अनुक्रमणिका
- १. बारूस में जाने के लिए किया प्रवास
- २. बारूस पहुंचने पर गुरुकृपा से अनेक बाधाएं पार
करते हुए कपूर के वृक्ष तक पहुंचने के लिए किया प्रवास
- २ अ. बारूस में रहने की अच्छी सुविधा न होने से सिबोल्गा गांव में रहना
- २ आ. श्री. मलाऊ को अंग्रेजी भाषा का अधिक ज्ञान न होने से उन्हें प्रश्न पूछते समय अंग्रेजी भाषा के एकदम सरल शब्दों का उपयोग करना अनिवार्य हो जाना
- २ इ. श्री. मलाऊ से मिली जानकारी के विषय में समाधान न होने पर उन्हें अगले प्रश्न पूछे जाना, मन का समाधान होने पर प्रश्न उभरना अपनेआप थम जाना और ‘गुरुसेवा में केवल एक माध्यम हूं’, इसका भान होना
- २ ई. कपूर के वृक्ष के निकट जाने के लिए पैदल जाने का रास्ता न होने से वनस्पतियों और पहाड के पत्थरों का आधार लेते हुए रेंग कर पहाडी चढना
- २ उ. स्थानदेवता और वास्तुदेवता से प्रार्थना करने पर चक्कर आना थम जाना
- २ ऊ. पहाडी चढते समय पैरों के नीचे चिकनी और धंसनेवाली मिट्टी होना और आगे की आधी चढाई केवल ईश्वर के नाम के बल पर ही होने की अनुभूति आना
- २ ए. श्री. बारुबु द्वारा कपूर के वृक्ष के टुकटे और पत्तों की टहनियां देने पर आनंद होना, हाथ में कैमरा और वृक्ष के भाग लेकर नीचे उतरना कठिन होने से वह साहित्य नीचे ले जाने के लिए श्री. बारुबु की सहायता लेना
- २ ऐ. पहाडी उतरते समय स्वयं को संभालने के प्रयत्न में कलाई पर जोर पडने से सूजन आना और अगले दिन तक वह ठीक हो जाना
- २ ओ. साथ के लोगों के शरीर को जोंक लगना; परंतु भगवत्कृपा से साधकों के शरीर को जोंक न चिपकना
- २ औ. श्री. विनायक शानभाग से वार्तालाप के समय साधक द्वारा ‘गुरुदेव के लिए कुछ कठिन नहीं । वे ही ध्यान रख रहे हैं और आगे भी रखनेवाले हैं’ ऐसा कहने के साथ ही भावजागृत होना
- २ अं. एक जानकार व्यक्ति द्वारा कपूर निर्मिति की प्रक्रिया के विषय में जानकारी देना
- ३. कपूर के वृक्ष तक पहुंचने के लिए घने जंगल, दरिया, नाले-झरनों से किया गया कठिन प्रवास !
- ३ अ. कपूर के वन में जाने के लिए ३ घंटे पैदल जाना
- ३ आ. वन में प्रवेश करते समय पानी के नाले / झरना पार करना, बहुत वर्षा होने पर नाले का पानी बढना और आगे जाते समय वन अधिकाधिक घना होते जाना
- ३ इ. साधना के कारण वन से जाते समय स्वयं में एक अनोखी ऊर्जा का भान होना
- ३ ई. वन में मिले एक व्यक्ति द्वारा ‘आगे जाना धोकाधायी होगा’, ऐसा कहने पर वहां से पुन: पीछे आने का निर्णय लेना
- ३ उ. वन में मिले व्यक्ति के माध्यम से भगवान ही हमारी रक्षा के लिए आए हैं, ऐसा प्रतीत होना और वन से लौटते समय भी कोई भी विकल्प न आना ‘जो हो रहा है, वह सर्व ईश्वरेच्छा से !’, ऐसा भाव मन में आना
- ४. किसी की व्यक्तिगत जगह में विद्यमान कपूर के
वृक्ष देखने के लिए जाते समय आई अडचनें और अनुभव हुई गुरुकृपा
- बारूस में मिलनेवाले शुद्ध भीमसेनी कपूर के वृक्ष का भाग
- ४ अ. कपूर का वृक्ष देखकर भावजागृति होना
- ४ आ. वर्षा होने से पगडंडियों पर कीचड हो गया और वेळू (आयुर्वेदिक औषधि) समान कंटीली वनस्पतियों के बीच से मार्ग निकालना
- ४ इ. साथ में आए व्यक्ति द्वारा दिखाना कि ‘वृक्ष से कपूर कैसे निकालते हैं ?’
- ४ ई. पैरों तले सर्वत्र कीचड अथवा तोडे गए वृक्षों के अवशेष होना, आसपास अनेक कीडे होते हुए भी गुरुकृपा से कोई भी कीडा पास न आना और कपूर के वृक्ष का एक पौधा और कटे हुए वृक्ष के कुछ कपचे मिलना
- ४ उ. दिन में ३ बार मुसलधार वर्षा में भीगने पर भी उसी स्थिति में सेवा करना, ‘भगवान ने अपने समष्टि रूप की सेवा भी ऐसे में करवा ली’, इस विचार से भावजागृति होना
- ४ ऊ. पैर की चमडी पानी में भीगने से सफेद और कोमल पड जाना; परंतु त्वचा में सिकुडन न पडना
- ५. लौटने का प्रवास
- ६. दौरे में सीखने मिले सूत्र – स्वयं को भूलकर ईश्वर के स्मरण में रहने का प्रयत्न करना ही खरी साधना है !
