उत्सव अर्थात चराचर में व्याप्त चैतन्य वृद्धिंगत कर उसे ग्रहण करने का मानव को मिला अवसर !

‘धार्मिक समारोह मनानेवाले और उसमें सहभागी होनेवाले, इन दोनों को जिससे आनंद और चैतन्य की अनुभूति होती है, उसे उत्सव कहते हैं । हिन्दू धर्म में अनेक उत्सव हैं । ईश्‍वरीय नियोजन के अनुसार इन उत्सवों के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति इनमें विद्यमान चैतन्य द्वारा भौतिक जीवन में आनंद अनुभव कर सके, यह इनका महत्त्व है । उत्सव को भावपूर्ण मनाने पर ही उनका आनंद ले सकते हैं । इस हेतु आजकल के उत्सवों का स्वरूप और प्रत्येक को उन उत्सवों को किस दृष्टि से देखना चाहिए, इसके लिए प्रस्तुत है यह लेख !

 

१. आजकल के उत्सवों को प्राप्त हुआ विकृत स्वरूप !

हिन्दुओं द्वारा धर्माचरण न किए जाने से आजकल के हिन्दुओं के उत्सव चैतन्य बढानेवाले नहीं; रज-तम के आवरण की वृद्धि करनेवाले बन गए हैं । गणेशोत्सव का ही उदाहरण लें, तो श्री गणेशजी की मूर्ति से लेकर उसकी सजावट, गाने तक सभी में ही विकृति आ गई है । पटाखे फोडने से आनंद-सा होता है; किन्तु वह विकृत आनंद होता है । पटाखे फोडने से कितनी मात्रा में हानि होती है, इसका हम अनुभव कर ही रहे हैं ।

उसका वातावरण पर परिणाम होकर रज-तम का प्रभाव बढकर वातावरण भी प्रदूषित होता है । मनोरंजन के लिए अश्‍लील कार्यक्रमों का आयोजन करना, जुआ खेलना, चलचित्र के (फिल्मी) गीतों की धुनों पर आरती गाना आदि से वातावरण प्रदूषित होकर देवी-देवताओं का अनादर होता है । ‘इसे बुद्धि द्वारा जानकर और उसका अनुभव करके भी हम पटाखे फोडकर तथा देवी-देवताओं का अनादर कर, ऐसा विकृत आनंद क्यों लेते हैं?’ इसका अचरज होता है ।

गिनी-चुनी सार्वजनिक गणेशोत्सव समितियां ही आदर्श गणेशोत्सव मनाने की ओर ध्यान देती हैं, अन्यथा आजकल अधिकतर सार्वजनिक गणेशोत्सव समितियां यूरोपीय पद्धति के अनुसार केवल मनोरंजन के उद्देश्य से उत्सव मनाती हैं । उसके अनुसार ही उनसे आचरण भी होता है । उत्सवों को मनोरंजन के रूप में मनाने से श्री गणेश भगवान का अनादर होता है । उसे करनेवाला और उसे देखनेवाला, इन दोनों को ही आध्यात्मिक स्तर पर लाभ नहीं मिलता, उलटे पाप ही लगता है । इसके लिए उत्सवों के विषय में उचित दृष्टिकोण जानकर, उसका आधारभूत अध्यात्मशास्त्र समझ लेना चाहिए । उसके अनुसार आचरण करने से ही उत्सवों से उचित लाभ होगा ।

 

२. उत्सवकाल में संबंधित देवता का तत्त्व
वातावरण में अधिक सक्रिय रहने का शास्त्र ध्यान
में लेकर प्रत्येक को उत्सव को उस दृष्टि से देखना आवश्यक !

ईश्‍वरीय नियोजन के अनुसार प्रत्येक को समयविशेष के अनुसार देवता का तत्त्व प्राप्त हो, इसके लिए हिन्दू धर्म में उत्सवों का प्रबंध किया गया है । गणेशोत्सव, हनुमानजयंती, रामनवमी इत्यादि उत्सवों पर संबंधित देवता का तत्त्व वातावरण में अधिक सक्रिय रहता है । इसलिए उत्सव के दिन संबंधित देवता की उपासना करने पर, वह तत्त्व उपासना करनेवाले को प्राप्त होता है । इस शास्त्र को ध्यान में लेकर, प्रत्येक को उत्सवों को उस दृष्टि से देखना आवश्यक है । ऐसे उत्सवों से प्राप्त चैतन्य से, जीवन आनंदमय बनता है और पारमार्थिक जीवन सफल होता है ।

 

