सरोदवादन, ईश्‍वरप्राप्ति के लिए है तथा वादन करते समय ‘मैं ध्याना कर रहा हूं’, ऐसा भाव रखनेवाले मुम्बई के सुविख्यात सरोदवादक श्री. प्रदीप बारोट !

ईश्‍वरप्राप्ति के लिए संगीतयोग

 

१. श्री. प्रदीप बारोट का परिचय

सरोदवादन करते समय श्री. प्रदीप बारोट
बाईं ओर से कुमारी तेजल पात्रीकर, श्री. प्रदीप बारोट और गिरीजय प्रभुदेसाई

१ अ. संगीत की धरोहर से लाभान्वित और श्री. बसंत रॉय एवं मां अन्नपूर्णादेवी से सरोदवादन की प्राप्त शिक्षा !

श्री. प्रदीप बारोट का पूरा परिवार ही संगीतमय है । उनके दादाजी पं. रोडजी बारोट विख्यात सारंगीवादक तथा रतलाम राजघराने के मान्यताप्राप्त संगीतकार थे । पिताजी श्री. मोहनलाल बारोट गायन के साथ सारंगी, बांसुरी, ‘क्लैरोनेट’, ‘सैक्सोफोन’ इत्यादि वाद्य बजाते थे । घर में संगीत का ही वातावरण होने से बचपन से ही श्री. प्रदीप संगीत में डूबा करते थे । पिताजी ने श्री. प्रदीप को ‘सरोदवादन सिखाने की’ ठान ली थी । इस कारण श्री. प्रदीप प्रारम्भ में कुछ वर्ष श्री. बसंत रायजी के पास सिखने के लिए जाते थे । तदुपरान्त मैहर घराने के प्रवर्तक बाबा अल्लाउद्दीन खां की कन्या पद्मभूषण मां अन्नपूर्णादेवी के पास उन्होंने सरोदवादन की आगे की शिक्षा प्राप्त की । आजतक देश-विदेश में उनके सरोदवादन के अनेक कार्यक्रम हुए हैं और हो भी रहे हैं ।

१ आ. बचपन से ही ‘सूर’, ईश्‍वरप्राप्ति का सरल माध्यम है’, ऐसा संस्कार होने से
श्री. प्रदीप बारोट द्वारा सरोदवादन करते समय ‘मैं ध्यान कर रहा हूं’ ऐसा भाव रखा जाना

श्री. बारोट के घर में आध्यत्मिक वातावरण है । यदि ‘अध्यात्म एवं संगीत परस्पर सहायक है तथा संगीत साधना में लाभप्रद ही है । ‘सूर’ ईश्‍वरप्राप्ति का सरल माध्यम है । ‘मैं ईश्‍वर के लिए ही बजा रहा हूं ’, ऐसा उद्देश्य हो, तो ही उससे ईश्‍वरप्राप्ति हो सकती है’, ऐसा संस्कार उनपर घर में ही हुआ है । उन्होंने कहा, ‘‘वाद्यों में सूर पकडने के लिए बहुत जागृत रहना पडता है । सरोदवादन करते समय बुद्धि एवं मन एकाग्र होने से ही हम अपने हाथों से अच्छे प्रकार से सरोद बजा सकते है ।’’ आज भी वे प्रतिदिन ४-५ घंटे अभ्यास करते हैं । सरोदवादन करते समय ‘मैं ध्यान कर रहा हूं’, ऐसा भाव वे रखते हैं ।

 

२. मां अन्नपूर्णादेवी के पास सरोदवादन की शिक्षा

२ अ. पहले गुरु श्री. बसंत राय अमेरिका जानेवाले थे, इस कारण
आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने श्री. प्रदीप बारोट को मां अन्नपूर्णादेवी के पास भेजना