- ७. कपूर के वृक्षों को तोडना और उसकी तुलना में कपूर देनेवाले वृक्षों का लगाने की मात्रा बहुत कम होने से कपूर मिलना कम होना और वृक्षों से कपूर प्राप्त कर उस पर प्रक्रिया करने की जानकारी देनेवाले व्यक्ति गिने-चुने ही हैं ।
हमारे दक्षिण-पूर्व राष्ट्रों के दौरे पर जानकारी मिली की इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर कपूर के वृक्ष हैं और उससे शुद्ध भीमसेनी कपूर मिलता है । साथ ही कुछ लोगों से यह भी पता चला कि यह क्षेत्र दुर्गम और पहाडी होने से जाना कठिन है । इसलिए क्षेत्र का अंदाज और प्राथमिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें (मुझे और श्री. स्नेहल राऊत को) जाने के लिए बताया गया ।
१. बारूस में जाने के लिए किया प्रवास
१ अ. पू. रेन्डी इकारांतियो का दुभाषिक श्री. मलाऊ के साथ बारूस जाने के लिए निकलना
१८.४.२०१८ को हम दोनों रात के विमानप्रवास कर सुमात्रा में मेडान नामक शहर पहुंचे । यहां एस.एस.आर्.एफ. के संत पू. रेन्डी इकारांतियो ने हमारे प्रवास की सुविधा की थी । हमारे वहां पहुंचने के कुछ समय में ही पू. रेन्डीदादा भी मेडान पहुंच गए । उनके साथ जाकार्ता के श्री. कोबालन द्वारा जानकारी देने के लिए भेजे गए श्री. मलाऊ भी थे । हमारे साथ सुमात्रा के प्रवास में श्री. मलाऊ जानकारी देने और स्थानीय लोगों से समन्वय साधने के लिए दुभाषिक थे । मेडान से हम लगभग सायं ७.३० बजे चारचाकी वाहन से कपूर के वृक्षवाले वनों की दिशा में निकल पडे । मेडान से बारूस, यह प्रवास १०-११ घंटों का था । श्री. मलाऊ अकेले वाहनचालक थे । उन्होंने प्रवास में एक स्थान पर विश्राम लेकर, आगे चलने का सुझाव दिया । ६ घंटे प्रवास के उपरांत महामार्ग पर एक लॉज समान धर्मशाला में हमने रात में विश्राम किया । वहां पहुंचने पर हमें रात के डेढ बज गए थे । अगले दिन तडके ४.३० बजे उठकर, तैयार होकर तथा अल्पाहार कर ५.३० बजे हमने अगला प्रवास आरंभ किया ।
१ आ. मार्ग घाटयुक्त और घुमावदार होने से प्रवास का समय बढना
और प्राकृतिक प्रतिकूलता होते हुए भी गुरुदेव की कृपा अनुभव करना
यह प्रदेश उष्ण कटिबंधीय वनोंवाला और पहाडी है । मार्ग घाटयुक्त और घुमावदार है । यहां का एकेरी मार्ग और मार्ग की स्थिति भी अच्छी न होने से प्रवास को लगनेवाली अवधि बढ रही थी । इसमें भारी वर्षा भी हो रही थी । यहां पर अनिश्चित समय पर और भारी वर्षा होती है । हमारे लिए यहां का वातावरण, परिस्थिति और प्रदेश नया था । हम गुरुदेवजी की कृपा की अनुभूति ले रहे थे । हमें उनके अस्तित्व का पग-पग पर भान हो रहा था और हमारे साथ उनका संरक्षककवच भी अनुभव हो रहा था । वास्तव में हमारी यात्रा इन सर्व दैवी कवचों के आधार पर ही हो रही थी । इसका भान हमें प्रवास के आरंभ से ही हो रहा था । हमें बारूस पहुंचने में दोपहर के ४ बज गए ।
२. बारूस पहुंचने पर गुरुकृपा से अनेक बाधाएं पार
करते हुए कपूर के वृक्ष तक पहुंचने के लिए किया प्रवास
२ अ. बारूस में रहने की अच्छी सुविधा न होने से सिबोल्गा गांव में रहना
बारूस पहुंचने पर हमारे ध्यान में आया कि, ‘वहां रहने की अच्छी सुविधा नहीं है ।’ इसलिए हम बारूस से ढाई घंटे के अंतर पर सिबोल्गा नामक गांव में रुके । अगले दिन सवेरे पू. रेन्डीदादा को सेवा के लिए जाकार्ता पुन: लौटना था ।
२ आ. श्री. मलाऊ को अंग्रेजी भाषा का अधिक ज्ञान न होने से उन्हें प्रश्न
पूछते समय अंग्रेजी भाषा के एकदम सरल शब्दों का उपयोग करना अनिवार्य हो जाना
श्री. मलाऊ के साथ हम दोनों को ही प्रवास करना था । हमें स्थानीय भाषा न आने से प्रश्न था कि ‘यहां के स्थानीय लोगों से कैसे संपर्क किया जाए ?’ श्री. मलाऊ को अंग्रेजी भाषा अधिक नहीं आती थी, इसलिए प्रश्न पूछते समय अंग्रेजी भाषा के अत्यंत सरल शब्दों का उपयोग करना पडता था । सुमात्रा में बोलीभाषा ‘बाटकनीस’ है, जो जाकार्ता अथवा इंडोनेशिया के अन्य भागों की ‘बाहासा’ भाषा से अलग है । अत: श्री. मलाऊ जो भी बताते, उस पर विश्वास रखने के अतिरिक्त हमारे पास कोई अन्य पर्याय नहीं था ।
२ इ. श्री. मलाऊ से मिली जानकारी के विषय में समाधान न होने पर उन्हें अगले प्रश्न पूछे जाना, मन
का समाधान होने पर प्रश्न उभरना अपनेआप थम जाना और ‘गुरुसेवा में केवल एक माध्यम हूं’, इसका भान होना
गुरुदेवजी की कृपा से श्री. मलाऊ ने हमें काफी जानकारी दी । इसके साथ ही स्थानीय लोगों द्वारा बताए सूत्र भी उन्होंने हमें भाषांतरित कर बताए ।
