देवता के दर्शन भावपूर्ण करने से ईश्वर की अनुभूति होती हैं ।
१. देवालय की सात्त्विकता दर्शन हेतु पोषक होती है । सात्त्विकता की संवेदनशील तरंगें जीव के पिंड में भावात्मक ऊर्जा को घनीभूत कर, उसे उसकी प्रकृति के अनुसार देवता का सगुण दर्शन करवाती हैं ।
२. दर्शन के विविध कृत्यों को भावपूर्ण करने से देवता के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जीव का सुप्त चैतन्य प्रकट होकर, स्वयं मार्गदर्शक बनकर, जीव को मोक्ष तक ले जाता है ।
३. कहते हैं, ‘भगवान भाव के भूखे हैं । देवता के दर्शन किसी भी पद्धति तथा भक्तिभाव से करने से ईश्वरकृपा की अनुभूति होती है । सामान्य भक्त में इतना भाव नहीं होता; उसके लिए देवता के दर्शन (आध्यात्मिक दृष्टि से) उचित पद्धति से करने आवश्यक हैं ।
४. जैसे दीप के कांच पर जमी कालिख को स्वच्छ करने पर ही प्रखर प्रकाश झलकता है । वैसे ही देवता के प्रत्यक्ष दर्शन से पूर्व स्वयं पर आए रज-तम रूपी कालिख का आवरण दूर कर, अंतर में भावरूपी ज्योत जगाना आवश्यक है । तभी हमें ईश्वर से प्रक्षेपित चैतन्य के प्रकाश एवं ईश्वरीय कृपा-प्रसाद का परिपूर्ण लाभ होता है । देवालय में दर्शन करने से वहां की सात्त्विकता ग्रहण कर सकते हैं तथा वहां का सात्त्विक वातावरण देवता के प्रति भक्तिभाव बढाने में सहायक होता है ।
प्रांगण से देवालय की ओर जाते समय भाव
१. ऐसा भाव रहे कि ‘अपने परम श्रद्धेय गुरु अथवा देवता से मिलने जा रहे हैं !’
‘देवालय के प्रांगण से देवालय की ओर जाते समय ऐसा भाव होना चाहिए कि ‘अपने परमश्रद्धेय श्री गुरुदेव अथवा प्रत्यक्ष देवता से भेंट करने जा रहे हैं ।’ इससे देवता से भेंट के लिए जीव में आवश्यक व्याकुल भाव की निर्मिति में सहायता होती है । जब कोई शिशु अपनी माता से मिलने के लिए आतुर होता है, तब वह यहां-वहां किसी भी वस्तु को नहीं देखता । हमारा ध्यान ईश्वर की ओर केंद्रित हो, यही उद्देश्य है । इससे ईश्वर की ओर जाते समय जीव को विनम्र बनने में सहायता मिलती है। विनम्र भाव के फलस्वरूप जीव के प्राणमयकोष में स्थित सत्त्वकण प्रबल होते हैं।
२. ऐसा भाव रहे कि ‘हमारे गुरु अथवा देवता का हम पर ध्यान है !’
‘अनेक वर्ष पूर्व हम केदारनाथजी की यात्रा हेतु जा रहे थे । गौरीशंकर से 14 मील दूरी पर बर्फाच्छादित हिमालय में बसा हुआ वह प्राचीनतम शिवजी का देवालय ! किसी भी क्षण पैर फिसलकर नीचे खाई में गिरने से शरीर के टुकडे-टुकडे हो जाएं, ऐसी वह अत्यंत संकरी दुर्गम पगडंडी । पांच-फचास तीर्थयात्री उस पगडंडी पर चले जा रहे थे। स्त्री, फुरुष, वृद्ध, युवा, बाल एवं पंडित । अधिकतर जन पैदल ही जा रहे थे, तो कोई-कोई घोडे पर बैठकर जा रहे थे । एक अंधी वृद्धा एक युवा के कंधे पर हाथ रखे हुए जा रही थीं । यह देखकर भास्करन्जी को बडा आश्चर्य हुआ । उन्होंने बडे आदर से मृदु वाणी में पूछा, ‘माताजी, इतने कठिन मार्ग पर चलकर जाने पर भी आपको केदारनाथजी के दर्शन तो होंगे नहीं ।’ इस पर उन्होंने हल्के से मुस्कराते हुए अपने हाथ जोडे एवं माथे से लगाए । उनके नेत्र भर आए । भरे हुए कंठ से वह बोलीं, ‘सच है । मैं तो नहीं देख पाऊंगी केदारनाथजी को; लेकिन वहां पहुंचते ही केदारनाथजी मुझे देखनेवाले हैं ना !’
भास्करन्जी के हृदय को धक्का लगा । हम केदारनाथजी के दर्शन हेतु जा रहे थे; परंतु ‘केदारनाथजी भी हमें देखेंगे’, इस कल्पना ने हमारे मन को स्पर्श भी नहीं किया था । हमारा भाव ऐसा होना चाहिए कि ‘हम जाकर केदारनाथजी को देखेंगे; परंतु उस शिवशंकर का ध्यान मुझ पर यहां भी है, इस क्षण भी वे मुझे देख रहे हैं’ । भास्करन्जी बोले, ‘हमारी यात्रा सफल हुई । हमें अपने भगवान शिवजी का संदेश मिल गया । ‘मैं नित्य तुम्हें देखता हूं’, यह संदेश !’ उसी क्षण से वह संदेश उनके हृदयपटल पर सदा के लिए अंकित हो गया । वह संदेश अर्थात प्रेरणा का अखंड विस्फोट, सुरक्षा-कवच एवं शक्तिगाथा !’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी