हिन्दुओं के उपास्यदेवता प्रभु श्रीरामचंद्रजी का जन्मस्थान है अयोध्यानगरी ! समय के तीव्रगति से आगे बढते समय अपने गौरवशाली इतिहास का अध्ययन एवं आचरण करना ही हिन्दुओं के लिए हितकारी होगा । इस परिप्रेक्ष्य में जिस नगरी में जानकीवल्लभ का जन्म हुआ, उस नगरी का दैदिप्यमान इतिहास, हिन्दू संस्कृति के संवर्धन में उसने दिया हुआ योगदान आदि जानकारी दे रहे हैं –
१. हिन्दू संस्कृति को विश्ववंदनीय बनाने में प्राचीन नगरी अयोध्या का महत्त्वपूर्ण योगदान !
‘अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
अर्थ : अयोध्या (उत्तर प्रदेश), मथुरा (उत्तर प्रदेश), माया अर्थात हरिद्वार (उत्तराखंड), काशी (उत्तर प्रदेश), कांची (तमिलनाडू), अवन्तिका अर्थात उज्जैन (मध्य प्रदेश) एवं द्वारका (गुजरात) ये मोक्ष प्रदान करनेवाले ७ पवित्र स्थान हैं ।
इन सप्तमोक्षदायिनी पुण्यनगरियों में सबसे पहले लिया जानेवाला नाम है अयोध्यानगरी का ! भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति कुछ सहस्र वर्षोंतक बहरती और वृद्धिंगत होते गई । इस संस्कृति और सभ्यता को नाम दिलाने में, विश्ववंदनीय बनाने में और अर्थ दिलाने में जिन अनेक घटनाओं ने योगदान दिया, उन घटकों में से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है प्राचीन नगरी अयोध्या !
२. जिसके साथ युद्ध नहीं किया जा सकता, ऐसी स्वर्गतुल्य नगरी ही है अयोध्या !
यह मनुनिर्मित नगरी है । जब इसकी रचना का मानस हुआ, तब अपनी संपूर्ण कुशलता का परिचय देते हुए देवशिल्पी विश्वक ने इस नगरी की रचना की । स्कंदपुराण में अयोध्या का वर्णन मिलता है । उसके रचैता ऐसा कहते हैं तथा संभवतः उस समय में यह श्रद्धा थी कि यह पुण्यनगरी श्रीविष्णुजी के सुदर्शनचक्रपर विराजमान है । अथर्ववेद में अयोध्या को प्रत्यक्ष ईश्वर की नगरी कहा गया है । ‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या । इन शब्दों में अथर्ववेद कहता है कि इस नगरी की संपन्नता और वैभव की श्रेष्ठता स्वर्ग जितनी ही है । इस नगरी को उन्होंने स्वर्गतुल्य कहा है । इस नगरी का नाम ही उसकी विशेषता है । अ+योद्धा, इसमें ‘यौध्य’का अर्थ जिसके साथ युद्ध किया जा सकता है वह अर्थात जो हमारे लिए तुल्यबल है । इसी प्रकार से जिसके साथ युद्ध करना संभव नहीं होगा, वह नगरी ! कौशल राज्य की राजधानी, जिसके तुल्यबल कोई भी नहीं; जो अजेय और अतुल्य है, वह है अयोध्या ! इसे अक्षरशः सार्थ कर दिखानेवाले जिन नरपुंगवों ने इस नगरी के राजपद का निर्वहन किया, उन नामोंपर केवल दृष्टि डालने से उसकी प्रतीति होगी ।
३. क्षात्रतेज से चमकनेवाली अयोध्या नगरी !