इन सर्व प्रसंगों में मुझे गुरुदेवजी की सीख का बहुत लाभ हुआ । ‘सामनेवाला व्यक्ति क्या कह रहा है ? उस विषय के बारे में मन को क्या संवेदना हो रही है ? अब भी कुछ जानकारी मिलना अथवा कुछ पूछना रह गया है क्या ?’, ऐसे विविध प्रश्न मन से ही भगवान को पूछकर जो उत्तर मिलता, उस अनुसार मेरी अगली कृति होती थी । मिली हुई जानकारी से समाधान न होने पर, अगले प्रश्न पूछने के विषय में विचार मन में आकर, मुझसे संबंधित प्रश्न पूछे जा रहे थे और जब मन को समाधान मिल जाता तो मन में प्रश्न उभरने अपनेआप थम जाते थे । यह प्रक्रिया मुझसे अनजाने में और इतने वेग से होने की अनुभूति मैं पहली बार ले रही थी । इन सभी बातों का चिंतन करते हुए ‘हम सचमच गुरुसेवा का केवल एक माध्यम हैं और वास्तव में अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है’, इसका तीव्रता से भान हो रहा था । तब यह सोचकर कि गुरुदेव ने हमें अपने कार्य के लिए एक माध्यम के रूप में चुना है, मेरा कृतज्ञताभाव जागृत हुआ ।
२ ई. कपूर के वृक्ष के निकट जाने के लिए पैदल जाने का रास्ता न होने से
वनस्पतियों और पहाड के पत्थरों का आधार लेते हुए रेंग कर पहाडी चढना
२०.४.२०१८ को दोपहर हम एक गांव में श्री. बारुबु नामक स्थानीय व्यक्ति से कपूर के वृक्ष के विषय में जानकारी पूछी । तब उन्होंने एक वृक्ष के विषय में बताया । श्री. बारुबु के साथ हम भी उस वृक्ष तक जानेवाले रास्ते के समीप आए । यहां कपूर के नए कोमल वृक्ष थे । उससे कपूर नहीं मिलनेवाला था । श्री. बारुबु के हमें रास्ता दिखाने पर ध्यान में आया कि कपूर के वृक्ष के पास जाना अत्यंत कठिन है ।’ हमें रेंगते हुए ही चढना पडा ।
२ उ. स्थानदेवता और वास्तुदेवता से प्रार्थना करने पर चक्कर आना थम जाना
‘वहां जाने के लिए पहाडी चढते समय मुझे एकाएक चक्कर जैसे आने लगे । मुझे लगा, ‘कहीं मैं चक्कर आकर गिर न जाऊं ?’और मैं वहीं बैठ गया । ‘इससे पहले मुझे ऐसा कभी नहीं हुआ था । फिर आज ऐसा कष्ट मुझे क्यों हुआ ?’, इसपर मैं विचार करने लगा । तब मेरे ध्यान में आया कि, ‘यहां आने से पहले मैंने स्थानदेवता और वास्तुदेवता से प्रार्थना नहीं की थी ।’ भगवान में मुझे अपनी चूक ध्यान में लाकर दी । मैंने तुरंत ही वास्तुदेवता से क्षमा मांगी और ‘अगली सेवा निर्विघ्न संपन्न हो’, ऐसी प्रार्थना की । मेरे प्रार्थना करने के पश्चात कुछ समय में ही मुझे चक्कर आना रुक गया और अच्छा लगने लगा ।’
– श्री. स्नेहल राऊत, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
२ ऊ. पहाडी चढते समय पैरों के नीचे चिकनी और धंसनेवाली मिट्टी होना
और आगे की आधी चढाई केवल ईश्वर के नाम के बल पर ही होने की अनुभूति आना
‘वहां किसी भी प्रकार की पगडंडी नहीं थी । जंगली वनस्पतियों और पहाडी के पत्थरों का आधार लेते हुए हमें ऊपर चढना पड रहा था । आधार के लिए जंगली वनस्पतियों की जडों को पकडते समय किसी रेंगनेवाले प्राणियों के बिल में हमारा हाथ जाने की संभवना थी और परंतु स्थिति ऐसी थी वह हमारे ध्यान में भी नहीं आता । श्री. बारुबु के साथ हम दोनों ही थे । हमारा विचार चित्रीकरण करने और छायाचित्र खींचने का था; परंतु आधी चढाई चढने पर मुझे अपनी शारीरिक क्षमता की मर्यादा ध्यान में आई । अगली आधी चढाई केवल ईश्वर के नाम के बल पर ही हुई । इसकी अनुभूति मैंने ली । कपूर के वृक्ष के पास जाने की इस चढाई में ध्यान में आया कि हमारे पैरों तले की मिट्टी बहुत नरम थी, जो किसी भी क्षण नीचे धंस सकती थी । पैरों तले की मिट्टी के धंसने से पहाडी का बडा भाग भी धंस सकता था और हम ऊपर आने से बहुत बडे अपघात की संभावना थी । इससे ध्यान में आया कि केवल ईश्वर की कृपा से और गुरुदेवजी के संकल्प से यह सेवा उन्होंने हमारे माध्यम से निर्विघ्न करवा ली है ।
२ ए. श्री. बारुबु द्वारा कपूर के वृक्ष के टुकटे और पत्तों की टहनियां देने पर आनंद होना, हाथ में कैमरा और
वृक्ष के भाग लेकर नीचे उतरना कठिन होने से वह साहित्य नीचे ले जाने के लिए श्री. बारुबु की सहायता लेना
