भारतीय धर्मशास्त्र में धर्म और नीति इन दो बातों को अलग माना गया है । इस लेख में हम ‘नीति’ शब्द का अर्थ समझेंगे । इसके अतिरिक्त, नीति के लिए कौन-सी बातें आवश्यक हैं; धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र में क्या अंतर है आदि समझने का प्रयास करेंगे ।
१. नीति’ शब्द के अर्थ और महत्त्व
१ अ. नीति शब्द ‘नी’ (नय्) धातु शब्द से बना है, जिसका अर्थ – आगे ले जाना, चलाना है । नीति से हमें अच्छी प्रवृत्ति, सदाचार, उचित-अनुचित का विवेक, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) आदि गुण और अंतिम कल्याण की ओर ले जानेवाले मार्ग के विषय में ज्ञान मिलता है । अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, समाजशास्त्र, जीवनशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र से नीति का घनिष्ठ संबंध है । इससे, नीति का विचार अधिक व्यापक रूप में होता है । ऐसे व्यापक विचारों से युक्त शास्त्र को ‘नीतिशास्त्र’ कहते हैं ।’
१ आ. नीति का मुख्य सिद्धांत है, एकता, मोक्ष अथवा समरसता का अनुभव करना । जिससे देवता के विषय में उचित ज्ञान बढाने में और उसके माध्यम से उनका दर्शन होने में सहायता हो, वह सब नीति है, अन्य सब अनीति है ।’
१ इ. धर्माचरण के विषय में काल के अनुसार बताए जानेवाले व्यावहारिक नियमों को ‘नीति’ कहते हैं ।
१ ई. नीति, अध्यात्म का आधार है और इसका अंतिम फल देवता का साक्षात्कार है । ऐसे साक्षात्कार और नीति के आपसी संबंधों के विषय में गुरुदेव ने अपने ग्रंथ में बताया है ।’
१ उ. भारतीय धर्मशास्त्र की एक विशेषता यह है कि इसमें धर्म और नीति को अलग माना गया है । उनका अर्थ, क्रमशः सामान्य और विशेष है; उदा. ‘सत्यं वद’, अर्थात सत्य बोलो, यह सामान्य नीति है; परंतु इतना कहने से ही बात नहीं बनती; इसलिए आगे कहा गया है, ‘धर्मं चर’; अर्थात धर्म का आचरण करो । सत्य अवश्य बोलिए; परंतु उसके साथ धर्म का आचरण भी कीजिए । नैतिकता, वास्तविक धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसका कार्य अर्थ और काम के विचारों को नियंत्रित करना है ।’
२. नीति की रक्षा के लिए तपश्चर्या का बल आवश्यक !
विश्व में कोई नैतिक विचार केवल इसलिए नहीं जीवित रहता कि वह बहुत अच्छा है; अपितु उसे टिकाए रखने के लिए उसके पीछे तपस्वी महापुरुषों की तपस्या का बल आवश्यक होता है । इस तपस्या के बल से ही विश्व में अनेक बार असत्य विचारधाराओं की भी जीत हुई है ।’
३. सरल और कुटिल नीति
प्रश्न : क्या सरल नीति और कुटिल नीति में अंतर सब समय रहता है ?
श्री गुलाबराव महाराज : नहीं । आपातकाल में कुटिल नीति भी सरल होती है ।’
४. धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र
४ अ. धर्म और नीति में व्यावहारिक दृष्टि से भेद
धर्म | नीति | |
१. निर्माता | ईश्वर | मानव |
२. उद्देश्य | पारलौकिक सुख प्रधान | ऐहिक सुख प्रधान |
३. महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | अर्थ और काम |
४. स्थान, काल और व्यक्ति के अनुसार सापेक्षता | निरपेक्ष | सापेक्ष |
५. स्तर | आध्यात्मिक | मानसिक |
६. पालन का आग्रह | है | नहीं (दुराग्रह है) |
७. किस का विचार ? | कर्ता का | कार्य का |
८. अधिक संबंध किससे ? | व्यक्ति | समाज |
४ आ. धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र कैसे सीखें ?
धर्मशास्त्र आंतरिक स्फूर्ति से उत्पन्न होने के कारण उसे गुरुशास्त्र से सीखना चाहिए तथा नीतिशास्त्र अनेक छोटे-बडे अनुभवों से सीखना चाहिए । भीष्म ने महाभारत में धर्मराज से कहा कि तुम यह मत समझना कि मैं जो कुछ बता रहा हूं, वह सब वेदों में है । इसे, ज्ञानी मनुष्य के अनुभव से एकत्र किया हुआ मधु समझ ।’
– श्री गुलाबराव महाराज
५. पंथ, धर्म और नीति
उपनिषदों में बाइबल समान दस आज्ञाएं (Ten commandments)’ नहीं हैं । यहूदी और ईसाई पंथों का आधार आदेश हैं । उपनिषदों के मतानुसार कार्य के लिए आज्ञा करना, नीतिशास्त्र का काम है । इस्लाम, यहूदी और ईसाई पंथ नीतिशास्त्र पर आधारित हैं; परंतु सनातन धर्म, जैन पंथ और बुद्ध पंथ ये चेतना, अर्थात शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि पर आधारित हैं ।