१. थाली परोसते समय ‘त्रिसुपर्ण’ पाठ करना
भोजन परोसना आरंभ करनेपर ‘त्रिसुपर्ण’ पाठ आरंभ करें । भोजनके लिए बैठा हुआ व्यक्ति तथा उसके समीप बैठा हुआ व्यक्ति ‘त्रिसुपर्ण’ पाठ कर सकता है। ‘त्रिसुपर्ण’ इस वैदिक सूक्तका पाठ अन्नशुद्धिके लिए किया जाता है । जो ‘त्रिसुपर्ण’का पाठ नहीं कर सकते, वे ‘श्री अन्नपूर्णास्तोत्र’का पाठ कर सकते हैं । वह भी संभव न हो, तो उपास्यदेवताका नामजप करें ।
२. थाली कैसे परोसनी चाहिए ?
२अ. ‘थालीमें ऊपरकी ओर मध्यभागमें लवण (नमक) परोसें ।
२आ. भोजन करनेवालेकी बाईं ओर (लवणके निकट ऊपरसे नीचेकी ओर) क्रमशः नींबू, अचार, नारियल अथवा अन्य चटनी, रायता / शकलाद (सलाद), पापड, पकोडे एवं चपाती परोसें । चपातीपर घी परोसें।
२इ. भोजन करनेवालेकी दाहिनी ओर (लवणके निकट ऊपरसे नीचेकी ओर) क्रमश छाछकी कटोरी, खीर एवं पकवान, दाल एवं तरकारी परोसें ।
२ई. थालीके मध्यभागपर नीचेसे ऊपर सीधी रेखामें क्रमशः दाल-चावल, पुलाव, मीठे चावल एवं अंतमें दही-चावल परोसें । दाल-चावल, पुलाव एवं मीठे चावलपर घी परोसें ।’
– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ६.१.२००५, रात्रि ८.०७)
पात्राधो मंडलं कृत्वा पात्रमध्ये अन्नं वामे भक्ष्यभोज्यं दक्षिणे घृतपायसं पुरतः शाकादीन् (परिवेषयेत्) ।
ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्मसमुच्चय, अन्नसमर्पणविधि |
अर्थ : भूमिपर जलसे मंडल बनाकर उसपर थाली रखें । उस थालीके मध्यभागमें चावल परोसें । भोजन करनेवालेके बाईं ओर चबाकर ग्रहण करनेयोग्य पदार्थ परोसें । दाहिनी ओर घीयुक्त पायस (खीर) परोसें । थालीमें सामने तरकारी, शकलाद (सलाद) आदि पदार्थ होने चाहिए ।
३. भोजन करनेके लिए बैठे व्यक्तिद्वारा किया जानेवाला श्लोकपाठ
भोजन आरंभ करनेसे पूर्व भोजनके लिए बैठे सभी लोग हाथ जोडकर आगे दिए श्लोकोंमेंसे किसी एकका उच्चारण करें ।
अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे । ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ।। |
अर्थ : हे, पार्वती, अन्नपूर्णा माता, सदापूर्ण, शंकरप्रिय पत्नी एवं शक्ति ! हमें भिक्षा एवं दान दो, जिससे हम दृढतासे ज्ञान एवं त्यागमें स्थिर हो जाएं ।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविब्र्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक २४ |
इस ब्रह्मकर्म रूपी यज्ञमें अग्नि भी ब्रह्म ही है, हवि भी ब्रह्म ही है एवं अर्पणकर्ता भी ब्रह्म ही है । जो व्यक्ति इस प्रकार सर्वत्र ब्रह्म है, यह भावना करता है उसे ब्रह्म भावकी प्राप्ति होती है । भोजन करते समय इस मंत्रका पाठ करनेसे अन्नके दोष दूर होते हैं ।
३ अ. भोजन आरंभ करनेसे पूर्व की जानेवाली प्रार्थना तथा भोजनके समय प्रार्थना