सूर्यपुत्र वैववस्त मनु ने अयोध्या नगरी का निर्माण किया । ‘शरयु’ का अर्थ सृजन करनेवाली नदी के परिसर में वैववस्त मनुजी का महान पुत्र इक्ष्वाकु ने राजधर्म, समाजधर्म और व्यक्तिधर्म का आचरण करनेवाली संहिता का अपने राज्य में क्रियान्वयन किया । अगले काल में सूर्यवंश के रूप में परिचित महाप्रतापी कुल का यही आद्य है ! इसी कुल में आगे जाकर महाराजा पृथ का जन्म हुआ । ऐसा कहते हैं कि ‘‘इस धरित्री को जो पृथ्वी नामक संज्ञा प्राप्त हुई है, वह महाराजा पृथ के कारण ही हुई है ! इसका यदि अलग अर्थ लगाना हो, तो ऐसा कहा जा सकता है कि समस्त पृथ्वी ही पृथु राजा के राज्य का विस्तार थी । इसी कुल के महाराज गंधात्री ने १०० अश्वमेध और १०० राजसूय यज्ञ किए और समस्त विश्व ने उनके स्वामित्व का स्वीकार किया । राजा हरिश्चंद्र के संदर्भ में क्या कहा जाए ? दान एवं सत्यनिष्ठा का वैकल्पिक नाम ही राजा हरिश्चंद्र है अर्थात वास्तविक रूप में राजयोगी !
देवराज इंद्र के आसन को हिलानेवाले महाराज सगर भी इसी कुल से हैं ! प्रजा के हित के लिए समस्त जीवों के कल्याण हेतु अपने तपोबल से गंगा को स्वर्ग से पृथ्वीपर अवतरित करनेवाले महातपस्वी भगीरथ राजा भी सूर्यवंश कुल से ही थे ! १० रथियों का बल जिस अकेले वीर के पास है, वह महावीर राजा दशरथ ! इसीलिए इसमें आश्चर्य कैसा कि ऐसे महान कुल में तथा पुण्यनगरी प्रत्यक्ष परमेश्वर ने ही प्रभु श्रीरामजी के रूप से अवतार धारण किया । शाक्य वंश भी मूल इक्ष्वाकु वंश का ही विस्तार अथवा शाखा है । सम्राट अशोक के काल में मौर्य साम्राज्य में अयोध्या एक बडा व्यापारी केंद्र भी था । इस प्रकार से अयोध्या के क्षात्रतेज की ख्याति दिगांतक तक पहुंची थी ।
४. अयोध्या को पुनः बसानेवाले सम्राट विक्रमादित्य !
उज्जैन के राजा सम्राट विक्रमादित्य ने अयोध्या को भेंट की थी । उन्होंने काल के प्रवाह में जीर्ण बनी इस नगरी में स्थित अनेक वास्तुओं और देवालयों का नवीनीकरण किया । सम्राट ने कुछ नए मंदिरों का निर्माण भी किया । यह लगभग इसवी वर्ष के पहले शतक का काल था । संक्षेप में कहा जाए, तो विक्रमादित्य ने अयोध्या को पुनः बसाने का प्रयास किया ।
५. अयोध्या का महत्त्व विशद करनेवाले कुछ अन्य ऐतिहासिक उल्लेख !
वर्ष १५७४ में संत तुलसीदास ने अपने सुप्रसिद्ध ‘रामचरितमानस’ ग्रंथ की रचना का आरंभ अयोध्या में किया । वर्ष १८०० में भगवान श्री स्वामीनारायण ने स्वामीनारायण पंथ की स्थापना की । उनका बचपन अयोध्या में बीता । आगे जाकर भगवान स्वामीनारायणजी ने ‘नीलकंठ’ नाम से अपनी ७ वर्षों की यात्रा का आरंभ अयोध्या से ही किया । सिक्ख संप्रदाय का भी अयोध्या के साथ निकट संबंध है । रामजन्मभूमि के संग्राम में सिक्ख गुरुओं का भी योगदान है ।
तीसरे-चौथे शतक में फा हियान नामक चीनी बौध्द भिक्खू ने अपने प्रवासवर्णन में अयोध्या का उल्लेख किया है । उस काल में भारतीय संस्कृति की दिशा दसोंदिशाओं में फहर रही थी । अयोध्या की भूमि बृहदारतात अर्थात सांस्कृतिक भारत में वंदनीय थी । आज के थाईलैंड के अयुद्धया और इंडोनेशिया के ‘जोगजा/जोंगजकार्ता (योग्यकार्ता) इन दोनों नगरों के नाम अयोध्यापर ही आधारित हैं और आज भी उनके वहीं नाम हैं ।
६. दक्षिण कोरिया से निकट संबंधवाली अयोध्या !