३. पूजा का उद्देश्य

पूजा का उद्देश्य ही है पूजनीय चैतन्यदायी वस्तु को संजोना, उसकी रक्षा करना, अर्थात उस पर पडा आवरण हटाकर, उसका चैतन्य प्रकट करना । चैतन्य सर्वत्र कूट-कूट कर भरा हुआ है । चैतन्य के कारण ही आनंद मिलता है । चैतन्य को प्रकट करने के लिए, उस पर आया आवरण ही निकालना होता है । उस पर आया आवरण हटाकर, चैतन्य का लाभ लेना ही सच्ची पूजा है ।

३ अ. ‘पूजा करनेवाले में विद्यमान ईश्‍वरीय चैतन्य और मूर्ति
का चैतन्य एक-दूसरे से समरस हो, परस्पर चैतन्य की वृद्धि कर उस
चैतन्य को वातरवरण में सर्वत्र प्रक्षेपित करना’ यह पूजा का उद्देश्य होना

उत्सव के समय श्री गणेशजी की पूजा करते समय हमें अपना अस्तित्व भूल जाना चाहिए । ‘चैतन्य ही चैतन्य की पूजा कर रहा है’ ऐसा होना चाहिए । पूजा करते समय हम अपने अल्प भाव के कारण स्वयं को और श्री गणेशजी को भिन्न मानते हैं; किन्तु प्रत्यक्ष में हममें से प्रत्येक में ईश्‍वरीय चैतन्य है । उस ईश्‍वरीय चैतन्य द्वारा ही सामने की मूर्ति के चैतन्य से समरस होकर, उसके चैतन्य की वृद्धि कर, सर्वत्र वातावरण में प्रस्तुत करना यह उद्देश्य है ।

३ आ. चैतन्य की सच्ची पूजा क्या होती है ?

अपना भाव प्रकट कर, उस चैतन्य से समरस होने के लिए अभिषेक करना, बेल और पुष्प चढाना, तिलक लगाना, माला पहनाना, सजाना आदि साधन बताए गए हैं । इनके द्वारा उसे कुशलता से सुशोभित कर उसके चैतन्य को निखारकर, उसका आनंद लेना ही चैतन्य की सच्ची पूजा है । कुछ स्थानों पर सत्य परिस्थिति के अनुरूप प्रबोधनकारी सजावट की जाती है, इसका परिणाम देखनेवाले पर होता है, उसमें भी भाव जागृथ होकर, उसे भी आनंद मिलता है ।

३ इ. दैनिक जीवन में भावपूर्ण सजावट कर, उसका आनंद लेते रहना ही जीवन का उद्देश्य है !

उत्सव की समयावधि में विभिन्न प्रकार का सुशोभन, सजावट करके आनंद मनाने की रीत है । यह सजावट अर्थात ईश्‍वर द्वारा निर्मित किए चैतन्यमय उपकरणों द्वारा सुशोभीकरण कर उसका आनंद लेना ही जीवन का उद्देश्य है । इस प्रकार भावपूर्ण होकर दैनिक जीवन को सजाना और उसके माध्यम से आनंद लेते रहना ही जीवन का उद्देश्य है ।

३ ई. प्रतिदिन की जानेवाली पूजा, व्यष्टि साधना है !

प्रतिदिन हम देवता की पूजा करते हैं । प्रतिदिन की पूजा व्यष्टि साधना के रूप में होती है । जब वही पूजा वातावरण की शुद्धि के लिए सार्वजनिक रूप से की जाती है, तब वह उत्सव होता है । लोकमान्य टिळकजी ने गणेशोत्सव का आरंभ इसीलिए किया था कि लोगों में जागृति होकर, उनकी चैतन्यशक्ति जागृत हो और उस माध्यम से दुष्ट शक्ति का निर्मूलन हो । सनातन धर्म के अनुसार कार्य होकर सभी को आनंद मिले । गणेशजी बुद्धि के देवता और विघ्नहर्ता होने से उन्हें प्रसन्न करने के लिए ऐसे उत्सवों से साधना होगी और कार्य सफल होता है ।

३ उ. उत्सव के माध्यम से चैतन्य की वृद्धि होना अपेक्षित है; किन्तु आजकल
‘चैतन्य की पूजा कर रहे हैं’ ऐसा भाव न रहने से सर्वत्र रज-तम की वृद्धि हो रही है ।

 

४. उत्सवकाल में कैसा भाव होना चाहिए ?

४ अ. दैनिक जीवन में देवी-देवताओं की पूजा करते
समय उनकी दैवीय शक्ति का ध्यान रखकर उनकी पूजा करें !