वृक्ष के निकट जाने पर श्री. बारुबु ने हमें वृक्ष के टुकडे और पत्तों सहित छोटी-छोटी टहनियां तोडकर दीं । इन वस्तुओं को हाथ में लेते ही बहुत आनंद हुआ; परंतु यह आनंद कुछ ही देर में लुप्त हो गया । मेरे हाथ में चित्रीकरण के लिए लगनेवाला कैमरा और श्री. बारुबु द्वारा तोडकर दिए गए वृक्ष के भाग थे । वहां से नीचे उतरकर ऊपर चढना और कठिन था । नीचे उतरने के लिए केवल सामने दिखाई देनेवाले वृक्ष और उनकी टहनियों का आधार था । ‘जो भी जगह मिले वहां पैर रखना और फिसलता हुए नीचे जाना’, यही नीचे उतरने की पद्धति थी । श्री. बारुबु को इसकी आदत थी, इसलिए वे अत्यंत सहजता से नीचे उतर गए । मैं एक चरण तक आ गया, परंतु फिर हाथ में साहित्य लेकर नीचे उतरना संभव नहीं था । इसलिए मैंने श्री. बारुबु को मेरे निकट आने की विनती की । वे जितनी सहजता से नीचे गए थे, उसी सहजता से मेरे पास आए और मेरे हाथ में से साहित्य लेकर पुन: उतनी ही सहजता से नीचे उतर गए । उन्हें देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ । तदुपरांत जो भी टहनी दिखाई देती, उसका आधार लेते हुए मैं नीचे उतर आया ।
२ ऐ. पहाडी उतरते समय स्वयं को संभालने के प्रयत्न में
कलाई पर जोर पडने से सूजन आना और अगले दिन तक वह ठीक हो जाना
उतरते समय एक स्थान पर मेरा संतुलन बिगड गया और स्वयं को संभालते समय कलाई पर जोर पडने से अगले दिन वह सूज गई थी; परंतु केवल गुरुदेवजी के आशीर्वाद और कृपा से अगले दिन की सेवा की समाप्ति तक सूजन उतरने के साथ-साथ वेदना भी कम हो गई । ‘सेवारत होने पर ईश्वर ही हमारा ध्यान रखता है’, इसकी प्रचीति मुझे इस प्रसंग में आई ।
२ ओ. साथ के लोगों के शरीर को जोंक लगना; परंतु भगवत्कृपा से साधकों के शरीर को जोंक न चिपकना
हम वन के जिस भाग में थे, वहां शरीर को जोंक अवश्य लगती हैं । हमारे साथ पर्वत न चढते हुए, नीचे ही रुके श्री. मलाऊ और पू. रेन्डीदादा के भी शरीर को जोंक लगी थीं । श्री. बारुबु के शरीर को भी जोंक लगीं; परंतु हम दोनों के शरीर को एक भी जोंक नहीं लगी । इससे अधिक आश्चर्य की बात क्या होगी ? विशेष बात यह है कि २२.४.२०१८ को हम इस स्थान पर पुन: आए थे । उस समय भी हमें जोंक नहीं लगीं; जबकि श्री. बारुबु के शरीर को ४ जोंक लगी थीं । दोनों बार ही एक जैसा होने पर भगवान के श्रीचरणों में कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी । तब मेरे ध्यान में आया कि ‘योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन द्वारा बताई साधना, सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के साथ किया अग्निहोत्र, परात्पर गुरु डॉ. आठवले का संकल्प और भगवत्कृपा से हमारे सर्वओर सुरक्षाकवच निर्माण हो गया है । इसलिए हमें जोंक नहीं लगीं अथवा अन्य किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ ।’
– श्री. सत्यकाम कणगलेकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
‘इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर ‘बारूस’ गांव के निकट के उष्ण कटिबंधीय वनों में कपूर के वृक्ष भारी संख्या में होने से यहां से ही जगभर में शुद्ध कपूर की निर्यात होती है । इस भाग में ‘कापूर बारूस’ नामक कपूर प्रसिद्ध है । यहां रहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को कपूर की जानकारी है, तब भी उसे वन से कैसे प्राप्त करना है ?’, इससे संबंधित जानकारी गिने-चुने लोगों को ही है । कुछ वर्षों पूर्व बारूस के उष्ण कटिबंधीय वन में भारी मात्रा में कपूर के वृक्ष थे । विश्व स्तर पर कपूर की भारी मांग के कारण वृक्षतोड की तुलना में, इन वृक्षों को लगाने की संख्या नगण्य है । इसीलिए अब बारूस से होनेवाली कपूर की निर्यात बहुत कम हो गई है ।
जानकार लोगों का कहना है कि अब तो कपूर के वृक्ष मिलने भी दुर्लभ हो गए हैं । गुरुकृपा से कपूर के वृक्षों की खोज में सुमात्रा द्वीप के गांवों में ४ दिनों की यात्रा कर हमने वहां की जानकारी लेने का प्रयत्न किया । इस प्रवास में आए अनुभव, अनुभूति और सीखने मिले सूत्र प्रस्तुत करने का यह छोटासा प्रयत्न है । हमने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि ऐसी सेवा के लिए जाने का अवसर मिलेगा । गुरुकृपा से हमें यह अवसर मिला, इसके लिए हम गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि कोटि कृतज्ञ हैं ।
– श्री. स्नेहल राऊत, श्री. सत्यकाम कणगलेकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
२ औ. श्री. विनायक शानभाग से वार्तालाप के समय साधक द्वारा ‘गुरुदेव के लिए
कुछ कठिन नहीं । वे ही ध्यान रख रहे हैं और आगे भी रखनेवाले हैं’ ऐसा कहने के साथ ही भावजागृत होना
