१. शक्तिपीठों की निर्मिति
सत्ययुग में भगवान शिव की शक्ति, सतीदेवी का मृत शरीर उठाकर भगवान शिव तांडव नृत्य कर रहे थे, तब संपूर्ण विश्व में प्रलय आने लगी । देवी-देवताओं ने भगवान शिव को शांत करने के लिए भगवान विष्णु की सहायता मांगी । तब भगवान विष्णु के सुदर्शनचक्र छोडने से सतीदेवी के शरीर के ५१ टुकडे होकर पृथ्वी पर गिरे । तदुपरांत भगवान शिव शांत हो गए । जिस स्थान पर सतीदेवी के शरीर के टुकडे गिरे थे, उन स्थानों को शक्तिपीठ कहा जाता है । उनमें से ४२ शक्तिपीठ भारत में हैं, ४ बांगलादेश में, २ नेपाल में, १ श्रीलंका में (नैनातीवू), १ चीन में (मानस) और १ पाकिस्तान में (हिंगुलाजमाता) है । सती के पैरों के घुंगरू श्रीलंका के उत्तर भाग में स्थित जाफना शहर के निकट नैनातीवू द्वीप पर गिरे थे ।
२. नैनातीवू अर्थात नागद्वीप !
प्राचीन काल में नैनातीवू को नागद्वीप नाम से पहचाना जाता था । यहां शक्तिपीठ के स्थान पर देवी का एक मंदिर है । उस देवी का नाम नागपुषाणी देवी है । स्थानीय लोग बोलीभाषा में देवी को नैनादेवी नाम से संबोधित करते हैं । इसलिए नागद्वीप को आगे नैनाद्वीप नाम पडा । कलियुग में श्रीलंका द्वीप पर तमिल भाषा का प्रभाव बढने से नैनाद्वीप का रूपांतर नैनातीवू हो गया । तमिल भाषा में तीवू अर्थात द्वीप ।
३. नैनातीवू में नागपुषाणी देवी का मंदिर
३ अ. नैनातीवू द्वीप पर मोटरबोट से जाते समय दूर से ही मंदिर के राजगोपुर के दर्शन होना
पृथ्वी पर ५१ शक्तिपीठों में से एक नैनातीवू में नागपुषाणी देवी का मंदिर नैनातीवू नाम के द्वीप पर है । उत्तर श्रीलंका के जाफना शहर से ३३ कि.मी. दूर कुरिकडूवान नामक गांव तक मार्ग है और वहां से आगे २० मिनट मोटरबोट से प्रवास कर हम नैनातीवू द्वीप पर पहुंचते हैं । नैनातीवू द्वीप पर बोट से जाते समय चहुं ओर हिंदी महासागर है । बोट से जाते समय दूर से ही मंदिर के राजगोपुर के दर्शन होते हैं ।
३ आ. नागपुषाणी देवी के मंदिर का इतिहास
इस मंदिर की निर्मिति का भी इतिहास है । महाभारत काल से नाग और गरुड में शत्रुता है । प्राचीन काल में नैनातीवू में देवी के समीप के पुळीयंतीवू नामक द्वीप पर रहनेवाला नाग प्रतिदिन एक फूल मुख में लाकर अर्पण करता था । एक दिन गरुड वहां आता है और नाग के जाने के मार्ग पर समुद्र के मध्यभाग में एक शिला पर बैठ जाता है । वह नाग को जाने के लिए रास्ता नहीं देता । कुछ दूर पर नाग एक शिला पर गरुड के वहां से चले जाने की प्रतीक्षा करता है । फिर कुछ समय उपरांत तमिलनाडु के चोल राज्य से देवी की ओर जानेवाला एक व्यापारी भक्त समुद्र में नाग और गरुड की शत्रुता देखता है । वह व्यापारी गरुड से वहां से जाने की विनती करता है । तब गरुड व्यापारी से कहता है, ‘‘यदि तुम इस स्थान पर नागपुषाणी देवी के लिए मंदिर निर्माण करने का वचन देते हो, तो मैं यहां से चला जाता हूं ।’’ इस पर व्यापारी मंदिर बनवाने का वचन देता है और गरुड नाग से क्षमायाचना कर चला जाता है । तदुपरांत वह व्यापारी उस स्थान पर देवी के लिए बडा मंदिर बनवाता है । वही आज का नागपुषाणी देवी का मंदिर है । वर्ष १६२० में पुर्तगालियों द्वारा किए गए आक्रमण में मंदिर का कुछ भाग नष्ट हो गया था । वर्ष १७८८ में नवनिर्माण किया गया ।
४. श्रीलंका के धर्माभिमानी श्री. मरवनपुलावू
सच्चितानंदन का मंदिरदर्शन की सुविधा करना
श्रीलंका के धर्माभिमानी श्री. मरवनपुलावू सच्चितानंदन ने अपने दो कार्यकर्ताओं को हमारे साथ भेजा । उन दोनों कार्यकर्ताओं ने समुद्र में मोटर बोट से जाने की, मंदिरदर्शन और नैनातीवू द्वीप पर प्रवास के लिए गाडी की व्यवस्था की ।
५. परात्पर गुरु डॉ. आठवले की कृपा से २९ शक्तिपीठों के दर्शन होना
यह सर्व परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से ही हुआ । परात्पर गुरु डॉक्टर, आपकी कृपा के कारण ही हमें अब तक सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के साथ भारत, नेपाल, बांगलादेश और श्रीलंका, इन देशों के २९ शक्तिपीठों के दर्शन हुए ।
६. कृतज्ञता
सद्गुरु काकू की चैतन्यमय वाणी, उनकी उपस्थिति, ईश्वरीय मार्गदर्शन और आध्यात्मिक ऊर्जा के कारण हमें कभी किसीप्रकार का कष्ट नहीं हुआ । हमारा प्रवास आनंददायी था । परात्पर गुरु डॉक्टर, हमें शक्तिस्वरूपिणी सद्गुरु गाडगीळकाकू देने के लिए हम सभी साधक आपके श्रीचरणों में कोटि कोटि कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।