हम दैनिक जीवन में देवी-देवताओं की पूजा करते समय चित्र अथवा मूर्ति की पूजा करते हैं । उस समय हम चित्र के कागद अथवा मूर्ति के धातु की ओर नहीं; उसकी दैवी शक्ति की पूजा करते हैं । इस कारण हमें उससे आध्यात्मिक स्तर पर लाभ होता है । उत्सव के समय भी ऐसे ही भाव से मूर्ति की पूजा करके वातावरण निर्मित करना चाहिए ।

४ आ. उत्सव के समय ऐसा भाव रखें कि
‘श्रीगणेशजी की मूर्ति में विद्यमान चैतन्यशक्ति की पूजा कर रहे हैं !’

गणेशोत्सव में हम श्रीगणेशजी की मूर्ति लाकर, उसकी प्राणप्रतिष्ठापना करते हैं । पूजा करते समय मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा करने से मूर्ति में विद्यमान श्रीगणेशजी की चैतन्यशक्ति बढती है; इसलिए मूर्ति की पूजा करते समय ‘प्रत्यक्ष श्रीगणेशजी की पूजा कर रहे हैं’ ऐसा भाव हमें रखना चाहिए । गणेशमूर्ति की पूजा करते समय यदि हम ऐसा भाव रखेंगे कि हम ‘मूर्ति में विद्यमान चैतन्यशक्ति की पूजा कर रहे हैं, तो हमें चैतन्यशक्ति का लाभ होगा और हमारी चैतन्य शक्ति भी बढेगी ।

श्रीगणेशोत्सव की समयावधि में ऐसा भाव हममें निर्मित हो, इस ओर हम सभी को ध्यान देना चाहिए ।

 

५. उत्सव की प्रत्येक कृति एक प्रकार से चैतन्यवृद्धि का प्रयोग ही है !

यह भाव सदैव मन में रखने से हमारी प्रतिदिन की कृतियां भी उसी भाव से होती रहेंगी । इसलिए उत्सव की कृति एक प्रकार से चैतन्यवृद्धि का प्रयोग ही है । यह समझ लेने के पश्‍चात उत्सवों के समय वैसी कृति करने से हमारा जीवन स्थायीरूप से चैतन्यमय होकर आनंदपूर्वक व्यतीत होगा ।

 

६. उत्सव की समयावधि में चैतन्यमय वातावरण की
निर्मिति करनेवाले कार्यक्रमों का आयोजन होना आवश्यक !

उसी रीति से इन दिनों में भजन, कीर्तन, भागवतवाचन, प्रवचन आदि का आयोजन करने से वातावरण चैतन्यमय होगा और सभी उसका आनंद ले सकेंगे ।

 

७. उत्सव की समाप्ति पर श्रीगणेशमूर्ति का
विसर्जन बहते जल में करने का आधारभूत शास्त्र

उत्सवकाल में भावपूर्वक पूजन होने से मूर्ति के भीतर का चैतन्य बढा रहता है । उत्सव की समाप्ति पर चिकनी मिट्टी (‘शाडू’ मिट्टी) से बनी श्रीगणेशमूर्ति का विसर्जन किया जाता है । मूर्ति में विद्यमान चैतन्य का लाभ पूरी समष्टि को होने के लिए उसे बहते जल में विसर्जित किया जाता है । इस प्रकार से चैतन्यमय जल जहां-जहां पहुंचता है, वहां-वहां उससे लाभ होता है । इससे वह परिसर शुद्ध होता है ।

 

८. स्वभावदोष और अहं-निर्मूलन होने के लिए चैतन्यवृद्धि
की आवश्यकता होकर इस चैतन्यवृद्धि के लिए उत्सव का होना

हम पानी गरम करने के लिए उसे बर्तन में लेकर गरम करते हैं । इस क्रिया में पानी बर्तन के कारण नहीं , अपितु उसे दी गई ऊष्णता के कारण गरम होता है । अर्थात पानी को गरम करने का कार्य अग्नि करती है । यहां ‘ऊष्णता के कारण पानी गरम होता है’ इसे हम भूल जाते हैं ।

उसी प्रकार प्रत्येक स्थान पर यह चैतन्यशक्ति ही कार्य करती है, बहिर्मुखता के कारण हम इस ओर ध्यान नहीं देते । इस बहिर्मुखता के कारण ही विभिन्न स्वरूपों में उस मूर्ति को बनाकर आनंद लेते हैं । पर इससे चैतन्य नहीं मिलता, उलटे अनादर होकर पाप लगता है । इसलिए मूर्ति सात्त्विक और उसमें चैतन्य रहनेवाली हो, तो ही उससे लाभ होता है । इस प्रकार की मूर्ति का निर्माण सनातन संस्था ने किया है ।

इस अयोग्य मनोवृत्ति में परिवर्तन के लिए, अर्थात अपने स्वभावदोष और अहं के निर्मूलन के लिए ऐसी चैतन्यवृद्धि की आवश्यकता रहती है; उत्सव इसीलिए होते हैं । स्वभावदोष और अहं का निर्मूलन करने के लिए साधना के अतिरिक्त अन्य पर्याय नहीं है । साधना गुरुकृपा से ही हो सकती है; इसलिए ‘गुरुकृपायोग’ का महत्त्व है ।

 

९. ‘वास्तविक सुशोभिकरण चैतन्य का ही
होता है’, यह सत्य जान लेने से जो आनंद ले सकेंगे
वह आनंद अद्वितीय होकर उसका अनुभव करना ही जीवन है !