आरम्भ में सरोद सिखने के लिए श्री. प्रदीप बारोट श्री. बसंत राय के पास जाते थे । श्री. बसंत राय ४-५ वर्षों के उपरांत अमेरिका जानेवाले थे । उन्होंने मां अन्नपूर्णादेवी से कहा, ‘‘यह लडका संगीत में अच्छी प्रगति कर सकता है । उसका घराना अच्छा है तथा वह प्रमाणिक है । मैंने उसे जो सिखाया, वह वो अच्छे से बजा सकता है । यदि आप उसे सिखाएगी, तो और भी अच्छा होगा ।’’ तत्पश्‍चात मां ने श्री. प्रदीप को सरोद लेकर बुलाया । तब श्री. प्रदीप के पास छोटा सरोद था । मां ने कहा, ‘तुम सरोद पर क्या बजा सकते हो, वह मुझे बजाकर दिखाओ’ । तब गुरुजी ने सिखाया ‘छोटा गत’ इत्यादि उन्होंने बजाकर दिखाया । तब मां ने कहा, ‘‘मैं जैसा बताऊंगी, वैसा करो और प्रत्येक महीने में तुम्हें बुलाऊंगी, तब आ जाना ।’’ इस प्रकार श्री. प्रदीप का मां अन्नपूर्णादेवी के पास सरोद सिखना आरम्भ हुआ ।

२ आ. मां अन्नपूर्णादेवी की अनुशासनबद्ध सीख

आरम्भ में मां अन्नपूर्णादेवी के पास वे १५ दिनों में एक बार और तत्पश्‍चात प्रति माह एक बार जा रहे थे । मां के पास सिखनेवाले विद्यार्थी अधिक नहीं थे; क्योंकि अन्य संगीत शिक्षकों की भांति ‘संगीत सिखकर उसका प्रस्तुतिकरण करना’, इसके लिए उनका सिखाना नहीं था । मां का सिखाना पूर्णतः अनुशासनबद्ध था । आरम्भ में वे आलाप, जोड इत्यादि सिखाती और पश्‍चात आगे का सिखाती । उनकी शैली धृपदीय थी । वाद्य की गतकारी वे धृपद पद्धति से सिखाती थी । सिखाते समय वे एक बार एक ही विद्यार्थी को सिखाती थी । एक शिष्य के लिए वे ३ घण्टे देती थी ।

(आलाप : राग का संथ गति से किया हुआ स्वरविस्तार

जोड : वाद्य पर एक ही स्वरसमुदाय अन्य स्वरों के साथ पुनः पुनः बजाया जाना, इस क्रिया को ‘जोड’ कहते है ।

धृपद : परंपरा से चलता आया एक गायन प्रकार

गत (गतकारी) : स्वर वाद्यों पर बजाई जानेवाली विशिष्ट रागयुक्त तालबद्ध स्वररचना)

२ इ. मां-पिताजी द्वारा विवाह निश्‍चित किया जाने पर
श्री. प्रदीप बारोट का अस्वस्थ होना, यह बात मां अन्नपूर्णदेवी के ध्यान में आना और
विवाह निश्‍चित हुआ है यह समझने पर उन्हें बडा आश्‍चर्य लगना और बताना कि, ‘मैं तुम्हें अब नहीं सिखाऊंगी’

मां के पास सरोद सिखते समय हुआ एक प्रसंग श्री. प्रदीपजी ने बताया । ‘एक बार मां ने मुझे पूछा, ‘‘तुम अस्वस्थ क्यों हो ?’’ मां सामनेवाले व्यक्ति के मन की स्थिति समझ जाती थी । उन्हें यह दैवी शक्ति प्राप्त थी । मैंने उन्हें कहा, ‘‘मेरे मां-पिताजी ने मेरा विवाह निश्‍चित किया है ।’’ यह सुनकर उन्हें बडा आश्‍चर्य लगा । मुझे सिखाते-सिखाते वे रूक गई और उन्होंने कहा, ‘‘तुमने मुझे यह बताया क्यों नहीं ? तुम मुझे मेरे बेटे की भांति हो । अब विवाह के पश्‍चात तुम्हारा दायित्व बढेगा । अतः मैं तुम्हें नहीं सिखाऊंगी । ‘इसके आगे भी मैं तुम्हें सिखा पाऊंगी अथवा नहीं ?’ यह मैं बाद में बताऊंगी ।’’ उन्होंने मुझे सिखाना बंद कर दिया । मेरे मां-पिताजी ने उन्हें कहा, ‘‘यह विवाह हमने रचा है । इसमें उसकी कोई चूक नहीं है ।’’ तब भी वे मुझे सिखाने के लिए तैयार नहीं थी । इस प्रकार ७ वर्ष बीत गए । मध्यकाल में मैं कुछ न कुछ निमित्त बनाकर उनके पास जाता रहा ।

