मनुष्यजीवन का कारण क्या है ? अध्यात्म पता न होने से यह प्रश्न लोगों के मन में रहता है । यदि भगवान ही सुख और दुःख देते हैं, तो मेरा सभी से प्रश्न है कि सुख के समय कितने लोग भगवान के प्रति आभार अथवा कृतज्ञता व्यक्त करते हैं कि हे भगवान, आपकी कृपा के कारण ही यह सुख मेरे जीवन में आया । बहुत ही कम लोग होंगे । फिर जीवन के दुःख के लिए हमें भगवान को दोष देने का अधिकार है क्या ? वास्तव में भगवान न सुख देता है और न दुःख । हमारे कर्म ही हमारे सुख और दुःख का कारण होते हैं ।
मनुष्यजन्म का कारण क्या है ? इसका शास्त्र अथवा नियम समझकर लेते हैं । मनुष्य का पुनः-पुनः जन्म होने के विविध कारण है । इसके दो प्रमुख कारण हैं – पहला कारण है प्रारब्ध अर्थात पिछले जन्म में किए अच्छे-बुरे कर्मों को भुगतना और सामान्य जीवनयापन करना ।
दस सहस्र में से केवल एक जीव ही आध्यात्मिक उन्नति के लिए जन्म लेता है । आनंदप्राप्ति के लिए आध्यात्मिक उन्नति करता है । जिस आनंदस्वरूप ब्रह्म से हमारी उत्पत्ति हुई है, उन तक पहुंचने का आकर्षण हर किसी में थोडा-बहुत तो रहता ही है । उन तक पहुंचने के लिए अर्थात आनंदप्राप्ति तथा ईश्वरप्राप्ति के लिए क्या करना आवश्यक है, यह अध्यात्मशास्त्र सिखाता है ।
कोई भी व्यक्ति हो, वह दुःख की कामना कभी नहीं करेगा !
कोई भी व्यक्ति हो, वह दुःख की कामना कभी नहीं करेगा । उसका प्रयास यही होता हैै कभी दु:ख न मिले,परंतु उसके जीवन में अनेक बार दुःख आते हैं ।
गोस्वामी तुलसीदासजी के कथनानुसार, ‘कन सम दुःख, लागै अति भारु । सुख सुमेर सम, तदपि खभारु ॥’; अर्थात कण भर (छोटा-सा) दु:ख भी बहुत भारी लगता है, जबकि पर्वत समान सुख छोटा लगता है ! अनेक लोगों ने यह अनुभव किया होगा । सामान्यतः मानवजीवन में सुख २५ प्रतिशत और दुःख ७५ प्रतिशत होता है । अधिकांश लोगों को यह नहीं पता होता कि आनंद की प्राप्ति कैसे हो सकती है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति पंचज्ञानेन्द्रिय, मन एवं बुद्धिद्वारा कुछ समयके लिए ही सही, सुख पाने का प्रयत्न करता है । जैसे स्वादिष्ट व्यंजन का सेवन करना आदि । उसके साथ ही दुःख दूर करने का भी प्रयत्न करता है । जैसे व्याधिग्रस्त होने पर औषधि लेकर, बिगडे हुए दूरदर्शन यंत्र को ठीक करवाकर इत्यादि ।
युवा अध्यात्म के संदर्भ में क्या सोचते हैं ?
युवाओं को अध्यात्म की बातें पिछडी लगती हैं । उन्हें लगता है कि यह कोई आयु है भगवद्-भजन करने की । किसी के भी मन में सहज यह प्रश्न उठ सकता है कि वैज्ञानिक युगमें रहते हुए आधुनिक विज्ञान छोडकर, अध्यात्मशास्त्र का अभ्यास क्यों करना चाहिए अर्थात चक्र को उलटा घुमाना क्यों आवश्यक है ? ‘सोना कभी पुराना नहीं होता’, इस कहावत के अनुसार आध्यात्मिक उन्नति के लिए विज्ञान नहीं, अध्यात्मशास्त्र ही उपयुक्त है । इस तथ्य को समझने के लिए विज्ञान एवं अध्यात्म के कुछ तुलनात्मक सूत्रों पर (मुद्दों पर) हमें ध्यान देना होगा ।
