खंडन करनेका उद्देश्य
विश्वके आरंभसे ही भूतलपर विद्यमान सनातन वैदिक धर्म (हिंदु धर्म), हिंदू धर्मग्रंथ, देवता, धार्मिक विधी, अध्यात्म आदि विषयोंपर अनेक व्यक्तियोंद्वारा आलोचना की जाती हैं । कुछ व्यक्तियोंको वह आलोचना सत्य प्रतीत होती है, तो अधिकांश व्यक्तियोंके ध्यानमें यह भी आता है कि, ‘यह आलोचना विषैली हैं’; किंतु उसका, खंडन करना असंभव होता हैं । कुछ विद्वान अथवा अभ्यासकों द्वारा भी अज्ञानके कारण अनुचित विचार प्रस्तुत किए जाते हैं ।
इस प्रकार सभी अनुचित विचार तथा आलोचना का उचित प्रतिवाद न होनेके कारण हिंदुओंकी श्रद्धा विचलित होती हैं तथा उसके कारण धर्महानि होती है । इस धर्महानिको रोकने हेतु हिंदुओंको बौद्धिक सामर्थ्य प्राप्त हो, इसी उद्देश्यसे यहा; अनुचित विचार एवं आलोचना के खंडन संबंधी विषयका विस्तृत विवेचन किया हैं ।
१. कहते हैं, श्राद्धविधी ब्राह्मणोंके उदर-भरण हेतु निर्माण किया गया षडयंत्र है !
आलोचना
श्राद्ध ब्राह्मणोंद्वारा अपने स्वार्थ हेतु किया गया षडयंत्र है । इसके माध्यमसे ब्राह्मणोंद्वारा अपने उदर-भरणका प्रबंध किया गया है।
खंडन
अ. कई लक्ष वर्षोंसे श्राद्धविधि किए जाना
लाखो वर्षोंसे आजतक समस्त हिंदुस्थानके गांव-गांवमें, घर-घरमें, प्रत्येक स्थानपर श्राद्ध किया जाता है । उसका अनुसरण किया जाता है । एक विख्यात वचन यह है कि, ‘आप सबको निरंतर मूर्ख नहीं बना सकते ।’ (You can’t fool all the people all the time !) यदि इसके अनुसार श्राद्धविधि ब्राह्मणोंका षडयंत्र होता, तो क्या समाजको इतने वर्षतक धोखा देना संभव होता ? आज भी गया, त्र्यंबकेश्वर, रामटेक, प्रयाग आदि पवित्र स्थलोंपर श्राद्धकर्म किया जाता है ।
आ. कलियुगमें धनका व्यय अकारण करनेवालोंको अपने पितरोंके लिए ब्राह्मणको भोजन देना अनुचित प्रतीत होना
कलियुगके कारण ही लोगोंकी वृत्ति अधिकांश स्वार्थी बन गई है । स्वयं अपने मित्र-परिवारोंके लिए मद्यपानके कार्यक्रम आयोजित करते हैं और उसके लिए रात-दिन निरर्थक धन एकत्रित करते रहते हैं । उसमें ही आनंद मानते हैं; वास्तवमें अपने माता-पिताकी जीवनभर सेवा करनेके पश्चात् भी उनके ऋणसे मुक्ति नहीं मिलती है , कितनी आश्चर्यकी बात है कि ; उनकी मृत्युके पश्चात् उनके ऋणसे मुक्त होनेके लिए शास्त्रविधिनुसार केवल एक ब्राह्मणको (वह ब्राह्मण उन पितरोंका प्रतिनिधीके रूपमें होता है ) भोजन देना भी इनके लिए असंभव होता है । मनुष्य चाहे जितना धनवान हो, प्रमुख श्राद्धविधिके समय देवताके लिए एक तथा पितरोंके लिए एक इस प्रकार केवल दो ही ब्राह्मणोंको आमंत्रित करना आवश्यक होता है । अधिकसे अधिक पांच ब्राह्मणोंको आमंत्रित कर सकते हैं ।
इ. अतिथिको भोजन प्रदान करना
‘श्राद्धके समय उपस्थित अतिथिको भोजन प्रदान करना, इसका अर्थ है पितरोंको संतुष्ट करना; क्योंकि पुराणमें बताया गया है कि, योगी, सिद्धपुरुष तथा देवता पृथ्वीपर श्राद्धविधि देखने हेतु संचार करते हैं ।’ (अतः कहा जाता है कि, ‘अतिथी देवो भव।’)
ई. जिनके लिए श्राद्ध करना असंभव है, ऐसे निर्धन व्यक्तिके लिए भी शास्त्रद्वारा सुलभ पर्याय मार्ग सुझाना
यदि श्राद्धविधि करनेमें पूर्णतया असमर्थ व्यक्ति निर्मनुष्य वनमें जाकर तथा हाथ ऊपर ऊठाकर ऊंची आवाजमें भावपूर्ण निवेदन करें कि, ‘मैं निर्धन हूं एवं अन्नविरहित हूं । मुझे पितृऋणसे मुक्त करें ।’ केवल इतना कहनेसे भी उसे श्राद्ध करनेका पुण्य प्राप्त होता है ।
उ. प्राप्त दयनीय परिस्थितिमें दक्षिण दिशाकी ओर मुंह मोडकर रोना, यह भी श्राद्धविधि ही है ।
इसको समझनेके उपरांत भी क्या ‘श्राद्धविधि’ ब्राह्मणोंद्वारा उदर-भरण हेतु की गई कूटनीति माना जा सकता है ?’
