‘कला ईश्वर की देन है । कला के माध्यम से साधना कर ईश्वरप्राप्ति की जा सकती है । कला के प्रस्तुतीकरण से ‘नम्रता, शरणागति अर्थात ईश्वर माध्यम बन गया है । के प्रति भाव निर्मित होना और भावस्थिति में रह पाना’, ये गुण साध्य हो सकते हैं; किंतु आजकल कलाकारों की कला केवल पैसा और कीर्ति का वे उसी दृष्टि से कला को देखते हैं । इससे कलाकार अधिकाधिक माया और अहं की गहरी खाई में गिरता है और ‘कला के माध्यम से साधना’ तो दूर ही रहती है । एक शास्त्रीय संगीत महोत्सव में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के कुछ साधक गए थे । वहां कलाकारों द्वारा प्रस्तुत कला के कुछ सूत्र आगे दिए हैं ।
१. शास्त्रीय संगीत महोत्सव में कला का प्रस्तुतीकर
१ अ. नृत्य
१ अ १. नृत्यांगना का काले वस्त्र पहनना, नृत्य में अहंकार के स्पंदन लगना, इस कारण नृत्य देखकर आनंद न आना
‘एक नृत्यांगना के नृत्य को देखते समय मन एकाग्र न होकर हमारा ध्यान लगातार विचलित हो रहा था । काले रंग के वस्त्र पहनने से उससे अच्छे स्पंदन नहीं आ रहे थे । हमारा ध्यान नृत्य की अपेक्षा उसके वस्त्रों की ओर अधिक जारहा था । उसके बोलने में भी अहंकार के स्पंदन आ रहे थे । जिन गानों पर वह नृत्य कर रही थी, उन गानों में भी भाव नहीं था । उसकी अपेक्षा शास्त्रोक्त कथ्थक का दृश्य देखते समय थोडा अच्छा लग रहा था । नृत्य करते समय, यथा कथ्थक नृत्य का ‘गतनिकास’ नृत्य प्रकार करते समय उन्होंने कृष्ण के होली खेलने का प्रसंग दिखाया; किंतु उसमें कहीं भी भाव नहीं था । उनके नृत्य से ‘अहं’ के स्पंदन आने से उनका नृत्य केवल यंत्रवत लगा । इस कारण उनका नृत्य मन को नहीं भाया । नृत्यांगना के वस्त्र सात्त्विक होने पर और भाव स्थिति में कला का प्रस्तुतीकरण करने पर नृत्यांगना और प्रेक्षक, दोनों को आनंद मिलता है ।
१ आ. बांसुरीवादन
१ आ १. एक बांसुरीवादक के बांसुरी बजाने पर आनंद और उत्साह लगना; किंतु उस बांसुरीवादक की बोल-चाल से अहं लगना
अन्य कलाकारों की अपेक्षा एक बांसुरीवादक का वादन सुनते समय अच्छा लगा । उनकी बांसुरी के नाद में आनंद और उत्साह के स्पंदन लग रहे थे । वह बांसुरीवादन सुनने पर एक साधिका को नृत्य करने की इच्छा हुई, किंतु प्रत्यक्ष में मिलने पर उनके बोलने में अहं बहुत प्रबल था । उन्हें उनका बांसुरीवादन अच्छा होने की बात कहने पर उनके बोलने में ‘मैं अच्छा बजाता हूं’, ऐसा अहं लगा ।
१ इ. गायनकला का प्रस्तुतीकरण
१ इ १. एक गायक द्वारा गाते समय एक प्रसिद्ध गायक का अनुकरण (नकल) करना, तबला और संवादिनी से (हारमोनियम) सुर न मिलने से वह गायन सुनने का मन न करना
एक शास्त्रीय गायक के स्वर में मधुरता नहीं लगी । गाते समय वे ‘अनावश्यक अंग विक्षेप कर रहे थे । वह गायन सुनते समय हमारे मन में बहिर्मुखता के विचार आए । उनके गायन में स्पष्टता नहीं थी । वे एक प्रसिद्ध गायक का अनुकरण (नकल) कर गायन प्रस्तुत कर रहे हैं, ऐसा लगा । ‘तबला, संवादिनी और उनके सुरों का तालमेल न होने से उनका गायन न सुनें’, ऐसा हमें लगा । उनका गाना मन को नहीं भाया । ‘उनका साथ देनेवाले तबला वादक केवल तबला पीट रहे हैं’, ऐसा लग रहा था ।
१ इ २. एक प्रसिद्ध गायक के गायन के समय उनके शब्द अस्पष्ट सुनाई देना और उनके गायन में एकरूपता के अभाव का भान होना
एक प्रसिद्ध कलाकार ने अंत में गायन प्रस्तुत किया । ‘उनका गाना न सुनें’, ऐसा लगा । उनके गाने के बोल भी समझ में नहीं आ रहे थे । तदनंतर उन्होंने अन्य घराने की पद्धति से गायन किया । उस समय उनके स्वर नहीं सध रहे थे । गाते समय बीच में ही दो बार रुककर उन्होंने दूसरे कलाकार से बात की । ‘वे गाने में मग्न हैं’, ऐसा नहीं लग रहा था; उनके गाने में बहिर्मुखता थी ।
२. अन्य सूत्र
अ. संगीत प्रस्तुत करनेवाले कलाकारों का सत्कार, एक प्रसिद्ध कलाकार जूते पहने कर रहे थे । ऐसा लगा कि उन्होंने व्यासपीठ तथा रंगमंच देवता का अपमान किया ।
आ. आयोजकों द्वारा एक कलाकार का परिचय कराने के पहले ही उस कलाकार ने गायन आरंभ कर दिया । तब आयोजक ने व्यासपीठ पर खडे-खडे ही अपनी प्रतिक्रिया दी । यह सब देखकर वर्तमान स्थिति में कलाकार और उनके कार्यक्रम की दुःस्थिति ध्यान में आई । जहां कला इस प्रकार प्रस्तुत की जा रही हो, वहां भगवान का अधिष्ठान हो ही नहीं सकता; ‘संगीत से आध्यात्मिक अनुभूति होना’ तो बहुत दूर की बात ! आज कलाकार ‘संगीत’ को ‘साधना’ के रूप में देख पाएं, इसके लिए उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है । महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के माध्यम से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने यह कार्य आरंभ किया है ।’
– कु. म्रिणालीनी देवघरे, कु. मयुरी आगावणे और श्रीमती अनघा जोशी, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा.