शत्रुनाश, भौतिक प्रगति और मोक्षप्राप्ति में पूरक कांचीपुरम (तमिलनाडू) के श्री अत्तिवरद पेरुमल स्वामी !
अनुक्रमणिका
- शत्रुनाश, भौतिक प्रगति और मोक्षप्राप्ति में पूरक कांचीपुरम (तमिलनाडू) के श्री अत्तिवरद पेरुमल स्वामी !
- १. सप्त मोक्षपुरियों मे से एक कांचीपुरम !
- २. श्री अत्तिवरदराज स्वामी की प्राचीन मूर्ति !
- ३. ब्रह्मदेव के आरंभ किए अश्वमेध यज्ञ की रक्षा के लिए प्रकट हुए श्रीविष्णु !
- ४. ‘श्री अत्तिवरदराज मूर्ति’ का माहात्म्य !
- ५. सोलहवीं शताब्दी में ढूंढने पर भी न मिली मूर्ति सत्रहवीं शताब्दी में पुन: प्रकट हुई !
- ६. उत्सव के उपरांत मूर्ति पुन: सरोवर में मूल स्थान पर कैसे रखते हैं ?
- ७. कृतज्ञता और प्रार्थना !
- श्री अत्तिवरदराज स्वामी का पूजन प्रत्येक ४० वें वर्ष में ही क्यों होता है ?
१. सप्त मोक्षपुरियों मे से एक कांचीपुरम !
सप्त मोक्षपुरियों में से एक मोक्षपुरी कांचीपुरम ! तमिलनाडू का कांचीपुर मंदिरों का मायका है; क्योंकि यहां शिवशक्ति और विष्णु सहित अन्य देवताओं के १००८ मंदिर हैं । शिवकांची और विष्णुकांची, ये जुडवां मोक्षपुरियां हैं । विष्णुकांची का श्रीविष्णु का श्री वरदराज मंदिर १०८ दिव्य विष्णुस्थानों में से एक है । उसका नाम है श्री वरदराज पेरुमल’ मंदिर ! हिन्दू धर्म में इस मंदिर का बहुत सम्मानजनक का स्थान है । इस मंदिर की एक प्राचीन वरदराज श्रीविष्णु की मूर्ति प्रत्येक ४० वर्षों में श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए सरोवर से बाहर निकाली जाती है । उसे श्री अत्तिवरदराज स्वामी की प्राचीन मूर्ति’ कहते हैं । अन्य समय में इस मंदिर में श्री वरदराजस्वामी के पाषाण की मूर्ति की पूजा की जाती है ।
२. श्री अत्तिवरदराज स्वामी की प्राचीन मूर्ति !
श्री अत्तिवरद स्वामी की यह मूर्ति ब्रह्मदेव द्वारा औदुंबर की लकडी से बनवाई ४ मूर्तियों में से एक सत्ययुगीन मूर्ति है । यह ९ फीट ऊंची है । यहां के अनंत सरोवर’ नाम के पुष्करिणी में यह मूर्ति १२ फीट लंबी चांदी की एक पेटी में रखी रहती है । प्रत्येक ४० वर्ष में उत्सवपूर्वक मूर्ति बाहर निकालते हैं । ४८ दिनों तक उसकी पूजा की जाती है ।
उत्सव के पहले ३० दिन वह मूर्ति शयनस्थिति में रहती है । तदनंतर १८ दिन अत्तिवरदराज स्वामी का खडे रूप में दर्शन होता है । उस समयाधि में वहां मेला लगता है । इसे ‘अत्तिवरद उत्सव’ कहते हैं । उस समय श्रद्धालुओं को दर्शन का अवसर प्राप्त होता है । ४० वर्षों में एक बार आनेवाले इस दैवी उत्सव का मानव जीवन में दो अथवा अधिकतम तीन बार अनुभव किया जा सकता है । इस वर्ष यह उत्सव १ जुलाई से १८ अगस्त की समयावधि में सम्पन्न हुआ । इस समयावधि में अत्तिवरद स्वामी के दर्शन के लिए विश्वभर से प्रतिदिन २ लक्ष से अधिक श्रद्धालु आते रहे थे । यह मूर्ति वर्ष १९७९ में अंतिम बार पानी से बाहर निकाली गई थी । अब वर्ष २०१९ का उत्सव संपन्न हुआ है । इसके आगे वर्ष २०५९ में ही यह मूर्ति पुन: सरोवर से बाहर निकाली जाएगी ।
३. ब्रह्मदेव के आरंभ किए अश्वमेध यज्ञ की रक्षा के लिए प्रकट हुए श्रीविष्णु !
