‘मानवी जीवन में काल का अत्यधिक महत्त्व है । ‘कालगति को पहचानकर जीवन की प्रत्येक कृति करते समय स्वयं की (व्यष्टि) और अगले चरण में समाज की (समष्टि) उन्नति करने के लिए प्रयत्न करना’, यह मनुष्य जीवन का खरा ध्येय है । हिन्दू धर्म में पूर्वकाल में यही शिक्षा गुरुगृह में रहकर अध्ययन करते समय बच्चों को दी जाती थी । काल की आहट पहचानने के लिए व्यष्टि साधना की नींव सुदृढ होनी चाहिए । पूर्व में लोग साधना करनेवाले होने से वे आध्यात्मिकदृष्टि से सक्षम और द्रष्टा थे । वे काल पहचानकर जीवन की प्रत्येक कृति करनेवाले थे । उनके द्रष्टापन के उदाहरण इंडोनेशिया में मिलते हैं । उनमें से ही एक उदाहरण है इंडोनेशिया के मंंदिर ! इन मंदिरों की रचना और उनकी संकल्पना देखते हुए ध्यान में आता है कि लाखों वर्ष पूर्व इस स्थान पर हिन्दुओं का साम्राज्य और संस्कृति थी । यहां हुए ज्वालामुखी का उद्रेक और भूकंपों के कारण यहां अनेक मंदिरों को हानि होकर मनुष्यबस्ती अन्यत्र विस्थापित हो गई । कालांतर में हुए राजनैतिक परिवर्तन और अन्य पंथियों के आक्रमणों से यहां और अधिक हानि हुई ।
१. मंदिरों के नाम देवी-देवताओं को संबोधित कर रखे जाना
इंडोनेशिया के प्रंबनन मंदिर एक काल में जगत के सबसे ऊंचा शिखरयुक्त मंदिर था । प्रंबनन यह ‘परब्रह्मन’ इस शब्द का अपभ्रंश है । इससे ध्यान में आता है कि मंदिरों के नाम भी देवताओं को संबोधित कर रखे हैं । अनेक शतकों तक ज्वालामुखी की राख में दबे रहकर भी यहां के मंदिर आज भी अपने अद्वितीयत्व की पहचान करवाते हैं ।
२. मंदिरों के प्रवेशद्वार पर स्थापित काल का मुख
इन मंदिरों की रचना करनेवाले वास्तुविशारदों के द्रष्टेपन का उदाहरण होना
इन मंदिरों का निर्माण करते समय उनके प्रवेशद्वारों पर काल का मुख स्थापित किया दिखाई देता है । (ऊपर दिया छायाचित्र देखें ।) मंदिरों की रचना करनेवाले वास्तुविशारदों के विषय में ऐसा ध्यान में आता है कि उन्होंने अपने आध्यात्मिक सामर्थ्य द्वारा काल के परे जाकर यह जान लिया था कि आनेवाला काल विनाशकारी होगा । इसलिए उन्होंने काल को पहचानकर और काल के साक्ष्य में इन मंदिरों की निर्मिति विशिष्ट पद्धति से ही की है । काल की साक्ष्य में मंदिरों की रचना करने से आज अनेक शताब्दियां बीत जाने पर भी ये सर्व मंदिर शान से खडे हैं । उनके सौंदर्य का दर्शन करते हुए आंखें फटी रह जाती हैं और उनके वर्णन के लिए शब्द कम पड जाते हैं ।
३. घर्षणशक्ति के आधार पर एक-दूसरे में पत्थर अटकाकर किया गया
मंदिरों का विशेष निर्माण कार्य और उनके पीछे वास्तुविशारदों का व्यापक दृष्टिकोण
मंदिरों के शिखर तक का बडे-बडे पत्थर केवल एकदूसरे पर होनेवाली घर्षणशक्ति के आधार पर एकदूसरे में अटकाए हैं । दो पत्थरों में चूना, सिमेंट जैसी किसी भी प्रकार का चिपकानेवाले मिश्रण का उपयोग नहीं किया गया है । इसप्रकार का निर्माणकार्य के पीछे २ कारण ध्यान में आए ।
अ. मंदिर में प्रतिष्ठापित देवता की मूर्ति की निरंतर पूजा-अर्चा कर मूर्ति में उस देवता का तत्त्व जागृत हुआ होता है । मूर्ति भग्न होने पर यह तत्त्व वातावरण में घुल जाता है और उस स्थान पर नई मूर्ति पुन: स्थापित कर पुन: उसी भक्तिभाव से पूजा-अर्चा कर देवता का तत्त्व जागृत करना होता है । यह सब टालने के लिए और दुर्भाग्य से मंदिर में भूकंप जैसी नैसर्गिक आपदाओं से कुछ हानि हुई भी, तब भी उसके पत्थर अंदर स्थापित देवता की मूर्ति पर न गिरें और वह भग्न होने से बच जाए’, इसके लिए मंदिर की रचना ऐसे की है ।
आ. यहां विशेष बात यह है कि कोई मंदिर गिर भी जाए, तब भी उसके पत्थरों का भली-भांति अभ्यास कर मंदिर को पुन: बनाया जा सकता है ।
इस प्रकार केवल घर्षणशक्ति के आधार पर अनेक शताब्दियों से खडे इन मंदिरों को देख कृतज्ञता से हाथ अपनेआप जुड जाते हैं । इसके विपरीत आज के निर्माण कार्य को देखें तो वे कुछ वर्ष भी नहीं टिकते । इतना ही नहीं, अपितु दुर्भाग्य से कोई वास्तु गिरती है तो वह पूर्ण रूप से धराशायी होकर मिट्टी में मिल जाती है । उसे पुन: पहले समान नहीं बनाया जा सकता है । कहां इतनी बारीकी से विचार करनेवाले हमारे पूर्वज, तो कहां आज की स्थिति ! इसकी तुलना करना भी महान भारतीय संस्कृति को कालिमा लगाने समान है ।
इस प्रकार सर्वांगीण विचार करनेवाले अपनी महान हिन्दू संस्कृति के विषय में हम सभी को अभिमान से उसकी रक्षा के लिए कटिबद्ध होना आवश्यक है । यह कटिबद्धता समाज में निर्माण करने के लिए हिन्दू राष्ट्र के अतिरिक्त अन्य पर्याय नहीं !’
– श्री. सत्यकाम कणगलेकर, सीम रीप, कंबोडिया.