२ ई. सरोदवादन की आगे की शिक्षा देने के लिए कोई तैयार न होना

१. उदयपुर के झियामुद्दीन डागरसाहब वीणा बजाते थे । उनके साथ मेरे अच्छे संबंध हुआ करते थे । मैं उनका प्रिय था । मैंने उनसे पूछा, ‘‘मां ने मुझे सिखाने के लिए ‘ना’ कहा है । क्या आप मुझे सिखाओगे ?’’ तब उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तुम इधर-उधर मत भटको । माताजी तुम्हें फिरसे सिखाएगी !’’

२. मैंने अन्य एक सरोदवादिका से भी पूछा । उन्होंने क्रोध में आकर कहा, ‘‘एक बार ‘ना’ कह दिया है न ?’’ यह बात मां के एक शिष्य ने देखी और मां को जाकर बताई ।

२ उ. नौकरी की बात बताने के लिए मां के पास जाना,
वहां जाने के उपरांत आंख भर आना ‘वहां से लौटे नहीं’, ऐसा लगना, तब मां ने
कहना, ‘कब से सिखाना है, यह बताऊंगी’, ऐसा बताने पर आगे की शिक्षा आरंभ करना

‘मुझे दूरवाणी में नौकरी लगी है’, यह बताने के लिए मैं मां के पास गया था । तब मेरी आंख भर आई । वहां से लौटने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था । तब मां के पति ने मां को समझाया ।

मां बाहर आई और उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘इस प्रकार औरतों की तरह रोते क्यूं हो ? ‘कब से आरंभ करना है ? यह मैं तुम्हें बताऊंगी ।’’ इस प्रकार मां के पास मेरी शिक्षा फिरसे आरंभ हुई । उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘मैंने जिस प्रकार तुम्हें तैयार करने का विचार किया था, वैसा अब तुमसे नहीं होगा; परंतु इस कला के माध्यम से तुम्हारी गृहस्थी अच्छी चलेगी ।’’ आगे उन्होंने मुझे विद्यार्थियों को कैसे सिखाना है, यह भी सिखाया ।

 

३. मां अन्नपूर्णादेवी द्वारा प्राप्त संगीत की शिक्षा एवं उसके अनुसार आचरण

अ. मां कहती थी, ‘आप यदि अपनी आवश्यकताएं कम करोगे, तो आप को कभी कोई कष्ट नहीं होगा ।’ इसके अनुसार आचरण करने से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं हुआ, मैं संतुष्ट हूं ।

आ.‘श्री गुरु की कृपा के कारण आपकी दैनिक आवश्यकताएं पूरी होगी, इतना आपको अवश्य मिलेगा; परंतु आप पैसे के पीछे मत भागना । संगीत का उपयोग व्यवसाय अथवा प्रसिद्धि के लिए करोगे, तो तुम संगीत की पूजा नहीं कर पाओगे ।’ गुरु मां की यह सीख होने के कारण मैं प्रसिद्धि के पीछे कभी नहीं गया ।

इ. मां ने हमें केवल संगीत नहीं सिखाया; अपितु ‘जीवन की ओर किस दृष्टि से देखना है ?’, ‘हमारे आचार-विचार कैसे होने चाहिए ?’, ‘जीवन कैसे जीना है ?’ यह भी सिखाया ।