(इस संबंधी अधिक विवेचन सनातनके ‘श्राद्ध (महत्त्व तथा शास्त्रीय विवेचन)’ नामक ग्रंथमें किया गया है ।)
२. कहते हैं, श्राद्ध-तर्पण करना असभ्यता तथा फूहडपनका लक्षण है,
उसकी अपेक्षा दान करना अथवा सामाजिक संस्थाओंको अर्पण देना अधिक उचित होगा !
आलोचना
श्राद्धविधि करना फूहडपनका लक्षण है । मातृ-पितृतिथिको उनका छायाचित्र लगाकर फूल अर्पण कर धूप-दीप लगाना, साथ ही उस अवसरके निमित्त किसी सामाजिक संस्था, अनाथालयको धान्य आदि अर्पण करना , ही उचित है ।
खंडन
अ. श्राद्धविधि शास्त्रोक्त पद्धतिसे मंत्रोंच्चारणके साथ पूरी श्रद्धासे की जानेपर पितरोंका प्रसन्न होना
श्राद्धविधिका अर्थ केवल दानधर्म करना, इस प्रकारकी समझकी उस उक्तिके अनुसार है ,‘ रोग एक तथा उपाय अन्य!’(बरगदकी छाल पिपलको )। श्राद्धविधिका अर्थ है, शास्त्रोक्त पद्धतीद्वारा मंत्रके साथ पूरी श्रद्धासे की गई विधि । श्राद्ध करनेके स्थानपर केवल भावनाके अधीन होकर किए गए दानसे पितर प्रसन्न नहीं होते; क्योंकि उस दानसे होनेवाले फलकी प्राप्ति पितरोंको नहीं होती ।
आ. श्राद्धविधि न करनेसे अतृप्त पितरोंद्वारा रक्त प्राशन किया जाना तथा शारीरिक दोष उत्पन्न होकर उसका परिणाम संततिपर होना
‘अर्तिपताः पितरः रुधिरं पिबन्ति ।’ इसका अर्थ है, ‘जिनका श्राद्ध नहीं किया जाता, वे अतृप्त पितर श्राद्ध न करनेवालोंका रक्त प्राशन करते हैं ।’ रक्तकी अधिष्ठात्री देवता पितर हैं । शास्त्रके अनुसार श्राद्धादि विधि न की जानेसे, वे रक्तमें अतिसूक्ष्म दोष उत्पन्न करते हैं । रक्तदोषके कारण वीर्यमें दुर्बलता आनेके कारण संतति, दुर्बल अपंग एवं विभिन्न रोंगोंसे ग्रस्त होती हैं ।
इ. श्राद्धादि शास्त्रविधियोंद्वारा मृत पितरोंको शक्ति प्राप्त होना
पितरोंके वायुरूप सूक्ष्मदेहमें श्राद्धादि शास्त्रविधियोंद्वारा शक्ति प्राप्त होती है । मृत्युके पश्चात् अन्य देह (यातनादेह) धारण कर । जीव परलोकमें गमन करता है । वह शवरूप, अशरीरी होता है । इसका अर्थ है, वह देहविरहित रहता है । उसे नए देहकी- प्राप्ति लिए श्राद्ध एवं और्ध्वऐहिक क्रिया आवश्यक है ।’
इससे यह बात ध्यानमें आई होगी कि, श्राद्धविधि करनेकी अपेक्षा केवल दानधर्म करना अनुचित है!
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (‘घनगर्जित’, दिसंबर २००८ तथा जनवरी २००९)
३. कहते हैं, श्राद्धका अर्थ है, जीवित पिता, पितामह प्रभृतियोंका आदर करना !
आलोचना
‘जीवित पिता, लौकिक पितामह, प्रपितामह आदि प्रभृतियोंका आदर करना ही श्राद्ध है ।.’ – दयानंद स्वामी, संस्थापक, आर्य समाज
खंडन
अ. श्राद्ध केवल मृत व्यक्तिका ही किया जाना
जीवित पिता, पितामहोंका आदर अर्थात् श्राद्ध, इस कथनके विषयमें स्वामी दयानंद मनुके जिन श्लोकोंका संदर्भ देते हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि, जीवित पिताका श्राद्ध होना असंभव है क्योंकि केवल मृत व्यक्तिका ही किया जाता है ।
आ. श्राद्धविधि करनेसे होनेवाले लाभ
पृथ्वीपर (दक्षिण दिशामें भूमि कुरेदकर वहां दर्भ फैलाकर तीन पिंड रखना) त्रिपिंडी दान करनेसे, नरकास्थित पितरोंका उद्धार होता है । पुत्रद्वारा पिताका श्राद्ध प्रयत्नपूर्वक तथा श्रद्धासे किया जाए । उसका नाम तथा गोत्रका विधिवत उच्चारण कर पिंडदानादि करनेके कारण उन्हें हव्य-कव्यकी प्राप्ति होती हैं । इससे स्वाभाविकरूपसे उनकी अतृप्त इच्छाओंकी तृप्ति होने कारण वे मृतात्मा उस परिवारको कष्ट नहीं पहुंचाते । इतना ही नहीं, तो उन्हें गति प्राप्त होकर वे आगेके लोकमें जाते हैं । प्रयोगद्वारा यह सिद्ध हुआ है कि, ‘श्राद्ध करनेसे उसका परिणाम अच्छा होता है।’
इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि, आर्यसमाजके दयानंद एवं पुरोगामी विचारोंके लोगोंका उपर्युक्त विधान अनुचित है । क्योंकि ऐसा होता, तो श्राद्धके संदर्भमें बताए गए विधी-विधानोंकी आवश्यकता ही नहीं होती ?’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, दिसंबर २००८ तथा जनवरी २००९)