कोई नारी वस्त्र और आभूषण पहनकर सुशोभित होती है । उस समय ‘मैंने स्वयं को सुशोभित किया है’ ऐसा न सोचकर यदि वह यह सोचे कि ‘स्वयं में विद्यमान चैतन्य को सजाया है’ तो अलग आनंद आएगा; क्योंकि हम चैतन्यशक्ति के कारण ही जीवित हैं । इसलिए ‘वास्तविक सजना चैतन्य का ही होता है’ यह सत्य जानने से जो आनंद ले सकेंगे वह आनंद अद्वितीय होगा । इसका अनुभव करना, यही जीवन है । साथ ही हमारा अंहकार नष्ट होकर हम सच्चा आनंद ले सकेंगे ।

 

१०. आजकल के सौंदर्यवर्धनालय (ब्यूटी पार्लर) और
साधना कर प्रज्वलित हुए चैतन्य में भेद समझना आवश्यक

आजकल प्रत्येक नारी को लगता है कि ‘मैं सुंदर दिखूं ।’ इसके लिए सौंदर्यवर्धनालय में जाकर मुख पर सौंदर्यवर्धक उपकरण का प्रयोग कर लेप लगाना आदि कई प्रकार के प्रयोग कर स्वयं को सुंदर दिखाने के लिए धन का व्यय किया जाता है । यह सब करने से कुछ समय के लिए ऐसे लगता है कि ‘अच्छे दिख रहे हैं’; किन्तु सौंदर्यवर्धक रासायनिक द्रव्यों का त्वचा पर अति घातक दूरगामी परिणाम होता है ।

इससे विविध व्याधियां होकर अपनी ही हानि होती है । इसके विपरीत, साधना करने से हमारे शरीर में विद्यमान चैतन्य पर पडा रज-तम का आवरण नष्ट होकर चैतन्यशक्ति बढती है । इस चैतन्यशक्ति के कारण स्वभावदोष और अहं का निर्मूलन सहजता से होता है । इससे मन आनंदी होता है । चैतन्य और आनंद का परिणाम मुखमंडल पर तेज के रूप में प्रकट होता है । इससे निर्मित सौंदर्य आकर्षक होकर आनंददायक होता है; साथ ही त्वचा पर कोई भी दुष्परिणाम नहीं होते । ऐसा सौंदर्य स्थायी रहता है ।

 

११. जीवन में खरा सत्य जानने के लिए गुरु की आवश्यकता होना

इस प्रकार से ‘जड में भी चैतन्य कैसे कार्य करता है’ इसका उत्सवों के द्वारा अनुभव करना चाहिए, क्योंकि चराचर में चैतन्य ही व्याप्त है । उसके बिना कुछ है ही नहीं; किन्तु हमारे अज्ञान के कारण भ्रम हो जाता है और हम सत्य से विमुख हो जाते हैं । इसलिए जीवन का सच्चा सत्य जानने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है ।

आज बडे सौभाग्य से हमारे जीवन में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी आए हैं । सनातन संस्था के माध्यम से गुरुकृपायोग द्वारा उन्होंने हमें ‘अष्टांगयोग’ साधना बताई है । उसके द्वारा साधना करने से हमारे स्वभावदोष और अहं का निर्मूलन होकर चैतन्यवृद्धि होगी । चैतन्यवृद्धि के कारण सद्बुद्धि निर्मित होकर हम सत्य जान सकेंगे और हमारी प्रत्येक कृति ‘योगः कर्मसु कौशलम् ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ५०) अर्थात ‘प्रत्येक कर्म अच्छे से करने का अर्थ है योग साधना ।’

योग ही कर्मबंधन से छूटने का उपाय है, इसलिए ऐसा करने पर जन्म सार्थक होगा । इतना ही नहीं, अपितु हमसे सनातन धर्मशास्त्र के अनुसार होनेवाले उत्सव आदि कार्यक्रम चैतन्यदायक होकर हमारे लिए ही नहीं, अपितु सभी के लिए आनंददायक होंगे और वातावरण भी शुद्ध होगा । इससे व्यष्टि और समष्टि साधना होकर भौतिक और पारमार्थिक कल्याण होता है ।’

– प.पू. परशराम पांडे, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

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