१. विज्ञान की व्याख्या क्या है ? ‘विगतं ज्ञानं यस्मात् तत् ।’, अर्थात ‘जिसमें से ज्ञान निकल गया हो, वह है विज्ञान’, ऐसी है विज्ञान की विनोदी; परंतु अर्थपूर्ण व्युत्पत्ति । ‘सा विद्या या विमुक्तये।’, अर्थात जो मुक्ति दिलाए उसे ही विद्या / ज्ञान कहते हैं ।’ ऐसा ज्ञान केवल अध्यात्मशास्त्र से मिलता है ।
२. दूसरा भेद है । विज्ञान के ‘सत्य’में निरंतर परिवर्तन होता रहता है । जैसे डार्विन का सिद्धांत आज गलत बताया जा रहा है । विज्ञान के पुस्तकों के सुधारित संस्करण छापने पडते हैं । संक्षेपमें, विज्ञान अपूर्ण एवं असत्य का शास्त्र है । इसके विपरीत आत्मज्ञान में परिवर्तन नहीं होता। अध्यात्म के शोध से प्राप्त सत्य त्रिकाल अबाधित एवं शाश्वत होता है । इसीलिए वेद, उपनिषद आदि के पुनर्मुद्रण होते हैं, सुधारित संस्करण कभी नहीं होते ।
३. तीसरा भेद है । विज्ञान द्वारा जो इस जन्म में अनुभव द्वारा सीखा है, अगले जन्म में वही पुनः सीखना पडता है, उदा. पढाई-लिखाई । परंतु अध्यात्म में जो इस जन्म में अनुभूति द्वारा सीखा है, वह अगले जन्म में भी ज्ञात रहता है ।
समाज के अनेक लोग पैसा, गाडी, बंगला जैसे साधन होनेपर भी सुखी नहीं हैं । विज्ञानद्वारा की गई भौतिक प्रगतिके कारण सुख भोगनेके अनेक साधन उपलब्ध हैं; परंतु वे केवल तात्कालिक सुख देते हैं । विज्ञान चिरकालीन सुख अर्थात आनंद नहीं दे सकता; इसलिए अध्यात्म ही आवश्यक है, यह बात अब भी समाज के अनेक लोगों की समझ में नहीं आती । यह समझाने के लिए अध्यात्म की जानकारी लेना आवश्यक है । इसलिए अपने व्यावहारिक लाभ के लिए साधना के साथ-साथ विज्ञान का उपयोग अवश्य करें । हमें जीवन का वास्तविक आनंद लेना हो और उसके रहस्यों को समझना हो, तो अध्यात्म के सिवाय संभव नहीं है ।
अब युवाओं की दृष्टि से देखें तो प्राचीन काल में हमारे धर्मशास्त्र में चार आश्रम होते थे – ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रम । इसमें बचपन से युवावस्था तक, गुरुकुल में ही हमारे धर्मशास्त्र का अध्ययन हो जाता था । उसीसे जीवन का महत्त्व और जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता था । उसके उपरांत गृहस्थाश्रम में संसार करना और फिर वानप्रस्थाश्रम में त्याग की भावना सिखाई जाती थी । इस कारण मनुष्य मायाजाल में न फंसकर वर्तमानकाल में जीता था । आज भी आप देखेंगे, तो कोई भी प्राणी, पक्षी अपने घर में कोई वस्तु संचय करके नहीं रखता है । जबकि मानव सबसे बुद्धिमान होते हुए भी संचय करने में ही पूरा जीवन लगा देते हैं । सभी जानते हैं कि एक दिन हमें फ्लैट, बंगला, फार्म हाऊस, गाडी, आलिशान ऑफिस सब कुछ छोडकर जाना है, कुछ भी साथ में नहीं आनेवाला है, फिर भी पूरा जीवन उसी में लगा देते हैं । यदि युवावस्था में ही यह बात ध्यान में आ जाए तो मुझे ये चाहिए, वह चाहिए यह विचार करते रहना और यदि नहीं मिले तो निराशा, तनाव, चिंता, आत्महत्या के विचार, शारीरिक व्याधियां इत्यादि संकट में हम नहीं फंस सकते । इसकारण मनुष्य को युवावस्था में ही कर्म, प्रारब्ध और जीवन का उद्देश्य जानने के लिए अध्यात्म ही मार्गदर्शन कर सकता है ।
अध्यात्म क्यों सिखाना चाहिए ?
