पुरातन वास्तु द्वारा भारत को प्राप्त वैभवसंपन्न इतिहास की देन !
जलगांव शहर से २७ कि.मी. के अंतर पर एरंडोल तालुका का यह गांव है । यह गांव महाभारतकालीन एकचक्रनगरी है । एरंडोल का प्राचीन नाम एरणवेल अथवा अरुणावती था । वह अंजनी नदी के तट पर बसा था । महाभारत के पहले जब पांडव अज्ञातवास में थे, तब उन्होंने इसी एकचक्रनगरी में निवास किया था । वे जिस बाडे में रहे थे, उसे पांडववाडा कहते हैं । आज भी एरंडोल में ऐतिहासिक वास्तु के रूप में पांडववाडा प्रसिद्ध है । एरंडोल से १५ किलोमीटर पर स्थित पद्मालय में जाकर भीम ने बकासुर का वध किया । आज भी पद्मालय से डेढ किलोमीटर पर भीमकुंड, भीम की चक्की तथा भीम – बकासुर में हुए युद्ध के निशान देखने मिलते हैं । एरंडोल में भीमा का कटोरा अब भी दिखाई देता है । वाडे के समीप के कुएं को द्रौपदीकूप कहते हैं । अनेक पर्यटक महाभारतकालीन पांडववाडा और पद्मालय देखने जाते हैं । इस महाभारतकालीन पांडववाडा का शासकीय गैजेट में (राजपत्र में) ‘पांडववाडा’ उल्लेख है । कुछ वर्षों पूर्व विद्यालय के अभ्यासक्रम में भी इस पांडववाडे का समावेश था । इसलिए तब विद्यालयों की टोली ‘पिकनिक’ के निमित्त पांडववाडा देखने आती थी ।
पांडववाडा की वास्तु का क्षेत्रफल ४५१५.९ चौरस मीटर है । कुछ समय पूर्व ही पांडववाडा के प्रवेशद्वार के पत्थर पर प्राचीनकालीन नक्काशी उकेरी गई है । इसमें कमलफूलों की नक्काशी स्पष्ट दिखाई देती है । वाडे के समीप ही धर्मशाला है । ऐसा केवल हिन्दू मंदिरों के निकट ही पाया जाता है । वाडे में प्रवेेश करने पर दोनों ओर खुली जगह है । वहां की दीवारों पर अनेक खिडकियां हैं । इन प्राचीन खिडकियों पर समई (बडे दीपक) और कमल के आकार की नक्काशी है । वाडे के अंत में मंदिर के समान गर्भगृह है । उसके अंत में मूर्ति रखने की जगह है, जो हिन्दू वास्तुरचना के अनुसार है ।