प्रभु श्रीराम की जीवन हम सभी को हर स्थिति में कैसे रहना है, इसका संदेश देती है । प्रभु श्रीराम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे । राजघराने में उनका जन्म हुआ था; परंतु फिर भी भगवान श्रीराम ने पिता के वचन की पूर्ति हेतु अपना राज्याभिषेक त्याग कर, वनवास जाना स्वीकारा । वे जंगलों में बिकट परिस्थिति में रहे, अपनी पत्नी सीता को प्राप्त करने के लिए संगठन बनाकर असुरों से युद्ध किया । यह सभी प्रसंग हमें सिखाते हैं कि जब स्वयं अवतार इतने कष्ट उठाकर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए लड सकते हैं, तो हम क्यों छोटे-छोटे कारणों से निराश होते हैं ? इसलिए अब हम सीखेंगे कि प्रभु श्रीराम के जीवन के प्रसंगों से कौनसे गुण आत्मसात कर सकते हैं ।
१. आदर्श पुत्र : श्रीराम ने अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया, परंतु उचित प्रसंग में बडों को उपदेश भी दिया, उदा. वनवास के समय उन्होंने अपने माता-पिता को शोक न करने का उपदेश दिया । जिस कैकेयी माता के कारण श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ, उन्हें ही वनवास से लौटने पर श्रीराम नमस्कार करते हैं एवं पहले की ही भांति उनसे प्रेम से बातें करते हैं ।
प्रभु श्रीराम ने अपने वनवास के काल में भी पिता को दिए हुए वचन का आदर्श पालन किया । प्रभु श्रीराम को वनवास में किसी भी गांव अथवा नगर में आश्रय नहीं लिया और १४ वर्ष वनवास भोगा ।
वनवास के समय जब रावण ने सीताहरण किया, तब श्रीराम यदि चाहते तो अपने बंधुओं से कह कर अयोध्या की बडी सेना भिजवाकर रावण से युद्ध कर सकते थे; परंतु ऐसा करने से उस सेना का वेतन और भोजन इत्यादि का प्रबंध भी उन्हें ही करना पडता, जो वनवास के नियमों में संभव नहीं था । इसी लिए श्रीरामजी ने वनवासी वानरों का संगठन बनाकर अपनी सेना बनाई । यह सेना पत्थर और वृक्ष को अपना आयुध बनाती थी और वृक्ष पर लगे फल खाती थी । इसी सेना के आधार पर उन्होंने लंकाधिपति रावण से युद्ध भी जीता । विपदा की स्थिति में भी श्रीराम ने पिता के वचन की पूर्ति करते हुए अपनी पत्नी सीता को मुक्त करवाया ।
२. आदर्श बंधु : आज भी आदर्श बंधुप्रेम को राम-लक्ष्मण की उपमा दी जाती है ।
३. आदर्श पति : श्रीराम ‘एकपत्नीव्रत’ थे । सीता का त्याग करने के उपरांत श्रीराम ने विरक्त जीवन व्यतीत किया । आगे चलकर जब यज्ञ के लिए आवश्यकता थी, तब पुनः विवाह न कर, सीताजी की प्रतिमा साथ बिठाई । इससे श्रीराम की एकपत्नी प्रतिज्ञा स्पष्ट होती है, जबकि उस काल में प्रथानुसार एक राजा की अनेक रानियां होती थीं ।
४. आदर्श मित्र : श्रीराम ने सुग्रीव, विभीषण इत्यादि के संकटकाल में उनकी सहायता की । सुग्रीव को राज्य दिलाया । हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने सुग्रीव की कथा सुनी और उन्होंने सुग्रीव को अपने क्रूर भाई वानरराज बालि के भय से मुक्त कराया । बालि ने अपनी शक्ति के बल पर दुदुंभी, मायावी और रावण को परास्त कर दिया था । बालि ने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी छीनकर, उसे बलपूर्वक अपने राज्य से बाहर निकाल दिया था । सुग्रीव की पीडा सुनकर श्रीराम ने बालि का वध करके सुग्रीव को राज्य दिलाया ।
५. आदर्श राजा : प्रजा द्वारा सीता के प्रति संशय व्यक्त किए जाने के पश्चात अपने व्यक्तिगत संबंध का विचार न करते हुए, राजधर्म पालन हेतु उन्होंने अपनी धर्मपत्नी का परित्याग कर दिया । इस विषय में महाकवि कालिदास ने एक मार्मिक श्लोकार्ध लिखा – ‘कौलिनभीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः ।’ (अर्थ : लोकनिंदा के भय से श्रीराम ने सीता को घर से बाहर भेज दिया; परंतु मन से नहीं ।)
६. आदर्श शत्रु : रावण की मृत्यु के पश्चात उसके भाई विभीषण ने उसका अग्निसंस्कार करने से मना कर दिया । तब श्रीराम ने उससे कहा, ‘बैरी की मृत्यु के साथ बैर का भी अंत हो जाता है । तुम यदि रावण का अंतिम संस्कार नहीं करोगे, तो मैं स्वयं करूंगा । वह मेरा भी भाई था ।’’
७. धर्मपालक : श्रीराम ने धर्म की सभी मर्यादाओं का पालन किया, इसलिए उन्हें ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ कहते हैं ।
८. एकवचनी : वचन के संदर्भ में तो रघुकल का आदर्श माना जाता है । रामचरितमानस की एक बहुत प्रसिद्ध चौपाई है – ‘रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन ना जाई ॥’
यदि किसी को कोई बात सत्य प्रमाणित करनी हो, तो वह कहता है ‘मैं यह तीन बार दोहराता हूं । जैसे ‘शान्ति’ शब्द भी तीन बार बोला जाता है । श्रीराम एकवचनी थे अर्थात यदि उन्होंने केवल एक बार भी कोई बात कही हो, तो वह सत्य ही होती थी । उन्हें कोई बात तीन बार बोलने की आवश्यकता नहीं थी । कोई श्रीराम से पूछता भी नहीं था कि ‘‘क्या यह सच है ?’’
९. एकबाणी : श्रीराम का केवल एक ही बाण लक्ष्य भेदने का सामर्थ्य रखता था; उन्हें दूसरा बाण चलाने की आवश्यकता ही नहीं पडती थी ।
यदि रामायण का अध्ययन पाठशालाओं से प्रारंभ होता, तो अवतारों का आदर्श समाज ने लिया होता और आज जो परिस्थिति है, वह उत्पन्न ही नहीं होती ।