१३वीं शताब्दी मे दक्षिण कोरिया के ‘समगुक युसा’ नाम के इतिवृत्त (Chronicle) में ‘हियो वांग ओक’ नामक पौराणिक रानी का उल्लेख है । कोरियाई द्वीप के दक्षिण में ‘गया’ नामक एक राज्य था, जिसके ‘सुरो’ संस्थापक थे । सुरो राजा ने अयुता साम्राज्य की राजकुमारी के साथ विवाह किया । ‘अयुता’ नाम का राज्य अयोध्या नाम का अपभ्रंशित रूप है ।
इस संदर्भ में ऐसा बताया जाता है कि रानी के माता-पिता को स्वप्नदृष्टांत हुआ । उन्हें ईश्वर ने यह आज्ञा की कि ‘आप आपकी कन्या को अर्थात राजकन्या को राजा के पास भेजकर उनका विवाह करवा दीजिए !’ तो उन्होंने इस स्वप्नदृष्टांत के अनुसार राजकन्या को सेवकों के साथ आज के दक्षिण कोरिया भेज दिया । लगभग २ मासों की समुद्रीययात्रा के पश्चात राजकन्या गया नगर पहुंची और वे दोनों विवाहबद्ध हुए । आज कोरिया में स्वयं को इस रानी के वंशज माननेवालों की संख्या बडी मात्रा में है । वर्ष २००९ में इस रानी के सम्मान में कोरियाई शिष्टमंडल में अयोध्या में एक स्मारक बनाया गया । हाल ही में वर्ष २०१६ में इस स्मारक के नवीनीकरण के लिए कोरिया की ओर से प्रस्ताव दिया गया था । ६ नवंबर २०१८ की दीपावली में कोरिया की रानी ‘कीम’ ने नवीनीकरण का आधारशिला रखी ।
७. सहस्रों वर्ष की महाप्रतापी परंपरा प्राप्त अयोध्यानगरी !
इतिहास के आरंभ से लेकर आजतक अयोध्या का उल्लेख सभी कालों में और सभी युगों में आता है । यह नगरी प्रत्येक स्थित्यंतर की साक्ष्यी है, भले वो स्थित्यंतर राजनीतिक हों, सामाजिक हों अथवा धार्मिक हों । संकट आए नहीं, ऐसा नहीं; परचक्र आया नहीं, ऐसा भी नहीं; किंतु इस नगरी ने अपना परिचय मिटने नहीं दिया । महाभारत के सभापर्व में
‘अयोध्यायां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम् ।
अजयत् पाण्डवश्रेष्ठो नातितीव्रेण कर्मणा ॥’
– महाभारत, पर्व २, अध्याय ३०, श्लोक २
अर्थ : वैशंपायन राजा ने जनमेजय से कहा, ‘‘तत्पश्चात पांडवश्रेष्ठ भीमसेन अयोध्या पहुंचे और उन्होंने वहां के दीर्घयज्ञ नामक राजा को बडी सहजता से जीत लिया ।’’
यह वही अयोध्या है, जिसने इतिहास का आरंभ देखा है, जिसने पृथु का पराक्रम देखा है, जिसने सत्यवती हरिश्चंद्र को देखा है और जिसने दृढनिश्चयी भगीरथ को भी देखा है ! अपने स्वयं के राजकुमार पुत्रों को धर्मरक्षा हेतु राक्षसों के साथ युद्ध में भेजनेवाले राजा दशरथ को देखा है । इसी अयोध्या ने रामराज्य भी देखा है । आज भी यही अयोध्या हिन्दूतेज को जागृत कर रही है और उनके पराक्रम की साक्ष्य अगली पीढी को दे रही है । अयोध्या चिरंतन और अक्षय्य है !