पू. रेन्डीदादा के जाकार्ता लौट जाने पर भी हमारे मन में किसी भी प्रकार का भय अथवा शंका नहीं थी । सिबोल्गा से बारूस प्रवास के समय मेरा श्री. विनायक शानभाग से जहां ‘इंटरनेट’ सुविधा और ‘रेंज’ है, वहां संपर्क हो रहा था । इस अवसर पर मैंने उन्हें यहां की परिस्थिति की जानकारी सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ को देनेे के लिए कहा । श्री. विनायक बोले, ‘‘गुरुदेवजी की सबसे कठिन मुहिम पर आप हो ।’’ इस अवसर पर मेरे अंत:करण से उत्तर आया, ‘‘गुरुदेवजी के लिए कुछ भी कठिन नहीं । वे ही ध्यान रख रहे हैं और आगे भी रखनेवाले हैं ।’’ इससे मेरी भावजागृति हुई । चरण-दर-चरण पर ध्यान रखनेवाले गुरुदेवजी के चरणों में मैं मनोमन नतमस्तक हो गया । इस अवसर पर मेरी आंखों में आनेवाले अश्रु रुक ही नहीं रहे थे । कुछ समय पश्चात इस अवस्था से बाहर आने पर ध्यान में आया कि ‘हम बारूस नामक गांव के निकट पहुंच गए हैं ।’
२ अं. एक जानकार व्यक्ति द्वारा कपूर निर्मिति की प्रक्रिया के विषय में जानकारी देना
बारूस में श्री. मलाऊ हमें एक जानकार व्यक्ति के घर ले गए । उस व्यक्ति के बोलने से ऐसा लगा कि उसे कपूर के वृक्ष के विषय में जानकारी है । सनातन का सात्त्विक कपूर दिखाने पर उसने बताया कि यह सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला और शुद्ध कपूर है । उसने बताया, ‘‘बारूस में कपूर के वृक्ष से मिलनेवाला कपूर भी ऐसा ही होता है ।’’ इस अवसर पर श्री. मलाऊ ने बाटकनीस भाषा में उनका संभाषण हो रहा था । श्री. मलाऊ ने हमें बताया, ‘‘कपूर के वृक्ष के खोह में कपूर निर्माण होता है । यह कपूर निर्माण होने के लिए ५० से १५० वर्षों की अवधि लगती है । ‘इस काल में उस वृक्ष की बढत कितनी अच्छी हुई है’, इस पर कपूर की उत्पन्न निश्चित होती है । वृक्ष से कपूर पाने के लिए उस वृक्ष को अपना अस्तित्व समाप्त करना होता है । वृक्ष काटने के उपरांत उसकी खोह में सफेद रंग का कपूर होता है । कपूर को मूलतः ‘चंद्रभस्म’ कहते हैं ।’’
३. कपूर के वृक्ष तक पहुंचने के लिए घने जंगल, दरिया, नाले-झरनों से किया गया कठिन प्रवास !
कपूर के वृक्ष से कपूर निकालने की प्रक्रिया !
३ अ. कपूर के वन में जाने के लिए ३ घंटे पैदल जाना
कपूर के वृक्ष के संबंध में प्राथमिक जानकारी लेकर हम कपूर के वन में जाने के लिए निकले । हम अब उष्ण कटिबंधीय जंगलों के गर्भ में प्रवेश करनेवाले थे । यहां किसी भी क्षण वर्षा आने की संभावना होती है । उस समय वातावरण खुला होने से पहले वन में जाकर कपूर के वृक्षों के छायाचित्र निकालकर और चित्रीकरण पूर्ण कर पुन: आने के विचार से हमने वन की दिशा में प्रवास आरंभ किया । हम यह पूरा प्रवास पैदल कर रहे थे । इस प्रवास में ३ घंटे लगनेवाले थे । ऐसे वन में जाने का यह प्रथम अनुभव होने से ‘वहां की परिस्थिति और आगे क्या होनेवाला है ? प्रवास में कौन-सी अडचनों का सामना करना होगा ?’, इसकी हमें कल्पना नहीं थी । श्री. मलाऊ ने अपने परिचितों की मदद से वृक्ष तोडने के लिए और ३ लोगों को साथ लेकर आने के लिए कहा । वे अपने साथ वृक्ष काटने का यंत्र भी लाए थे ।
३ आ. वन में प्रवेश करते समय पानी के नाले / झरना पार करना,
बहुत वर्षा होने पर नाले का पानी बढना और आगे जाते समय वन अधिकाधिक घना होते जाना
वन में जाने के लिए निकलते ही वर्षा आरंभ हो गई । हम जैसे-जैसे वन के अंदर के भाग में जाने लगे, वैसे-वैसे वन घना हो रहा था और वर्षा भी जोर पकड रही थी । इससे वहां की स्थिति भयावह थी । वन में प्रवेश करते हुए आरंभ के २० मिनटों के प्रवास में ही हमने २ बार घुटनों तक पानी पार किया और २ बार गिरे हुए वृक्षों की जडों पर से अपना संतुलन बनाए रख गहरे गढ्ढों को पार किया । हम जैसे-जैसे आगे-आगे जा रहे थे, वैसे-वैसे जंगल और घना और वर्षा भी जोरों की होने लगी । हमारे साथ चित्रीकरण करने और छायाचित्र निकालने का साहित्य था; परंतु वर्षा के कारण अपने कैमरे बाहर निकालना कठिन हो गया । हम डेढ घंटे चलकर वन में अंदर-अंदर गए । इस अवसर पर हमें ७-८ बार घुटनों तक पानी पार करना पडा । हर ८-१० मिनट में पानी पारकर हमें आगे बढना पड रहा था । तब हम वन में ही बनाए गए एक आश्रयस्थान पर रुक गए ।
३ इ. साधना के कारण वन से जाते समय स्वयं में एक अनोखी ऊर्जा का भान होना
सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळकाकू हमसे प्रतिदिन अग्निहोत्र करवाती थीं, इसके साथ ही योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन द्वारा बताई साधना भी हम कर रहे थे । इसलिए वन में जाते समय वहां के वातावरण का मुझ पर कोई परिणाम नहीं हो रहा था । वन से जाते समय प्रत्येक ५ से ७ मिनटों में नाला पार कर जाना पडता था । उस समय मन में नामजप के कारण स्वयं में एक विलक्षण ऊर्जा होने का भान हो रहा था ।’
३ ई. वन में मिले एक व्यक्ति द्वारा ‘आगे जाना