श्री सरस्वतीदेवीजी ने एक बार ब्रह्मासे पूछा कि श्री सरस्वती और श्री लक्ष्मी में कौन शक्तिमान है ? इस पर देव द्वारा श्री लक्ष्मी के पक्ष में निर्णय देने पर श्री सरस्वती कुपित हो कर वहां से चली गईं । तदनंतर एक बार ब्रह्मदेव के अश्वमेध यज्ञ में विघ्न डालने के लिए श्री सरस्वती देवी ने वेगवती नदी का रौद्ररूप धारण किया । तब श्रीविष्णु ने प्रकट हो कर उसे रोका और यज्ञ चलता रहा । तब ब्रह्मा ने विश्वकर्मा से औदुंबर वृक्ष की लकडी से चार मूर्तियां बनवाईं । उनमें से एक मूर्ति श्री अत्तिवरदराज पेरुमल मूर्ति है । कांची में मुख्य देवता के रूप में उसकी स्थापना हुई और उस क्षेत्र का नाम पडा ‘विष्णु कांची’ । संस्कृत में औदुंबर को अत्ति’, तो तमिल में अथी’ कहते हैं । ब्रह्मदेव को वर देनेवाले राजा’ के रूप में यह अत्तिवरदराज मूर्ति’ नाम से प्रसिद्ध है । यह मूर्ति यहां की प्रमुख मूर्ति थी । १६ वें शतक तक वह स्थापित थी और श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए खुली थी ।
४. ‘श्री अत्तिवरदराज मूर्ति’ का माहात्म्य !
औदुंबर की लकडी की मूर्ति पानी में रखने से उसे एक अलग चमक, वलय और शक्ति प्राप्त होती है । इससे वह शत्रुनाश, भौतिक प्रगति और मोक्ष की प्राप्ति में कारक होती है । मूलत: औदुंबर बहुत शुभ और पवित्र है । वह दत्तात्रेय का प्रिय निवासस्थान है । ऐसे औदुंबर से ब्रह्मा की बनवाई, विधिपूर्वक स्थापित की गई और सत्ययुग में ब्रह्मा, त्रेतायुग में गजेंद्र, द्वापरयुग में बृहस्पति और कलियुग में अनंतशेष के शुभहस्तों से पूजित श्री अत्तिवरदराज स्वामी की मूर्ति’ अति पवित्र है । उसका बडा महत्त्व है । इस उत्सव को ब्रह्मोत्सव’ भी कहते हैं ।
५. सोलहवीं शताब्दी में ढूंढने पर भी न
मिली मूर्ति सत्रहवीं शताब्दी में पुन: प्रकट हुई !
सोलहवीं शताब्दी में (वर्ष १६६९) यह मूर्ति वहां के दत्तात्रेय परंपरा के उपासक पुजारी द्वारा अनंत सरोवर’ में छिपाई गई थी । दुर्भाग्य से उसका स्थान विस्मृति में चला गया । आगे चलकर उस पुजारीजी का निधन हो गया । तदनंतर उनके वंशजों ने भी वह मूर्ति ढूंढने का प्रयास किया; किंतु वह प्रयास सफल नहीं हुआ । इस कारण अत्रि ऋषि की बनाई और पूजन की मूर्ति मंदिर में स्थापित की गई । वह ठीक औदुंबर की मूर्ति जैसी ही दिखती है । वह आज भी वहां मुख्य दर्शन के लिए है । अचानक वर्ष १७०९ में सरोवर की स्वच्छता करते समय एक नागपाश के रूप की चांदी की पेटी में मूल मूर्ति मिल गई । तदनंतर प्रत्येक ४० वर्ष में उसकी पूजा का आरंभ हुआ ।’
६. उत्सव के उपरांत मूर्ति पुन: सरोवर में मूल स्थान पर कैसे रखते हैं ?
४८ दिनों के उत्सव के उपरांत अनंत सरोवर में वह मूर्ति पुन: स्थापित की जाती है । उस समय सरोवर का पानी बाहर निकालकर सरोवर रीता (खाली) किया जाता है तथा पूर्ण क्षेत्र स्वच्छ किया जाता है । तदनंतर श्रीमूर्ति को विधिपूर्वक चांदी की पेटी में रखकर उसे सरोवर के मंडप के नीचे के स्थान पर रखा जाता है।
४८ वें दिन रात १२ बजे मूर्ति सरोवर में रखी जाती है । प्रत्येक बार यह अनुभव होता है कि मूर्ति रखने के उपरांत वर्षा होने से सरोवर पुन: नैसर्गिक पानी से भर जाता है । इस वर्ष भी १८ अगस्त की रात १२ बजे मूर्ति सरोवर में रखी और तत्पश्चात रात १२.३० बजे के उपरांत पूरे २ दिनों तक चेन्नई क्षेत्र में वर्षा होती रही । उसके पूर्व चेन्नई में वर्षा का कोई भी लक्षण नहीं था । सरोवर में पानी भरने की पर्यायी व्यवस्था भी प्रशासन करता है; किंतु उस व्यवस्था का प्रयोग करने की आवश्यकता कभी नहीं होती । प्रत्येक बार स्वयं वरुणदेव श्री अत्तिवरदराज स्वामी को मिलने आते ही हैं ।
७. कृतज्ञता और प्रार्थना !
