खंडन करनेका उद्देश्य
विश्वके आरंभसे भूतलपर विद्यमान सनातन वैदिक (हिंदु) धर्म, हिंदुओंके धर्मग्रंथ, देवता, धार्मिक विधियां, अध्यात्म आदिकी अनेक जन आलोचनाएं करते हैं । अनेकोंको यह आलोचना उचित लगती है, जबकि अनेकोंको ‘विषैली’ लगती है । फिर भी, वे इन आलोचनाओंका मुंहतोड उत्तर नहीं दे पाते । कभी-कभी कोई विद्वान अथवा अभ्यासी भी अज्ञानवश अथवा अनजानेमें अनुचित विचार प्रस्तुत करते हैं ।
ऐसे सभी अनुचित विचार और दूषित आलोचनाओंका उचित प्रतिवाद न करनेके कारण हिंदुओंकी धर्मश्रद्धा डगमगा रही है । इससे धर्महानि हो रही है । इस धर्महानिको रोकने हेतु हिंदुओंको बौद्धिक बल प्राप्त होनेके लिए, व्रतोंके संबंधमें अनुचित धारणा और आलोचनाओंका खंडन आगे दे रहे हैं ।
१. कहा जाता है कि वटसावित्री व्रत गंवारपन और असभ्यताका लक्षण है !
ज्येष्ठ पूर्णिमाके दिन नदीके किनारे स्थित एक विशाल वटवृक्षकी जटाके चारों ओर सौ, सवा-सौ स्त्रियां पूजासामग्रीके साथ जुटीं । पुरोहितके पूजा करनेके पश्चात सर्व स्त्रियोंने वटवृक्षको एक-एक कर डोरी लपेटी । वृक्षकी पूजा कर नीरांजन (सकर्णक तथा पंचबातीय दीप) और अगरबत्ती जलाकर उसके सामने फल और दक्षिणा रखी । पुरोहितको दक्षिणा दी । वटसावित्रीका व्रत करनेवाली सर्व स्त्रियां विवाहित थीं ।
आलोचना
प्रत्येक जन्ममें यही व्यक्ति पतिके रूपमें मिले, ऐसी प्रार्थनासे युक्त वटसावित्रीका व्रत अशिक्षितता और असभ्यता है । यह आधुनिक युगसे पूर्णतः विसंगत है । इसे नकार दें’, इस प्रकारकी बातें आधुनिक विचारोंवाले कहते हैं । व्यक्तिगत स्वतंत्रताको श्रेष्ठ माननेवाली आधुनिक स्त्रियोंके कानोंपर वटसावित्री व्रतका नाम पडते ही उनके माथेपर बल पड जाते हैं और मुखमंडल क्रोधसे लाल हो उठते हैं ।
जिज्ञासु : `प्रत्येक जन्ममें यही पति मिले’, ऐसी प्रार्थना करनेवाली स्त्रियां मूढ नहीं हैं क्या ?
गुरुदेव : आंग्लछायामें पली-बढी पुरोगामी (प्रगतिशील) स्त्रियोंको छोड दिया जाए, तो सर्व हिंदु स्त्रियां यह व्रत अवश्य रखती हैं ।
जिज्ञासु : इन स्त्रियोंमें अनेक स्त्रियां ऐसी होंगी कि जिनका पति उनपर अत्याचार करता होगा, उनमें झगडे होते होंगे ।
खंडन
गुरुदेव : क्या आपको वर्षोंसे श्रद्धापूर्वक वटसावित्रीका व्रत रखनेवाली इन स्त्रियोंके अंतःकरणका ज्ञान है ? ‘इस जन्ममें यही पति मेरे प्रारब्धमें है, तो उसका आचरण सुधर जाए और जीवनके दुःख कुछ अल्प हों’, इस विचारसे वे वटसावित्रीका व्रत और प्रार्थना करती होंगी । उनका अनंत जन्मोंपर विश्वास होता है । इसलिए दुःख होनेपर भी वे मानती हैं कि ‘यह मेरे ही पूर्वकर्मोंका फल है और मुझे इसे भोगकर समाप्त करना है । इस धर्माचरणका फल परमात्मा परलोकमें अवश्य ही देंगे । इसलिए स्वाभाविकरूपसे उनमें प्रत्येक परिस्थितिका प्रतिकार करनेकी शक्ति आ जाती है । अपने पतिको छोडकर दूसरा पति अथवा अन्य कुछ मांगनेकी हमारी परंपरा नहीं है । हिंदु विवाहमें ‘समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।’ यह श्लोक कहा जाता है । इसका अर्थ, ‘हमारे संकल्प समान हों । हमारे हृदय एक हों । हमारे मन समान हों और इसलिए हमारे एक-दूसरेके प्रति करने योग्य कर्तव्यकर्म पूर्णतः संगठितरूपसे हों’ । इससे पति-पत्नीमें संकटोंको सहनेकी शक्ति और सबको साथ लेकर चलनेकी वृत्ति निर्मित होती है । उनमें त्याग करनेकी वृत्ति बढती है, यही तो हमारी संस्कृतिका मूल सूत्र है ।
पतिका अत्याचार सहनेवाली स्त्री श्रेष्ठ है कि छोटेसे कारणको लेकर झगडनेवाली और विवाह-विच्छेद कर दूसरे पुरुषसे विवाह करनेवाली स्त्री श्रेष्ठ ?