धोकाधायी होगा’, ऐसा कहने पर वहां से पुन: पीछे आने का निर्णय लेना
‘हम जब वन में जा रहे थे, तब हमारे साथ ४ गांववाले भी थे । गांव की ओर लौटनेवाले एक व्यक्ति से हमने पूछताछ की । हम एक स्थान पर विश्राम लेने के लिए रुके । इस स्थान पर ७ फुट की ऊंचाई पर एक झोपडी बनी हुई थी । समीप ही नाला था । गांववालों में आगे जाने के विषय में चर्चा हो रही थी । हमारे साथ के श्री. मलाऊ ने हमें बताया, उनका कहना है कि ‘‘आगे वन में जाना हमारे लिए धोकाधायी है । यदि वर्षा ऐसे ही होती रही तो लौटने तक पहाडी पर से बहता हुआ पानी नाले में आने पर उसमें पानी का स्तर बढ जाएगा । जैसे-तैसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच भी गए, तब भी अगले २४ घंटों तक वहां से लौटना संभव नहीं होगा । कारण यह कि नाले के पानी के बढे हुए स्तर के कारण लौटने का मार्ग पूर्णत: बंद हो जाएगा । संपूर्ण रात इस घने जंगल में बिना अन्न-पानी और वर्षा में भीगते हुए बितानी होगी ।’’ ऐसी स्थिति में हमें वन में जगह-जगह बनाई झोपडियों में ही समय बिताना पडता ।
हम वन में कपूर के वृक्षों से केवल २ कि.मी. के अंतर पर थे । ऐसा होने पर भी स्थिति को देखते हुए पीछे लौटना अपरिहार्य था । इस अवसर पर मेरे ध्यान में आया कि, ‘ऐसे प्रसंगों में ध्येय के इतने निकट पहुंचकर पीछे लौटने पर मन निराश हो गया होता; परंतु इस प्रसंग की ओर ईश्वरेच्छा से देखते हुए निराशा की बजाय आनंद था और कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी ।’
– श्री. सत्यकाम कणगलेकर और श्री. स्नेहल राऊत
३ उ. वन में मिले व्यक्ति के माध्यम से भगवान ही हमारी रक्षा के लिए आए हैं, ऐसा प्रतीत होना और
वन से लौटते समय भी कोई भी विकल्प न आना ‘जो हो रहा है, वह सर्व ईश्वरेच्छा से !’, ऐसा भाव मन में आना
‘इस अवसर पर ईश्वर ही पग-पग कर हमारी रक्षा कर रहे हैं’, इसका मुझे भान हुआ । ‘वन में मिले उस व्यक्ति के माध्यम से भगवान ही हमारी रक्षा के लिए आए थे’, यह मेरे ध्यान में आया । वन से लौटते समय भी हमारे मन में कोई विकल्प नहीं था । ‘जो हो रहा है, वह सर्व ईश्वरेच्छा !’, ऐसा भाव था । हमारा मन स्थिर और कृतज्ञता से भरा था । वन से लौटते समय हमारे ध्यान में आया कि, ‘नाला पार करते समय ऐडी तक पानी था, जो अब लौटते समय घुटनों तक आ गया है और उसका प्रवाह भी बढ गया है ।’ इसलिए लौटने का निर्णय लेने की बुद्धि भी भगवान ने ही हमें दी थी और ‘वही हमसे योग्य कृति करवा रहा है’, इसके प्रति मनोमन कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी ।
४. किसी की व्यक्तिगत जगह में विद्यमान कपूर के
वृक्ष देखने के लिए जाते समय आई अडचनें और अनुभव हुई गुरुकृपा
बारूस में मिलनेवाले शुद्ध भीमसेनी कपूर के वृक्ष का भाग
४ अ. कपूर का वृक्ष देखकर भावजागृति होना
हम वन से लौटने तक वर्षा को जोर कम हो गया था । वहां के एक स्थानीय व्यक्ति ने हमें बताया, ‘‘यहां से डेढ किलोमीटर के अंतर पर एक व्यक्ति की भूमि पर कपूर के वृक्ष हैं । उस स्थान पर अन्य वृक्षों से उसने कपूर निकाल भी लिया होगा, तब भी आपको वे तोडे हुए वृक्ष देखने मिल सकते हैं ।’’ तब हमने वहां जाना निश्चित कर, तुरंत निकल गए । हमने दूर से ही कपूर के एक वृक्ष के दर्शन किए । कपूर के वृक्ष को देखकर हमारी भावजागृति हुई ।
४ आ. वर्षा होने से पगडंडियों पर कीचड हो गया और वेळू
(आयुर्वेदिक औषधि) समान कंटीली वनस्पतियों के बीच से मार्ग निकालना
४०० मीटर के अंतर पर से वह वृक्ष देखते समय हमें अलग ही तेज प्रतीत हो रहा था । हम तुरंत ही उस वृक्ष की दिशा में निकले । पर वहां जाने के लिए कोई पगडंडी नहीं थी, वर्षा होने से सर्वत्र कीचड हो गया था । हमें ५०० मीटर की ऊंचाई से नीचे उतर कर जाना था । स्थिति ऐसी थी कि ‘पैर फिसला, तो सीधे नदी में ही गिरेंगे ।’ इस स्थान पर और हम जहां पहले गए थे, अत्यंत नोकदार कंटीली वनस्पतियां थीं । इन वनस्पतियों की ऊंचाई अधिक होने से उनके कांटे डेढ से दो इंच लंबे थे । इन कांटों में कोई अटक जाता, तो घायल हो जाए । ये कांटे लता-बेल के अग्रभाग पर थे, और ध्यान में नहीं आते थे । चलते समय यदि किसी के कपडों में ये कांटे अटक जाते, तो उस व्यक्ति को पीछे खींच लेते । काटों में अटके व्यक्ति जब स्वयं को छुडाने का प्रयत्न करता तो उसके हाथ में भी काटे लग जाते थे । ऐसे में सहयोगियों को छुडाना आवश्यक होता है ।
४ इ. साथ में आए व्यक्ति द्वारा दिखाना कि ‘वृक्ष से कपूर कैसे निकालते हैं ?’