‘हे ईश्वर, आपकी कृपासे प्राप्त यह अन्न आपका प्रसाद है, इस भावसे मुझसे ग्रहण होने दें । इस अन्नसे मुझे साधना, गुरुसेवा तथा राष्ट्र एवं धर्म हेतु कार्य करनेके लिए आवश्यक शक्ति एवं चैतन्यका लाभ होने दें । मेरे शरीरकी कष्टदायक काली शक्ति शीघ्र अल्प होने दें ।’
३ आ. भोजन पूर्ण होनेतक ऐसा भाव रखें
अन्न ईश्वरका प्रसाद है । अन्नपान शरीरका प्राण है ।
३ इ. थालीके सर्व ओर जलसे मंडल बनाना चित्राहुति देना एवं प्राणाहुति ग्रहण करना
भोजन प्रारंभ करनेसे पूर्व उपास्यदेवतासे प्रार्थना कर (दाहिने हाथमें जल लेकर) थालीके सर्व ओर जलसे मंडल बनाएं अथवा जल घुमाएं । अपनी ओरसे आरंभ कर थालीके सर्व ओर घडीकी दिशामें जलका मंडल बनाएं । ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इनमेंसे जिनका उपनयन संस्कार हुआ है, वे चित्राहुति दें तथा प्राणाहुति ग्रहण करें । यह एक समंत्र (मंत्रसहित) विधि है ।
३ ई. नामजप एवं प्रार्थना करना
नामजप कर भोजन आरंभ करें । भोजन करते समय भी नामजप करते रहें । समय-समयपर प्रार्थना भी करें ।
४. चम्मच से खाना और हाथ से भोजन ग्रहण करने में भेद !
अ. चम्मच से भोजन करना और हाथ से करना
‘सजीव व्यक्ति में निर्जीव वस्तुओं की तुलना में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है । चम्मच धातु की एवं निर्जीव होने से उसमें अल्प मात्रा में सात्त्विकता एवं चैतन्य है । इसके विपरीत सामान्य मनुष्य की सात्त्विकता २० प्रतिशत होती है । उसकी पांचों उगंलियों से पंचतत्त्वों से संबंधित शक्तियां प्रवाहित होती हैं । जब व्यक्ति हाथ से भोजन करता है, तब उसके हाथों की पांचों उंगलियों से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विकता उसके हाथ के निवाले में प्रवाहित होती है । फिर अन्न ग्रहण करने पर वह सात्त्विकता पुन: उसकी देह में जाती है । इसप्रकार शक्तिपातयोगानुसार व्यक्ति से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विकता एवं शक्ति उसे पुन: मिलती है । इसके विपरीत चम्मच का उपयोग करने से व्यक्ति की पांचों उगलियों से प्रवाहित होनेवाली शक्ति अंगूठे एवं तर्जनी के माध्यम से चम्मच में प्रविष्ट होकर, चम्मच का रज-तम न्यून करने में व्यय हो जाती है ।
इसलिए वह व्यक्ति अपनी सात्त्विकता ग्रहण नहीं कर पाता । इसके विपरीत चम्मच में विद्यमान रज-तमात्मक स्पंदन चम्मच के अन्नकणों में जाते हैं और उसे अन्न से रज-तमात्मक शक्ति मिलती है । इसलिए उसे चम्मच से खाने के कारण आध्यात्मिक स्तर पर लाभ नहीं होता, अपितु हानि ही होती है । इसलिए व्यक्ति को चम्मच से अन्न ग्रहण करने की अपेक्षा हाथ से ग्रहण करना आध्यात्मिकदृष्टि से अधिक योग्य है । यद्यपि ऐसा है, तब भी त्वचा रोग, हाथ की उंगलियों में घाव हो गया हो अथवा सूप, खीर जैसे पतले पदार्थ ग्रहण करते समय व्यक्ति को हाथ की तुलना में चम्मच से अन्न ग्रहण करना अधिक योग्य है । उपरोक्त अपवादात्मक परिस्थिति के अतिरिक्त हाथ से अन्न ग्रहण करना आध्यात्मिकदृष्टि से अधिक लाभदायी है ।’