एक और सूत्र यह है कि स्त्री एक समयमें केवल एक पुरुषको सर्वस्व अर्पिेत कर उसपर एक बार ही प्रेम कर सकती है । पति कैसा भी आचरण करे, उसके ध्यानमें दूसरा पुरुष नहीं आता । सत्य कहना हो, तो दूसरा विवाह करनेवाली स्त्री केवल प्रतिशोधकी भावनासे ऐसा करती है, दूसरे पुरुषसे प्रेमके कारण नहीं ! हिंदू स्त्रीकी सोच, ‘दूसरा पति करनेसे सुख मिलता है’, ऐसी बचकानी और संकीर्ण नहीं होती । दूसरा पति करनेसे क्या दुःखोंका क्षय होता है ? वहां दुःख नए रूपमें आरंभ होते हैं ! आजके युगकी कितनी स्त्रियां एक ही जन्ममें अनेक पति कर सुखी हो पाई हैं ? पत्नी पतिकी देहसे नहीं, अपितु उसके हृदयमें विद्यमान परमेश्वरसे प्रेम करती है । इसलिए वह उसे ‘पतिपरमेश्वर’ कहती है । इसीको पतिव्रता कहते हैं । पतिव्रताके सामर्थ्यकी अनेक कथाएं हैं । सावित्रीने अपने पातिव्रत्यके सामर्थ्यसे यमराजके पाशसे अपने पतिके प्राण मुक्त करा लाई । यह व्रत उस पातिव्रत्यके सामर्थ्यका प्रतीकात्मक पूजन है । आधुनिक विचारप्रणालीकी स्त्रियां इस सामर्थ्यकी कल्पना भी नहीं कर सकतीं ? विवाहमें लिए जानेवाले सात फेरे सात जन्मोंके प्रतीक हैं । ये सात वचन एकनिष्ठा उत्पन्न करने हेतु कहे जाते हैं । इन वचनोंका अर्थ वस्त्रपरिवर्तन करने समान दूसरा पति करनेवाली आधुनिक स्त्रियां कैसे समझ पाएंगी ?’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक `सनातन चिंतन’, १२.६.२००८)
२. व्रत, उपवास इत्यादिके महत्त्वसे अनभिज्ञ रजनीशजी !
आलोचना
‘भूख मारनेसे और बढती है तथा मानव अनुचित पदार्थ, उदा. पुष्प इत्यादि कुछ भी खाता है । एक साधक वनमें रहता था । वह उपवासका व्रत रखता है । उसका मित्र उसे भेंटवस्तु भेजना चाहता है । ‘क्या भेजूं ? उपवास होनेके कारण खानेका पदार्थ कैसे भेजूं ?’, यह प्रश्न उसके सामने होता है । तब, वह पुष्पोंका गुच्छा भेजता है । भूख इतनी तीव्र रहती है कि उपवास करनेवाला वह फूल ही खा जाता है । – रजनीश
खंडन
रजनीशजीने व्रत, उपवासको समाप्त करनेके लिए उसपर कठोर आघात किया है । मेरे एक मित्र गत २० वर्षोंसे अखंड निर्जला एकादशीका व्रत करते हैं । वे कहते हैं, ‘‘मुझे एक दिन पूर्वसे एकादशीके उपवासके विचार आरंभ हो जाते हैं । नियमानुसार मैं दशमीकी रात्रिमें भोजन नहीं करता । व्रतका दिन परम प्रसन्न और परम सुखमें व्यतीत होता है ।’’ जैन लोग एक मास केवल गरम पानी पीकर उपवास करते हैं । नवीन व्रतीको भूखसे कष्ट होता है । किंतु, वह व्रतके दिन यह कष्ट सहजतासे सह सकता है। इसलिए उसे अन्नकी स्मृति भी नहीं होती । ‘व्रतका पालन हो रहा है । प्रभुचरणोंमें वृत्ति लीन हो रही है’, यह धारणा होनेसे प्रसन्नता होती है ।
इसके विपरीत, उपवास न करनेवालेको किसी दिन भोजन न मिले, तो वह दुःखी और चिंताग्रस्त हो जाता है । उसका उत्साह ठंडा पड जाता है । अन्य कार्योंमें भी मन नहीं लगता । दृष्टि और चित्तवृत्ति परिवर्तित होते ही एक ही घटना एक दिन सुख देती है, तो दूसरे दिन दुःख देती है ।
जब कोई व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है, तब उसे लगने लगता है कि वह किसी विषयका अभ्यास किए बिना भी कुछ कहे, तो लोगोंको उसकी बात मान लेनी चाहिए । रजनीश महाशय ऐसा ही कुछ माननेवालोंमेंसे हैं ।’
– गुरुदेव डॉ.काटेस्वामीजी (संदर्भग्रंथ : ‘काय ? संभोगातून समाधी ??’ (मराठी ग्रंथ) (अर्थात ‘क्या ? संभोगसे समाधिकी ओर??´)