किसी प्रसंग में मन भावुक हो जाता है और रोना आता है । तब मन की बहुत ऊर्जा का अपव्यय होता है । इसका परिणाम सेवा पर भी होता है । सेवा की अवधि घट जाती है । इस स्थिति से उबरने के लिए २८.१.२०१७ को सद्गुरु (श्रीमती) बिंदाजी ने मार्गदर्शन किया । सभी साधक इससे सीखकर इसका लाभ ले सकें, इस उद्देश्य से यहां प्रस्तुत कर रही हूं ।
१. अन्यों द्वारा चूकें बताने पर भावुक होना, मन विचारों में उलझा
रहने से सेवा की अवधि घट जाना, अन्य प्रसंगों का स्मरण होकर विचार बढते
जाना और रोने की अवधि बढने से मन पर आवरण आकर आध्यात्मिक कष्ट बढना
किसी प्रसंगवश मन भावुक होकर ‘वे साधक मुझसे इस प्रकार से क्यों बोले ? वे अलग ढंग से भी तो बता सकते थे । उन्हें मेरी स्थिति समझनी चाहिए । इसमें मेरी कोई चूक नहीं थी’ ऐसे विचार मन में आते हैं । कभी-कभी किसी साधक की चूक न होते हुए भी उसकी चूक बताई जाती है और उसे कई बार रोना आता है ।
इन विचारों में मन उलझा रहने से सेवा की अवधि घट जाती है; इसके साथ ही अन्य प्रसंगों का भी स्मरण होता है और वे विचार भी बढते हैं । रोने की अवधि बढ जाने से मन पर कष्टदायक आवरण आ जाता है और आध्यात्मिक कष्ट भी बढता है । तत्पश्चात बढे हुए कष्ट को घटाने में बहुत समय लग जाता है ।
२. मन का निरीक्षण करते समय आगे दिए सूत्रों पर विचार करें !
अ. हमें ईश्वर ने कुछ सेवा संबंधी निपुणता प्रदान की है, जिनके माध्यम से ईश्वर सुझाता और सिखाता है; किंतु हमारी आधी ऊर्जा मन के द्वंद्व में व्यर्थ हो जाती है ।
आ. किसी प्रसंग में मन के विरुद्ध हो जाए अथवा दूसरे चूक बताएं, तो हमारे अहं को ठेस पहुंचती है । इस कारण चूक नहीं स्वीकार पाते और मन अस्थिर हो जाता है । मन की संवेदनशीलता बढने से भावुकता बढती है ।
इ. जब हमारा अहं जागृत हो जाता है, तब हमारी बुद्धि तर्क करती है और चूकों को स्वीकारने नहीं देती ।
३. आध्यात्मिक स्तर पर उपाय
३ अ. मन में आ रहे विचार लिखना
विचार लिखने से वे समझ में आएंगे । उसमें पूर्वाग्रह का प्रसंग हो, तो उस प्रसंग के आगे संबंधित साधक के गुण लिखें । इससे पूर्वाग्रह के विचार घटने में सहायता होती है ।
३ आ. मन बहिर्मुख हो रहा हो तो क्या करें ?
चूक दूसरों की हो, तो हमारा मन बहिर्मुख हो जाता है, ध्यान में आते ही वह चूक लिखकर अपने उत्तरदायी साधक को दें ।
३ इ. अंतर्मुख होना
‘उस प्रसंग में ईश्वर क्या सिखाना चाहते हैं’ इसका निरीक्षण करें और सीखने की वृत्ति बढाएं । इससे अंतर्मुख होने में सहायता होती है ।
३ ई. चूक बतानेवाले साधक से बात करें
अपना मन अंतर्मुख हो जाने पर, यदि संभव हो तो चूक बतानेवाले साधक से बात करें ।
३ उ. घटना के उपरांत भी साधकों से बात करना न छोडें !
कोई प्रसंग हो जाने पर कभी-कभी हम उस साधक से बात करना छोड देते हैं । ऐसा करने से न तो साधना होती है, और न ही हमारी प्रगति । उस साधक से बात करना छोड नहीं देना है, अपितु नित्य की भांति बात करते रहना है । यदि हम साधना में नहीं होते और समाज में रहकर नौकरी-चाकरी करते, तो अनेक लोग हमसे भला-बुरा कहते । सगे-संबंधी, पडोसी अथवा सहपाठी, सभी के साथ कहा-सुनी तो होती ही । फिर भी हम उनसे बात करते ही हैं । उनके घर जाते हैं । उसी प्रकार साधकों से भी बात करते रहना है ।
३ ऊ. सेवा की अवधि बढाएं
सेवा के लिए समय देकर सेवा की अवधि बढाएं ।
३ ए. ईश्वर से बातें करना
यदि कोई अप्रिय घटना हो भी जाए, तो ईश्वर को बता दें । ईश्वर की भक्ति करें और अपनी सेवा में मन लगाएं ।
३ ऐ. मन के स्तर पर स्वयं का निरीक्षण करें
मन के स्तर पर स्वयं का निरीक्षण करें और संघर्षपूर्ण स्थिति से बाहर निकलने के लिए किए प्रयास आगे अपने उत्तरदायी साधक को बताएं ।
३ ओ. अनदेखी करना
कुछ बातों को छोड देना और उनकी अनदेखी करना सीखें ।
३ औ. स्वसूचना लेेना
१. किसी से भय लगता हो, तो पहले मन पक्का करने का प्रयास करें । इसके लिए स्वसूचनाएं लें । इससे प्रसंग के उपरांत मन पर होनेवाले परिणाम से बुरा नहीं लगेगा ।
२. कौन-से विचार बडी अनिष्ट शक्तियां देती हैं, इसका अध्ययन करें । उनसे उबरने के लिए स्वसूचना लें और दूसरों की सहायता लें । साथ ही आध्यात्मिक उपाय करें ।
३. बहुत स्वसूचनाएं लेकर भी यदि परिवर्तन न हो रहा हो, तो मन:पूर्वक अपने दोषों को स्वीकार लें, आत्मनिवेदन करें और ईश्वर को बताएं ।
४. किसी प्रसंग में जब चिंता होती है, तब हमारी श्रद्धा डगमगा जाती है । ऐसे में स्वसूचनाएं लेना तथा स्वभावदोष एवं अहं-निर्मूलन प्रकिया करने से दोष घटने में सहायता होती है । इससे आध्यात्मिक कष्ट भी घटता जाता है ।
३ अं. शरणागति
‘भीतर से खेद नहीं होता अथवा कुछ सूझता नहीं ’ ऐसा होने पर शरणागति के लिए प्रयास करें और प्रायश्चित लें । प्रायश्चित लेने पर दोष नष्ट होने में सहायता होती है ।
३ क. दूसरे के मन का हम नहीं जान सकते । इसलिए उस पर विचार न करें ।
३ ख. अपने केमन प्रति कठोर बने
अपने मन को सहलाना नहीं है, अपितु उसके प्रति कठोर बनना है । मन को अनुशासित करने से ही उसमें परिवर्तन होगा ।’