चम्मच से अन्न ग्रहण करना | हाथ से ग्रहण करना | |
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१. अन्न ग्रहण करने की पद्धति कौनसी ? | पश्चिमी पद्धति | भारतीय पद्धति |
२. त्रिगुणों में से कार्यरत गुण | रज-तम | रज-सत्त्व |
३. त्रिगुणों में से कार्यरत तत्त्व | पृथ्वी | कनिष्ठिका (छोटी उंगली) में पृथ्वी, अनामिका में आप, मध्यमा में तेज, तर्जनी में वायु एवं अंगूठे में आकाश, ये पांच तत्व कार्यरत होना |
४. शक्तिपातयोगानुसार अन्न ग्रहण करने से देह की शक्ति पुन: देह में प्रविष्ट होना / न होना | न होना | होना |
५. चम्मच अथवा हाथ की उंगलियों का स्पर्श अन्न से होने पर अन्न पर होनेवाले परिणामों का स्वरूप | अन्न में चम्मच के माध्यम से रज-तम तरंगों के प्रवेश से अन्न की सात्विकता न्यून होना | उंगलियों से प्रवाहित होनेवाली सात्त्विकता अन्न में प्रवेश होने पर अन्न अधिक सात्त्विक हो जाना |
६. अन्न ग्रहण करनेसे होनेवाले परिणामों का स्वरूप, मात्रा (प्रतिशत) एवं अवधि | ||
६ अ. स्वरूप | त्रासदायक | अच्छा |
६ आ. मात्रा (प्रतिशत) | १० | २० |
६ इ. अवधि | कुछ घंटे | एक दिन |
७. चम्मच अथवा हाथ की उंगलियों से अन्न ग्रहण करने से व्यक्ति की देह पर होनेवाला परिणाम | देह की सात्त्विकता चम्मच में प्रवाहित होकर न्यून होना | देह की सात्त्विता अन्न के माध्यम से पुन: देह में प्रविष्ट होने से बढना |
८. कितने प्रतिशत स्तर तक परिणाम होना ? (टिप्पणी) | २० से ६ | ३० के आगे |
टिप्पणी – ६१ प्रतिशत स्तर के उपरांत बाह्य बातों का देह की सात्त्विकता पर अल्प मात्रा में परिणाम होने से ६१ प्रतिशत स्तर के उपरांत चम्मच से अन्न ग्रहण करने का परिणाम घटने लगता है । ७१ से ८० प्रतिशत स्तर तक चम्मच से अन्न ग्रहण करने का परिणाम केवल १ प्रतिशत ही होता है और ८१ प्रतिशत स्तर के उपरांत यह परिणाम ० (शून्य) प्रतिशत अर्थात बिलकुल नहीं होता ।’
– कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२.८.२०२०)
* सूक्ष्म : व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अवयव नाक, कान, आंखें, जीभ एवं त्वचा भी पंचज्ञानेंद्रिय हैं । ये पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे अर्थात ‘सूक्ष्म’। साधना में प्रगति किए कुछ व्यक्तियों को ये ‘सूक्ष्म’ संवेदनाएं ध्यान में आती हैं । इस ‘सूक्ष्म’के ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।
* सूक्ष्म से दिखाई देना, सुनाई देना इत्यादि (पंच सूक्ष्मज्ञानेंद्रियों से ज्ञानप्राप्ति होना) : कुछ साधकों की अंतदृष्टि जागृत होती है, अर्थात आंखों से जिसे देखना संभव नहीं, उन्हें वह भी दिखाई देता है । कुछ को सूक्ष्म नाद अथवा शब्द सुनाई देते हैं ।
* सूक्ष्म परीक्षण : किसी घटना के विषय में अथवा प्रक्रिया के विषय में चित्त को (अंतर्मन को) जो प्रतीत होता है, उसे ‘सूक्ष्म परीक्षण’ कहते हैं ।