हम नीचे उतर कर जाने पर मुझे वहां ३ – ४ वृक्ष पहले ही कटे दिखाई दिए । हमें जो व्यक्ति कपूर के वृक्ष दिखाने ले जा रहा था, उसने संकेत किया कि इससे कपूर निकाला जा चुका है । उसने हमें दिखाया कि वे ‘वृक्ष से कपूर कैसे निकालते हैं ?’, उसने एक वृक्ष के तने में एक खोखले स्थान की ओर उंगली दिखाते हुए बताया कि ‘यहां कपूर होता है ।’ इसके साथ ही एक तने में किए गए खडे चीर को दिखाते हुए बताया कि ऐसे चीर कर, कपूर निकाला गया है ।
४ ई. पैरों तले सर्वत्र कीचड अथवा तोडे गए वृक्षों के अवशेष होना, आसपास अनेक कीडे होते हुए भी
गुरुकृपा से कोई भी कीडा पास न आना और कपूर के वृक्ष का एक पौधा और कटे हुए वृक्ष के कुछ कपचे मिलना
तोडे हुए इन वृक्षों के स्थान पर पैर रखने के लिए हमें भूमि नहीं मिलती थी । हमारे पैरों के नीचे सर्वत्र कीचड अथवा तोडे हुए वृक्षों के अवशेष थे । ऐसे में विविध प्रकार के जंगली कीडों की वृद्धि हो रही थी । ‘ये कीडे विषैले हैं अथवा बिन विषैले’, यह भी समझ में आना कठिन ही था । मुझे ८-९ इंच लंबी एक गोम दिखाई दी । देखते ही देखते वह काले रंग की गोभ पत्तों में चली गई । इन कीडों को देखते हुए हमारे शरीर में सिहरन दौड गई; परंतु हमें डर नहीं लग रहा था । यहां कोई भी कीडा हमारे पास नहीं आया । यह सर्व केवल गुरुदेवजी का हमारे सर्व ओर संरक्षककवच के कारण ही संभव हुआ । यहां हमें कपूर के वृक्ष का एक पौधा, कटे हुए वृक्ष के कुछ कपचे इत्यादि मिले । उन्हें लेकर हम वापस लौटने के लिए निकले ।
४ उ. दिन में ३ बार मुसलधार वर्षा में भीगने पर भी उसी स्थिति में सेवा करना,
‘भगवान ने अपने समष्टि रूप की सेवा भी ऐसे में करवा ली’, इस विचार से भावजागृति होना
मार्ग में हमें ‘डोलोकसांगोल’ नामक गांव में सांब्राण्णी धूप और बारूस से कपूर के वृक्षों से मिलनेवाले कपूर पर प्रक्रिया किया हुआ कपूर (प्रोसेस्ड कपूर) मिला । तदुपरांत हम समोसीर नामक गांव की ओर जाने के लिए निकले । इस एक दिन के प्रवास में हम ३ बार मूसलाधार पानी में साहित्य पाने के लिए अथवा वृक्ष देखने के लिए भीगे । रात कमरे में पहुंचने तक हम दिनभर ऐसे ही भीगे कपडों में सेवा कर रहे थे । तब मन में विचार आया, ‘भगवान की पूजा गीले वस्त्रों में करने की पद्धति है । भगवान ने आज हमसे भी अपने समष्टि रूप की सेवा करवा ली है ।’ इस विचार से मेरी भावजागृति हुई । हमें निवासस्थान पहुंचने में रात के १२.३० बज गए थे ।
४ ऊ. पैर की चमडी पानी में भीगने से सफेद और कोमल पड जाना; परंतु त्वचा में सिकुडन न पडना
रात को निवासस्थान पहुंचने पर जब पैरों से जूते और मोजे निकाले, तो ध्यान में आया कि हमारे पैर की चमडी पानी से भीगकर सफेद और कोमल हो गई है । परंतु ‘पानी में भीगने से त्वचा को पडनेवाली सिकुडन इस बार नहीं आईं थीं’ यह बात विशेष लगी । समोसीर गांव में सर्व साहित्य व्यवस्थित भर कर हमने मेडान की दिशा में प्रवास आरंभ किया ।
– श्री. सत्यकाम कणगलेकर
५. लौटने का प्रवास
५ अ. मेडान शहर के निकट एक स्थान पर चमगादड पिंजरे में
रखे दिखाई दिए और उनका मांस जोडों में वेदना और अस्थमा पर उपयुक्त हैं, ऐसा ज्ञात होना
मोसीर से मेडान का प्रवास ८ घंटों का था । इस प्रवास में भी हमें बारिश लगी । मेडान निकट आने पर बारिश की मात्रा कम हो गई । मेडान शहर के निकट एक स्थान पर पहुंचने पर अनेक चमगादड पिंजरे में रखे दिखाई दिए । हमने उनके छायाचित्र निकाले और चित्रीकरण किया । हमने वहां के मालिक से पूछा, ‘‘उन्हें ऐसे क्यों रखा है ?’’ तब उन्होंने बताया कि जिन लोगों को जोडों का दर्द अथवा अस्थमा का कष्ट है, चमगादड का मांस खाने से उनके ये रोग कम हो जाते हैं । यह सुनकर हम आश्चर्यचकित हो गए । इससे पूर्व हमने इस प्रवास में लोगों को विविध प्राणी और कीटक खाते देखा था; परंतु चमगादड खानेवाले लोग पहली बार ही देखे थे ।
५ आ. सर्व साहित्य को पुन: बांधना
हम रात में मेडान, निवासस्थान पर पहुंचे । अगले दिन हमारा भारत लौटने का प्रवास आरंभ होनेवाला था । सवेरे उठकर हमने जतन करने के लिए लाई सर्व साहित्य की पुनर्बांधणी अच्छे ढंग से की । विमान का प्रवास में हम दोनों कुल ५० किलो का साहित्य ले जा सकते थे । साहित्य को बांधने पर हमने उसका पुन: वजन किया तो वह ५१ किलो था ।
५ इ. विमानतल पर हुई साहित्य की जांच और हुई अनुभूति
५ इ १. विमानतल पर साहित्य की जांच करते समय वहां के अधिकारियों ने बैग खोलकर दिखाने के लिए कहना और सभी साहित्य भारत के गोवा में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय में जतन करनेवाले हैं, ऐसा उन्हें बताना
