा-पक्का कैसे भी खाते हैं । जिसका परिणाम हम देख रहें हैं कि विश्व स्तर पर कितने भयंकर संकट आ रहे हैं । और ऐसे विदेशियों की जीवन शैली को अपना कर हम अपना कितना अहित कर रहे हैं । पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते-करते हम अपनी संस्कृति को ही भूलते जा रहे हैं ।
हिन्दू धर्म में हमेशा से सात्त्विक अन्न को महत्व दिया है । हमारी संस्कृति में अन्न को देवता समझा गया है, अन्न ग्रहण करने को ‘यज्ञकर्म’ कहा है ।
१. अन्नसेवन करते हुए नामजप करना श्रेष्ठ है !
रज-तम गुणों का प्रभाव सब देहों पर होता है इसलिए संभव हो, तो नामजप करते हुए अन्नसेवन करना उचित है । जिससे अन्य बातों का संस्कार मन पर नहीं होता है । मन का सत्त्वगुण टिके रहने से पाचन क्षमता बढती है । इसलिए बोलना टालना चाहिए । कभी कोई आवश्यक बात करनी हो ता उस समय ईश्वर से ‘अन्नसेवन का पूर्ण लाभ मिलने दे’, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए ।
जिसप्रकार अपने कुल की रक्षा करनेवाली कुलदेवता होती हैं अथवा हमारे गांव का रक्षा करनेवाले ग्राम देवता होते हैं । उनसे संबंधित जो कार्य करना होता है, तब उसके लिए हम उनसे प्रार्थना करते हैं । उसीप्रकार किसी भी पदार्थ को जब हमें ग्रहण करना होता है, तब हम उनसे संबंधित देवता जो हैं अर्थात अन्नपूर्णा माता, उन्हें प्रार्थना करना आवश्यक होता है तो हम अन्नपूर्णा माता से कैसे प्रार्थना कर सकते हैं।
प्रार्थना – ‘हे अन्नपूर्णा माता, आपकी ही कृपा से आपका यह प्रसाद मुझे ग्रहण करने मिल रहा है । इसमें यदि कोई रज तम के स्पंदन है तो उसे नष्ट होने दीजिए । मुझे इस भोजन के माध्यम से सात्त्विकता मिलने दें । साथ ही मुझे शक्ति और चैतन्य मिलने दें ।’ इस प्रकार हम अन्नपूर्णा माता को भावपूर्ण प्रार्थना कर सकते हैं । आहार के संदर्भ में आगे दिए अनुसार निम्न दी हुईं कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ।
२. किसी का भी झूठा अन्न ग्रहण न करें !
‘भोजन करते समय सामान्य जीवोंका वासनामयकोष अन्नसे संलग्न हो जाता है । इसलिए भोजनकी थाली एवं जीवके वासनामयकोषमें सूक्ष्म-संपर्कतंत्र निर्मित हो जाता है । इससे जीवकी देहसे संबंधित रज-तमका संपर्क, थालीकी आकृतिसे एवं पदार्थोंके स्वरूपसे सूक्ष्मरूपसे होता है । फलतः अन्नपर भी जीवके रज-तमका एवं उसकी प्रकृतिका संस्कार हो जाता है । जब कोई जीव अपनी थालीका कोई पदार्थ किसी दूसरेको देता है, तब उसका रज-तम दूसरे जीवकी ओर उस पदार्थके माध्यमसे प्रक्षेपित होता है । जब दूसरा जीव वह पदार्थ ग्रहण करता है, तब उसका रज-तम बढ जाता है । पदार्थ देनेवाला जीव अनिष्ट शक्तियोंसे पीडित हो, तो इस पदार्थके माध्यमसे अनिष्ट शक्ति दूसरे जीवको कष्ट दे सकती है; इसलिए धर्मशास्त्रमें कहा गया है कि अपनी थालीका अन्न दूसरेको न दें ।’
३. थाली में झूठन न छोडें
आज समाज में हम क्या देखते हैं विवाह समारोह, होटल, पार्टी, मित्र के घर पर, यात्रा के समय अथवा अपने ही घर में भोजन करते समय अपनी थाली में झूठा छोड देते हैं । यहां तक कि मांगलिक कार्य, धार्मिक आयोजन-भंडारों आदि में भी लोग थाली में झूठन छोड देते हैं । कितना भोजन व्यर्थ कर देते हैं । अन्न का इस प्रकार दुरुपयोग करना बहुत ही अनुचित है । हमे पता है कि अन्न पूर्ण ब्रह्म है । इसलिए अन्न का सम्मान करने के लिए हमें भोजन की थाली में कोई भी पदार्थ जूठा नहीं छोडना चाहिए । यह सब ईश्वर का प्रसाद है, इस भाव से हमें वह भोजन पूरा ही खाना चाहिए । थाली में उतना ही लें, जितनी भूख हो । केवल अन्नपूर्णा मां की कृपा से भोजन मिलता है । इसलिए उनके सम्मान के लिए हमें इतना तो अवश्य करना चाहिए । इससे हमें सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होंगे और वह भोजन अधिक पोषक होने से हम स्वस्थ रहेंगे ।
