आदर्श | वर्तमान स्थिति | |
१. भाव (प्रतिशत) | ३० | ० |
२.उच्चार (प्रतिशत) | ७० | ३० |
कुल परिणामकारकता (प्रतिशत) | १०० | ३० |
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले
वेदमंत्रों का उच्चार उचित होने के लिए मंत्रपाठी में निम्नांकित ६ गुण होने आवश्यक
माधुर्यमक्षरव्यक्तिःपदच्छेदस् तुसुस्वर: ।
धैर्यंलयसमर्थंच षडेते पाठका गुणा: ॥ पाणिनीय शिक्षा
अर्थ –
१. वाणी में माधुर्य (कर्कश आवाज में उच्चार न करें ।)
२. उच्चारण में स्पष्टता (श्रोता को प्रत्येक अक्षर स्पष्ट सुनाई दे)
३. मंत्र का उचित स्थान पर पदविच्छेद (मंत्रों को पूर्वनिर्धारित पद्धति से विभाजित करना) करने में निपुणता
४. सुस्वरता
५. धैर्य (चूक होने आदि से निर्भय रहकर आत्मविश्वासपूर्वक शुद्ध बोलना )
६. लयसंपन्नता (मंत्र बोलना प्रारंभ करते समय जो गति, स्वर (आवाज) की पट्टी थी, उसीमें अंत तक बोलना)
वेदमंत्रों के उच्चारण की अनुचित पद्धति – मंत्रपाठी के ६ दोष
गीती शीघ्री शिर: कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
अर्थ –
१. मंत्र गीत समान कहना
२. मंत्र शीघ्रता से बोलना
३. मंत्रों के उदात्त स्वर (आरोही स्वर) और अनुदात्त स्वर (अवरोही स्वर ) के समय सिर हिलाना
४. पुस्तक देखकर मंत्र पढना (मंत्र कंठस्थ कर, बोलना अपेक्षित है ।)
५. मंत्रपाठ अर्थ जाने बिना करना
६. मंत्र धीमे स्वर में बोलना
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूत, अधीत्यवेदं न विजानातियाऽर्थम् ।
याऽर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूत पाप्मा ॥
अर्थ : अर्थ न जानते हुए वेदमंत्र पढनेवाला बिना पत्ते, पुष्प और फलों के वृक्षसमान शुष्क है, केवल भारवाही तथा खंभे समान है । जो मंत्रपाठी अर्थ जानता है, उसका मंत्रोच्चार कल्याणकारी होता है और वह ज्ञान के बल पर स्वयं को पापमुक्त कर उच्च लोक में जाता है ।