समर्थ रामदास स्वामी का जन्म अप्रैल, ई.स. १६०८ में रामनवमी को महाराष्ट्र के जालना जनपद के जांब नामक गांव में हुआ था । ई.स. १६८२ में उन्होंने देहत्याग किया । समर्थ रामदास स्वामी का मूल नाम ‘नारायण कुलकर्णी’ तथा पिता का नाम सूर्याजीपंत कुलकर्णी था । समर्थ रामदास स्वामी के उपास्य देवता श्रीराम और हनुमान थे । इन्होंने परमार्थ, स्वधर्मनिष्ठा और राष्ट्रप्रेम का प्रसार पूरे महाराष्ट्र में कर, समाज को संगठित करने का प्रयास किया था । वे छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु भी थे ।
समर्थ रामदास स्वामी ने अनेक समाज प्रबोधनात्मक लेखन किए हैं । इनकी कुछ प्रमुख रचनाएं दासबोध, श्रीराम स्तुति, हनुमान स्तुति, मनका श्लोक, करुणाष्टक, मारुति स्तोत्र हैं ।
समर्थ रामदास स्वामी ने ग्रंथ दासबोध का लेखन उनके शिष्य कल्याण स्वामी ने किया था । यह लेखनकार्य रायगढ जनपद के गांव शिवथर घळ में हुआ था । दासबोध ग्रंथ दस-दस समासों (वचनसंग्रहों) के २० दशकों (अध्यायों) में विभाजित है । दासबोध का प्रत्येक समास ऐसा लगता है, जैसे वह प्रत्येक मनुष्यजन्म के अनुभवों की गठरी हो, इतना उसमें जीवनसंदेश ओतप्रोत भरा है ।
समर्थ रामदास स्वामी ने दासबोध का वर्णन निम्नांकित प्रकार से किया है –
भक्तांचेनि साभिमानें। कृपा केली दाशरथीनें।
समर्थकृपेचीं वचनें। तो हा दासबोध ॥श्रीराम॥
वीस दशक दासबोध। शवणद्वारें घेतां शोध।
मनकर्त्यास विशद। परमार्थ होतो ॥श्रीराम॥
वीस दशक दोनीसें समास। साधकें पाहावें सावकास।
विवरतां विशेषाविशेष। कळों लागे ॥श्रीराम॥
ग्रंथाचें करावें स्तवन। स्तवनाचें काये प्रयोजन।
येथें प्रत्ययास कारण। प्रत्ययो पाहावा ॥श्रीराम॥
॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥
दशक पहला | स्तवन |
दशक दूसरा | मूर्खलक्षण |
दशक तीसरा | स्वगुणपरीक्षा |
दशक चौथा | नवविधाभक्ति (नवधाभक्ति) |
दशक पांचवां | मंत्र |
दशक छठा | देवशोधन |
दशक सातवां | चौदह ब्रह्म |
दशक आठवां | ज्ञानदशक-मायोद्भव |
दशक नवां | गुणरुप |
दशक दसवां | जगज्जोति |
दशक ग्यारहवां | भीमदशक |
दशक बारहवां | विवेक-वैराग्य |
दशक तेरहवां | नामरूप |
दशक चौदहवां | अखंड ध्यान |
दशक पंद्रहवां | आत्मदशक |
दशक सोलहवां | सप्ततिन्वय |
दशक सत्रहवां | प्रकृति-पुरुष |
दशक अठारहवां | बहुजिनसी |
दशक उन्नीसवां | सीख |
दशक बीसवां | पूर्ण |
संदर्भ : जालस्थल