विमानतल पर पहुंचने पर प्रवेशद्वार पर जांच यंत्र द्वारा (एक्स-रे मशीन से) साहित्य की जांच करवानी होती है । साहित्य की जांच करते समय वहां के अधिकारियों ने हमें रोका और बैग खोलकर दिखाने के लिए कहा । हमने बैग खोलकर दिखाया और सब साहित्य भारत स्थित गोवा के महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय में जतन किया जानेवाला है । इसके साथ ही हमने उन्हें महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय संबंधी जानकारी भी दी ।
५ इ २. अधिकारियों को विमानसेवा देनेवाली कंपनी के अधिकारियों से अनुमति लेने के लिए कहना, साधक द्वारा महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय का जानकारी पत्रक बाहर निकालना, सामने बैठे अधिकारियों द्वारा साहित्य ले जाने की अनुमति देना और जानकारीपत्रक पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के छायाचित्र के कारण अधिकारियों के विचारों में परिवर्तन होने की अनुभूति आना
इन अधिकारियों ने हमें प्रवासियों को विमानसेवा देनेवाली कंपनियों के अधिकारियों द्वारा अनुमति लेने के लिए बताया । तब श्री. स्नेहल और श्री. मलाऊ अनुमति लेने गए । मैंने महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय का जानकारीपत्रक और अपना परिचयपत्र निकाल लिया । तब सामने बैठा अधिकारी बोला, ‘‘साहित्यसंबंधी कोई अडचन नहीं हैं आप आगे जा सकते हैं । अधिकारियों के विचारों में परिवर्तन केवल जानकारी पत्रक पर और परिचय पत्र पर परात्पर गुरु डॉ. आठवले के छायाचित्र के कारण होने की अनुभूति हुई । मुझे ऐसा तीव्रता से प्रतीत हो रहा था गुरुदेवजी के केवल छायाचित्र से सर्व कार्य निर्विघ्न संपन्न हो गए । उन्होंने शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और उसकी शक्ति एकत्र होती है, इसकी मुझे प्रचीति दी । उनके रूप के कारण अर्थात उनके अस्तित्व से यह कार्य हुआ है । तदुपरांत हम साहित्य देने गए । इस अवसर पर साहित्य का वजन आवश्यकता अनुसार ही भरा । जब हमने साहित्य का वजन किया तब १ किलो का अतिरिक्त साहित्य भी विमानसेवा के अधिकारियों ने स्वीकार किया और हमें अतिरिक्त पैसे भी नहीं भरने पडे ।
६. दौरे में सीखने मिले सूत्र – स्वयं को भूलकर
ईश्वर के स्मरण में रहने का प्रयत्न करना ही खरी साधना है !
चार दिनों के इस दौरे में हमने प्रत्येक क्षण ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति ली । इस प्रवास से मेरे मन पर एक सूत्र अंकित हुआ, सब कुछ ईश्वरेच्छा से ही होता है । प्रत्येक क्षण पूर्वनियोजित है । काल के उस प्रवाह में स्वयं को भूल कर ईशस्मरण में रहने का प्रयत्न करना ही खरी साधना है । वास्तव में देखा जाए तो अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है । हम ईश्वर का नामस्मरण करते हैं और अपना ध्येय ईश्वरप्राप्ति है । साध्य अर्थात ईश्वरप्राप्ति और साधन अर्थात नामस्मरण । दोनों ईश्वर ही हैं । फिर अपने अस्तित्व का प्रश्न ही कहां आता है ? करन-करावनहार ईश्वर ही है । फिर मैं, मेरा, मेरे लिए ….ऐसे विचार क्यों ?
– श्री. सत्यकाम कणगलेकर, सनातन आशम, रामनाथी, गोवा. (२०.५.२०१८)
७. कपूर के वृक्षों को तोडना और उसकी तुलना में कपूर देनेवाले
वृक्षों का लगाने की मात्रा बहुत कम होने से कपूर मिलना कम होना और
वृक्षों से कपूर प्राप्त कर उस पर प्रक्रिया करने की जानकारी देनेवाले व्यक्ति गिने-चुने ही हैं ।
हमारे बारूस जाने पर हमें स्थानीय लोगों से पता चला कि वृक्षों से कपूर प्राप्त करने की पद्धति जो पूर्वकाल से चली आ रही थी, वह अब बंद हो गई है । कपूर की जागतिक मांग की पूर्ति के लिए कपूर के वृक्षों की कटाई की तुलना में कपूर देनेवाले वृक्ष लगाना बहुत कम हो गया है । इससे वृक्षों से कपूर मिलना कम हो गया है । इस गांव में कपूर तैयार करने की पद्धति अब समाप्त हो रही है । वृक्ष से कपूर पाने की प्रक्रिया की जानकारी देनेवाले गिने-चुने लोग ही रह गए हैं । अब नई पीढी को कपूर कैसे बनाया जाता है ?, यह बतानेवाला कोई नहीं है । हमें यहां एक प्रौढ गृहस्थ ने वृक्ष से कपूर कैसे बनाना है ? विविध प्रकार के कपूर और उसे कैसे पहचाना जा सकता है ?, इससे संबंधित जानकारी दी । इस अवसर पर मेरे ध्यान में आया कि आधुनिकता के कारण नई पीढी ऐसे सुंदर और दैवी ज्ञान से वंचित हो रही है ।
– श्री. स्नेहल राऊत, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.