स्वामी विवेकानंदजीने कहा है, ‘अन्नदान, प्राणदान एवं विद्यादान, इन सबसे श्रेष्ठ है धर्मदान ।’ आज समाज अध्यात्म के ज्ञान से विमुख होता जा रहा है, इसलिए लोगों को अध्यात्म एवं धर्म की वास्तविक पहचान करवाना, श्रेष्ठ कार्य है । आज समाज की स्थिति ‘हाथी एवं छः अंधे’वाली कथा समान हो गई है । समाज के अनेक लोग अपनी-अपनी सोच के अनुसार ईश्वर, धर्म एवं अध्यात्म का अर्थ लगा रहे हैं । ऐसे लोगों को उचित शिक्षा देना अध्यात्मप्रसार से संभव होगा ।
कुछ उदाहरण बताता हूं ।
अनेक लोग जीवनभर स्वयं निर्धारित साधना करते है । जैसे कोई वेदाध्ययन, कोई कुछ करोड नामजप, कोई गायत्रीमंत्र का पुरश्चरण, कोई तीर्थक्षेत्र की तीस-चालीस पैदल यात्राएं इत्यादि । यह सब करने पर भी अनेक लोग अध्यात्म में बहुत अल्प प्रगति करते दिखाई देते हैं । इसका कारण क्या है ? क्योंकि उन्होंने जो स्वयं निर्धारित साधना की, वह उनके लिए अनुचित है । लोगों को उचित साधना की जानकारी मिलेगी, तो उनको लाभ होगा । और अध्यात्म का महत्त्व समझ में आएगा ।
अनेक लोग ठोकर खाने पर भगवान को मानना ही छोड देते हैं । हम उन्हें नास्तिक कह सकते हैं ? अनेक नास्तिकों को लगता है कि ‘अध्यात्म’ उनका विषय नहीं है । उन्हें लगता है कि आध्यात्मिक उन्नति ईश्वर से ही संबंधित होगी । यह गलत विचार है । साधना करनेवाले लगभग ९० से ९५ प्रतिशत व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति के लिए भक्तिमार्ग ही अपनाते हैं । इसलिए कुछ लोगों के मनमें यह धारणा बन गई है कि उन्हें आध्यात्मिक उन्नति के लिए भक्ति ही करनी पडेगी और जब भगवान पर विश्वास ही नहीं, तो उनकी भक्ति कैसे करें ? यही सब सोचकर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘यह सब हमारे लिए नहीं है ।’ वे यह नहीं जानते कि नास्तिकों के गुरु माने जानेवाले सांख्य विचारधाराके ऋषि-मुनियों ने भी आध्यात्मिक उन्नति कर मोक्षप्राप्ति की । भगवान पतंजलि के १९५ योगसूत्रों में से केवल ७ सूत्र भगवान से संबंधित हैं, शेष १८८ सूत्रोंमें भगवानका उल्लेख ही नहीं है । यदि नास्तिक इन १८८ सूत्रों का ही पालन कर लें, तो आध्यात्मिक उन्नति कर अवश्य मोक्षप्राप्ति कर सकेंगे ! नास्तिकों के भ्रमका दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है ‘मोक्ष’ एवं ‘आध्यात्मिक उन्नति’ इत्यादि शब्दों का सही अर्थ न समझ पाना । संक्षेप में, आध्यात्मिक उन्नति का अर्थ है सुख-दुःख के परे जो आनंद है, उसकी अनुभूति प्राप्त करना। उसे निरंतर पाते रहना ही मोक्ष है ।
आज लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा चमत्कार चाहिए । परंतु
आपदाओं के समय वैसे कुछ नहीं दिखता है । इसका अर्थ क्या है ?
पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, मन, चित्त एवं बुद्धि, इन सबका कार्य भिन्न है । उदाहरण के लिए मन भावनाएं समझता है और जीभ को स्वाद की अनुभूति होती है । जैसे किसी पदार्थ में मिठास का प्रमाण तुला से (तराजू से) नहीं तोला जा सकता, उसीप्रकार ऐसी अनुभवजन्य बातों की नापतौल बुद्धि द्वारा असंभव है । इसलिए ऐसा समझना अनुचित होगा कि ‘जो बुद्धिद्वारा समझा जा सके, वही सत्य है ।’
आध्यात्मिक उन्नति की अनुभूतियां भी बुद्धि की समझ से परे हैं, तो वहां बुद्धिप्रमाण कैसे लागू होगा ? जैसे प्रभामंडल, अच्छी एवं अनिष्ट शक्तियां इत्यादि बातें बुद्धि की समझ से परे हैं, उसीप्रकार ईश्वर भी बुद्धि के परे हैं । ऐसे में अध्यात्म के ग्रंथ क्यों पढें, यह प्रश्न कुछ लोगों के मनमें उठ सकता है । इसका उत्तर यह है कि शक्कर का स्वाद भले ही बुद्धि के परे हो, तब भी उस स्वाद की अनुभूति के लिए शक्कर के सेवन का निर्णय बुद्धि द्वारा कर उसे चखना पडता है ! साधना करने के लिए भी बुद्धि का प्रयोग करने पर ही बुद्धि के परे आत्मानुभूति के आनंद का अनुभव किया जा सकता है । बुद्धिमान मनुष्य को वाद-विवाद के बलबूते पर अध्यात्मज्ञानका विश्वास दिलवाने के लिए उपनिषद नहीं लिखे गए; अपितु जिज्ञासु को अनुभूति का मार्ग दिखाने के लिए लिखे गए हैं ।’, ऐसा एक वचन है । इसीलिए किसी भी विषय का अभ्यास किए बिना उस पर लिखना अथवा बोलना अनुचित है, यह सीधी-सी बात बुद्धिजीवियों को समझ में नहीं आती ।
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Sanatan Sanstha ko bahut sadhuvad aisi jaankari bahut durlabh h