उस समय की प्रथानुसार दासबोध ग्रंथ की रचना ‘ओवी’ नामक मराठी गेयछंद में की गई है । किंतु, इसे काव्यग्रंथ नहीं कहा जा सकता । मेरी दृष्टि से यह ग्रंथ श्री समर्थ का विविध विषयों पर धाराप्रवाह निबंध लेखन है । चतुर्दश ब्रह्म, विमल ब्रह्म, माया, शुद्ध ज्ञान, सृष्टि विचार, द्वैत कल्पना निरसन, त्रिविध ताप, सत्त्व, रज, तमोगुण विचार, नवधाभक्ति, वैराग्य, गुरु लक्षण, शिष्य लक्षण, विरक्त लक्षण, मूर्ख लक्षण, पढतमूर्ख लक्षण, चातुर्य लक्षण, बद्धमुमुक्षु-साधक-सिद्ध लक्षण, प्रकृति-पुरुष विचार, चत्वार देव (प्रतिमा, अवतार, अंतरात्मा और परमात्मा) निरूपण, विवेक निरूपण, महंत लक्षण, राजनीति, नि:स्पृहता, कथा-कीर्तन, उपासना, आत्माराम, उत्तम पुरुष, जनस्वभाव, बुद्धिवाद, प्रयत्नवाद, लेखनकला आदि विविध विषयों पर गहन तर्क-वितर्क किया गया प्रतीत होता है ।
तत्त्वज्ञान के अनुसार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य, संतसम्राट श्री ज्ञानेश्वर महाराज आदि भागवतधर्मीय संत और श्री समर्थ रामदासस्वामी, इन सबका मत अद्वैत सिद्धांत पर ही आधारित है; अंतर केवल इसे प्रस्तुत करने के ढंग में है । उपर्युक्त सूची में अद्वैत तत्त्वज्ञान और भक्तिमार्गी साधना पद्धति के अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों का समावेश दासबोध में हुआ है और व्यवहार के पहले चरण से परमार्थ के अंतिम चरण तक सब कुछ इसमें है, यह कहना पड रहा है । सारांश यह कि समर्थ ने जितने विषयों पर लेखन किया है, उतने विषयों पर लेखन महर्षि वेदव्यास के अतिरिक्त किसी ने भी नहीं किया है, यह विद्वानों का मत है ।
‘यहां विशद किया है भक्तिमार्ग ॥’ यह समर्थ ने ग्रंथ के आरंभ में ही कहा है । इसलिए, इस ग्रंथ का मुख्य विषय ‘भगवद्भक्ति’ ही है, यह स्पष्ट होता है । समर्थ का स्थायीभाव मुख्यतः ‘दास्यभक्ति’ है । इसलिए, प्रभु रामचंद्र के दास ने अपने शिष्यों को जो उपदेश किया है, वह ‘दासबोध’ शब्द का अर्थ ही बताता है । इसका अर्थ यह भी हुआ, ‘श्रीराम का दास बनाने के लिए भक्तों को किया हुआ उपदेश ।’ यह ग्रंथ और संप्रदाय की भक्ति शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत पर आधारित है तथा ये भागवत की भक्ति प्रक्रिया को सुशोभित करते हैं । इसमें भक्ति का सांसारिक कार्यों से केवल अविरोध नहीं, अपितु उसे ठीक से करने का आग्रह भी है । इतना ही नहीं, उत्कट भक्ति के साथ परमार्थ कैसे साधें, इसका मार्गदर्शन भी इसमें है । सतर्क रहकर सांसारिक कार्य कैसे सफलतापूर्वक करने चाहिए, इससे संबंधित सभी सूत्र इस ग्रंथ में मिलते हैं । सांसारिक कार्य हो अथवा परमार्थ, दोनों क्षेत्रों में समर्थ प्रयत्नवाद के प्रबल समर्थक और भाग्यवाद के विरोधी थे । ‘यत्न तो देव जाणावा’ (प्रयत्न को भगवान जानो), यह कहकर उन्होंने प्रयत्न को परमेश्वर बताया और ‘अचूक प्रयत्न करें’, यह कहकर प्रयत्नवाद का मूलमंत्र भी दिया । विवेक और वैराग्य, समर्थ के विचारों के प्रिय सहयोगी हैं । प्रयत्न, प्रचीति और प्रबोध, इन तीन सूत्रों ने इस ग्रंथ में समग्र मानव जीवन का विज्ञान ही साकार किया है ।’