अन्न देवता
हमारे हिन्दू धर्म में प्रत्येक घटक के कोई न कोई देवता हैं । हम पृथ्वी पर रहते हैं तो पृथ्वी को माता बोलते हैं । आकाश को आकाश देवता बोलते हैं । सूर्य को सूर्य देवता मानते हैं । निसर्ग को निसर्ग देवता । इसीप्रकार प्रत्येक घटक में ईश्वर का तत्त्व समाया हुआ है, उसे हम ईश्वर का स्वरूप मानते हैं । उसीप्रकार अन्न से संबंधित देवता अन्नपूर्णा माता अर्थात अन्न उपलब्ध करवा कर देनेवाली देवी, पार्वती माता का अवतार हैं ।
काशी नगरी में श्री अन्नपूर्णा माता का मंदिर है । ऐसी मान्यता है कि उस क्षेत्र की जनता जब तक भोजन नहीं कर लेती, तब तक अन्नपूर्णा माता अन्न ग्रहण नहीं करतीं ।
श्रीविष्णु
१. श्रीविष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं । अत: वह अन्नरसदेवता हैं ।
२. ‘विष्णुसहस्रनाम में श्रीविष्णु के नामों में १४२ वां नाम ‘भोजन’, तो १४३ वां नाम ‘भोक्ता’ है , इसलिए ‘भोजनाय नमः’ और ‘भोक्ते नमः’, अर्थात ‘अन्न को नमस्कार’ और ‘अन्न खाने वाले को नमस्कार’, ऐसे कहा है ।’
भोजन के पूर्व कौन-सा श्लोक बोलना चाहिए
१. वदनी कवळ घेता नाम घ्या …
अर्थ : पूर्वकाल में यह श्लोक बोलकर भोजन आरंभ किया जाता था । इस श्लोक का अर्थ हमें पता ही है कि जब हम भोजन करते हैं, तब हमें नाम लेते हुए भोजन करना चाहिए । भोजन करना अर्थात केवल पेट भरने के लिए नहीं, अपितु नामजप करते हुए जब हम भोजन की कृति करते जाते हैं, तो वह कर्म हो जाता है । प्रत्येक निवाला लेते समय यज्ञ में हवन करने का पुण्य मिलता है । उसीप्रकार नामजप करते हुए प्रत्येक निवाला लेने पर यज्ञ में हवन करने जितना महत्त्व है । अत: भोजन नामजप करते हुए करना चाहिए ।
२. अन्नपुर्णेसदा पूर्णेशंकरप्राणवल्लभे ।
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यर्थम् भिक्षाम्देहिच पार्वती ॥
अर्थ : भगवान शंकर की प्राणप्रिया, हे पार्वतीमाता, अर्थात अन्नपूर्णादेवी, आप अन्न से समृद्ध और सदैव परिपूर्ण हैं । मुझे ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति हो, यह भिक्षा देकर आप मुझ पर कृपा करें । इसप्रकार अन्नपूर्णा देवी से इस श्लोक के माध्यम से प्रार्थना की है ।
इन दो श्लोकोें से भी हिन्दू धर्म की महानता अथवा हिन्दू धर्म की महान शिक्षा अर्थात हमें भोजन करते हुए भी किसप्रकार हमारी साधना हो सकती है ? इतना गहन विचार केवल हिन्दू धर्म में ही किया है । इस श्लोक के माध्यम से बताया है कि, ‘नियमित भोजन करते हुए मन में विचार करने की अपेक्षा उस स्थान पर हमें ईश्वर से क्या मांगना चाहिए ? हमारे महान हिन्दू धर्म में कितने उच्च स्तर की शिक्षा दी गई है, यह हमें ध्यान में रखना चाहिए ।
अब इन श्लोकों का अर्थ हमने समझ लिया है, तो आज से उसका भान रखते हुए, नामजप करते हुए भोजन करेंगे ।
भोजन हो जाने पर कृतज्ञता व्यक्त करना
ईश्वर की कृपा से यह भोजन हमें मिला है । इस विषय में कृतज्ञता भाव तो रखना चाहिए । साथ ही भोजन पूर्ण होने पर उपास्य देवता और अन्नपूर्णामाता के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करेंगे । आपकी कृपा से यह भोजन आज मुझे ग्रहण करने मिला है । उसके उपरांत ही हम अपने स्थान से उठेंगे ।