सारिणी
- १. भोजन करने हेतु बैठनेका स्थान
- २. भोजनके लिए बैठनेकी दिशा
- ३. पूर्व दिशाकी ओर मुख कर अन्न ग्रहण करें
- ४. भोजनकक्षमें भोजन करनेसे लाभ एवं हानि
- ५. पूर्वकी ओर मुख कर अन्न क्यों ग्रहण करें ?
- ६. दक्षिणकी ओर मुख कर भोजनके लिए कभी न बैठें
- ७. अतृप्त आत्माओंकी पीडाकी आशंका होनेसे दक्षिणकी ओर मुख कर भोजन न करें
१. भोजन करने हेतु बैठनेका स्थान
रसोईघर भोजनके लिए बैठनेका उत्तम स्थान है । रसोईघरमें बैठना संभव न हो, तो अन्य कक्षमें भोजनके लिए बैठें । भोजन करनेका स्थान स्वच्छ तथा वहांका वातावरण प्रसन्न हो । भोजन करते समय यथासंभव वहां भोजन करनेवालोंके अतिरिक्त अन्य लोगोंका विचरण न हो । खुलेमें, धूपमें, वृक्षके नीचे तथा अंधेरे कक्षमें अथवा शयनकक्षमें भोजनके लिए न बैठें। ( किंतु संन्यासी अपनी मिली हुई भिक्षा नदीके तटपर अथवा किसी देवालयमें जाकर एकांतमें ग्रहण करें। )
२. भोजनके लिए बैठनेकी दिशा
यथासंभव पूर्व अथवा पश्चिम दिशाकी ओर मुख कर भोजनके लिए बैठें । उत्तर एवं दक्षिण दिशामें मुख कर भोजन कभी न करें। बडी पंगतमें चारों दिशाओंमें मुख कर लोग भोजनके लिए बैठते हैं । ऐसेमें स्वाभाविक ही कुछ लोगोंका मुख दक्षिण अथवा उत्तर दिशामें होगा । ऐसी स्थितिमें नामजप करते हुए भोजन करें ।
३. पूर्व दिशाकी ओर मुख कर अन्न ग्रहण करें
प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत्तोच्चरेद्दक्षिणामुखः । उदङ्मुखो मूत्रं कुर्यात्प्रत्यक्पादावनेजनमिति ।। – आपस्तम्बधर्मसूत्र, प्रश्न १, पटल ११, कांडिका ३१, सूत्र १ |
अर्थ : पूर्व दिशामें मुख कर अन्न ग्रहण करें, दक्षिण दिशामें मुख कर मलविसर्जन, उत्तर दिशामें मुख कर मूत्रविसर्जन एवं पश्चिम दिशामें मुख कर पैर धोएं ।
४. भोजनकक्षमें भोजन करनेसे लाभ एवं हानि
‘पूर्वकालमें स्त्रियां भोजन बनाते समय अन्योंको वहीं गरम-गरम भोजन परोसती थी । सभी अग्निके समीप, एक प्रकारसे शुद्ध वायुमंडलमें भोजन करते थे । इस कारण भोजनकी क्रियामें होनेवाला अनिष्ट शक्तियोंका हस्तक्षेप भी टल जाता था ।’ परंतु वर्तमानमें भोजन करने एवं बनानेका स्थान पृथक-पृथक होनेसे भोजनके माध्यमसे अनिष्ट शक्तियोंकी पीडा भी बढ गई है तथा अब पहले जैसा प्रदीप्त सात्त्विक अग्निरूपी वायुमंडल भी लुप्त हो गया है । आजकल चूल्हेके स्थानपर गैसका उपयोग किया जाता है । इस कारण कलियुगके मानवको जीवनमें गंभीररूपकी रज-तमात्मक समस्याओंका सामना करना पड रहा है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २९.१०.२००७, दिन ९.४६)
५. पूर्वकी ओर मुख कर अन्न क्यों ग्रहण करें ?
‘धर्माचरणके नियम अनुसार किसी विशिष्ट दिशाके वायुमंडलमें वह कृत्य करनेसे वायुमंडल दूषित हुए बिना ब्रह्मांडकी विशिष्ट शक्तिरूपी गतितरंगोंमें उचित संतुलन बना रहता है । पूर्व दिशा तेजतत्त्वके लिए पूरक है । अन्न-सेवन एक यज्ञकर्म ही है । यह यज्ञकर्म, पूर्व दिशामें तेजकी शक्तिरूपी धारणाद्वारा पिंडमें संचारित करनेसे उसका कृत्यको गति प्रदान करनेमें उचित पद्धतिसे विनियोग हो सकता है । एक विशिष्ट दिशामें मुख कर उन विशिष्ट तरंगोंके स्पर्शके स्तरपर निर्दिष्ट कर्म करनेसे पापोंके परिमार्जन एवं पुण्यप्राप्तिमें सहायता मिलती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २.६.२००७, दोपहर १.५९)
६. दक्षिणकी ओर मुख कर भोजनके लिए कभी न बैठें
‘जो दक्षिण दिशामें मुख कर, सिरपर पगडी अथवा टोपी धारण कर अथवा चप्पल पहनकर भोजन करता है, उसके भोजन ग्रहण करनेकी प्रक्रियाको आसुरी मानना चाहिए ।’ (महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ९०, श्लोक १९)
७. अतृप्त आत्माओंकी पीडाकी आशंका होनेसे दक्षिणकी ओर मुख कर भोजन न करें
‘दक्षिण दिशामें यम तरंगोंका प्रभाव अधिक होनेसे ऐसा कहा गया है, कि, इन रज-तमात्मक तरंगोंकी अशुद्ध कक्षामें बैठकर अन्नको दूषित न करें । यम तरंगोंके प्रभावसे युक्त ऐसा अन्न ग्रहण करनेसे व्यक्तिको अनेक अतृप्त आत्माओंकी पीडा होनेकी आशंकाके कारण यह नियम है, कि अशुभ दक्षिण दिशामें मुख कर भोजनके लिए नहीं बैठना चाहिए ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, ६.३.२००८, दिन १०.५१)
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – भोजनसे संबंधित आचार)