यह सब अद्भुत है । सत्ययुग से देवताओं द्वारा पूजी श्रीमूर्ति का दर्शन इस घोर कलियुग में भी हमें केवल महर्षि और परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से मिल रहा है । श्रीमन्नारायणस्वरूप परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा संकल्पित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की बाधाएं दूर हों और मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले श्री अत्तिवरदराज स्वामी की कृपादृष्टि सभी साधकों पर बनी रहे’, यह उनके चरणों में प्रार्थना है ।
– श्री. विनायक शानभाग
श्री अत्तिवरदराज स्वामी का पूजन प्रत्येक ४० वें वर्ष में ही क्यों होता है ?
श्री अत्तिवरदराज स्वामी की मूर्ति सरोवर में क्यों छिपाई गई और उसका प्रत्येक ४० वें वर्ष में ही क्यों पूजन किया जाता है’, इस पर मतभेद हैं ।
१. इस्लामी आक्रमणों से मूर्ति की हानि का संकट
उस समय हिन्दुओं के मंदिरों पर इस्लामी आक्रमणों की संभावना थी । उन आक्रमणों से सत्ययुगीन और देवताओं द्वारा पूजित मूल मूर्ति की हानि न हो; इसलिए वहां के पुजारियों ने मूल मूर्ति सरोवर में छिपा कर उसके जैसी दिखने वाली उत्सवमूर्ति वहां स्थापित की । आगे चलकर ढूंढने पर भी सरोवर की वह मूर्ति नहीं मिली । ४० वर्षों के उपरांत वह मूर्ति पुन: सरोवर में ही मिली; इसलिए प्रत्येक ४० वें वर्ष उसकी पूजा होती है’, ऐसे संदर्भ कहीं कहीं पाए जाते हैं ।
२. श्रीविष्णु की आज्ञा से ब्रह्मदेव, गजेंद्र, बृहस्पति
और अनंत शेष से अन्यों को पूजन के लिए मिला समय
कहीं-कहीं इस संदर्भ में पौराणिक कथा पाई जाती है । श्री अत्तिवरद स्वामी का पूजन सत्ययुग में ब्रह्मा, त्रेतायुग में गजेंद्र, द्वापरयुग में बृहस्पति और कलियुग में अनंतशेष के हाथों किया गया । सत्ययुग में एक बार कांचीपुरम में ब्रह्मदेव द्वारा यज्ञविधि के चलते उस काष्ठमूर्ति को यज्ञज्वालाओं का स्पर्श हुआ । ब्रह्मदेव के ईश्वर से उस पर उपाय पूछने पर ईश्वर ने उस मूर्ति को अनंतशेष के निवासवाले सरोवर में रखने कहा । इस कारण वह मूर्ति अबतक उस सरोवर में ही रखी हुई है । जब सत्ययुग में ब्रह्मदेव स्वयं श्री अत्तिवरद स्वामी की पूजा करते थे, तब भगवान श्रीविष्णु ने कहा, ‘‘हे देव ! आप स्वयं सतत मेरा पूजन कर रहे हैं । ऐसे पूजन का अवसर आप दूसरों को भी दें ।’’
तदनंतर ब्रह्मदेव ने दूसरों को केवल कुछ क्षणों के लिए (a few nano seconds) इस मूर्ति का पूजन करने की अनुमति दूसरों को दी । जब त्रेतायुग में गजेंद्र और द्वापरयुग में बृहस्पति श्री अत्तिवरद स्वामी की मूर्ति का पूजन करते थे, तब उन्होंने भी केवल कुछ मिनटों के लिए अन्य भक्तों को पूजन की अनुमति दी । इसी प्रकार जब अनंतशेष इस मूर्ति का पूजन करते थे, तब उन्होंने भी ४० वर्षों में एक बार ४८ दिनों के लिए दूसरों को इस मूर्ति का पूजन करने की अनुमति दी । इस कारण श्री अत्तिवरद स्वामी की मूर्ति को ४० वर्षों में एक बार सरोवर से बाहर निकाल कर ४८ दिन उसकी पूजा की जाती है। उत्सव संपन्न होने के उपरांत अनंत सरोवर में एक मंडप के नीचे चांदी की पेटी में वह मूर्ति रख दी जाती है । आगे के ४० वर्ष अनंतशेष स्वयं उसका पूजन करते हैं । यहां के अनंत सरोवर में भगवान शेष का वास (निवास) है ।
शास्त्र बताता है कि सत्यलोक, तपोलोक जैसेे उच्च लोकों की तुलना में अन्य लोकों में समय का परिमाण अलग होता है । सत्यलोक का एक क्षण भूलोक का (पृथ्वी का) एक वर्ष है !