ई. उन्होंने बिना प्रसिद्धि के कईयों को कई बार सहायता की है ।

उ. ‘अपात्र व्यक्ति को सिखाना नहीं है, चाहे वह तुम्हारा पुत्र भी क्यों न हो; परंतु पात्र व्यक्ति को अवश्य सिखाना चाहिए ।’ मां का यही सिद्धांत मैं आचरण में लाता हूं ।

 

४. एक कार्यक्रम में सरोदवादन करते समय एक कबुतर
सरोद पर आकर बैठना, तब गुरु मां कबुतरों को दाना खिलाती थी, इसका
स्मरण होना और लगना कि ‘सरोद पर कबुतर आकर बैठना’, मां का आशीर्वाद ही है’

एक बार मुम्बई विद्यापीठ के सभागृह में (ऑडिटोरियम में) ‘हरिदास संगीत सम्मेलन’ में मैं सरोद बजा रहा था । उस समय मुझे तानपुरे पर साथ देने के लिए एक लडकी थी । कार्यक्रम आरंभ होने के कुछ समय पश्‍चात व्यासपीठ पर उस लडकी के पास एक कबुतर आया और मेरे सरोद पर चढ गया । मैंने बजाना जारी रखा । तदुपरांत वह कबुतर दर्शकों में गया । दर्शकों ने उसे पकडकर बाहर छोडा । तब मुझे स्मरण हुआ, ‘गुरु मां कबुतर को ज्वार के दाने खिलाती थी ।’ इस प्रसंग में मुझे लगा कि, ‘कबुतर के रूप में मुझे गुरु मां का आशीर्वाद मिला है ।’

 

५. वर्तमान स्थिति में संगीत की ओर देखने का समाज का दृष्टिकोन

अ. आजकल संगीत शिक्षकों को बच्चों के मां-बाप पूछते हैं, ‘‘हमारा बेटा मंच पर कार्यक्रम कब कर पाएगा ?’’

आ. बडौदा के एक वयस्क गृहस्थ अच्छा तबला बजाते थे । वे मुझे अपने साथ मॉरिशस ले गए थे । वहां कार्यक्रम में आए एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, ‘‘मैं कितने दिनों में तबला सिख पाऊंगा ?’’ उन्होंने उस व्यक्ति को बुलाया और तबले पर हाथ मारकर दिखाया और कहा, ‘‘सिख गए ना ? अब जाओ । इतना ही बजाना होता है ।’’

कोई भी साधना करनी हो, तो उसके लिए समय देना पडता है । अपने मन को कष्ट देना पडता है । तभी यह साध्य हो सकता है । यह सब शांति से करना पडता है ।

 

‘महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय‘ के ‘संगीत शोध केंद्र’
को भेंट देने के पश्‍चात श्री प्रदीप बारोट ने व्यक्त किया अभिप्राय

२२.१.२०२० को गोवा में किसी कार्यक्रम के लिए श्री. प्रदीप बारोट आए थे । उस समय उन्होंने ‘महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय’ के शोध केंद्र को सदिच्छा भेंट दी । तब उन्होंने कहा, ‘‘आश्रम में आते ही आनंदका अनुभव होता है । यहां स्वरों के माध्यम से ईश्‍वरप्राप्ति का सुलभ मार्ग सिखने को मिला । कुमारी तेजल पात्रीकर ने मुझे संगीत के शोधकार्य तथा उद्देश्य के बारे में बताया । ‘वर्तमान समय में समाज के लिए यह शोधकार्य अत्यंत उपयुक्त है । हमारी भारतीय संस्कृति बचाने का यह सरल मार्ग है’, ऐसा भी मुझे विशेषरूप से ज्ञात हुआ ।’’ सूक्ष्म जगत की प्रदर्शनी देखकर उन्होंने कहा, ‘‘साक्षात्कार का अनुभव हुआ । सुंदर ! अन्य कुछ बोलने के लिए कुछ शब्द ही नहीं है ।’’

– कु. तेजल पात्रीकर, संगीत समन्वयक, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१३.२.२०२०)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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