आजकल की बदली हुई जीवनपद्धति के कारण, विशेषरूप से घर अथवा कार्यालय में बैठकर काम करनेवाले व्यक्तियों में शरीर को धूप लगने की संभावना बहुत ही घट गई है । इससे जिनके शरीरपर धूप नहीं पडती अथवा शरीरपर धूप पडने की मात्रा अल्प है, ऐसे लेगों को स्मरणपूर्वक धूप के उपाय करने चाहिएं ! (शरीरपर धूप लेनी चाहिए ।)
१. आयुर्वेद के अनुसार शरीरपर धूप लेने के लाभ
अ. सूर्यदेव स्वास्थ्य प्रदान करते हैं । उसके कारण ही ‘आरोग्य भास्करात् इच्छेत् ।’ अर्थात सूर्यदेव से स्वास्थ्य मांगें’, ऐसा बताया गया है ।
आ. आयुर्वेद के अनुसार आजकल दिखनेवाले मधुमेह, उच्च रक्तचाप, जीवनसत्त्वों का अभाव, स्थूलता, रिसनेवाले त्वचाविकार, सरदी, विविध प्रकार की एलर्जी, संधिवात, शरीरपर सूजन आना, शरीर में संप्रेरक (हार्मोन्स) की विकृतियों के कारण होनेवाले विकार, उदा. थायरॉईड के विकार, ,अन्न का पाचन न होना, मलावरोध, बवासीर आदि विकार अग्नि के उपर विद्यमान आवरण दूर होकर अग्नि प्रदीप्त होने के लिए, साथ ही उक्त विकार दूर होने में सहायता मिलती है ।
इ. प्रतिदिन उचित मात्रा में शरीरपर धूप लेने से शरीर में बढे हुए दोष (रोगकारक द्रव्य) दूर होने में सहायता मिलती है ।
२. सूर्यकिरणों के गुणधर्म
अ. सूर्यकिरण गर्म, तीक्ष्ण (तुरंत कार्य करनेवाले तथा सुईं की भांति अंदर घुसनेवाले), सूखे और लघु (हल्के) गुणधर्मवाले होते हैं ।
आ. कोमल धूप में यही गुणधर्म अत्यंत सौम्य, तो कडी धूप में अधिक तीव्र होते हैं ।
इ. धूप के दिनों में सूर्य के पृथ्वी के निकट होने से दोपहर के समय धूप अधिक कडी होती है । सरदीयों में सूर्य का पृथ्वी से दूर होने से देोपहर के समय धूप तुलनात्मक दृष्टि से अधिक कडी नहीं होती ।
ई. पृथ्वी की मध्यरेखा के पास हके अर्थात विषुववृत्त के निकट के प्रदेशों में धूप अधिक कडी होती है । हम जैसे ही विषुववृत्त से दूर जाते हैं, वैसे-वैसे धूप की तीव्रता न्यून होते जाती है ।
उ. नम मौसमवाले प्रदेशो में, उदा. तटीय प्रदेशों में हवा में व्याप्त नमी के कारण धूप शरीर को नहीं चुभती अर्थात वह अल्प तीक्ष्ण होती है । सूखे मौसम में, उदा. महाराष्ट्र के विदर्भ एवं मराठवाडा में नमी न्यून होने से धूप की तीक्ष्णता बढती है और वह शरीर को लगती है ।
३. ऋतुओं के अनुसार शरीरपर धूप लेने के संबंध में नियम
अ. दिपावली के उपरांत सरदीयां आरंभ होती हैं । इस अवधि में दोपहरतक वातावरण ठंडा होता है, उससे कुछ गर्म खाने की इच्छा होती है । ऐसे में मन को यदि अच्छा लगता हो, तो ठंड के निकल जानेतक शरीरपर कडी धूप लें ।
आ. सरदीयों में ठंड न्यून होनेपर तुरंत ही वसंत ऋतु का आरंभ होता है । इस समय में शरीर में क्लेद (नमी) बढती है । उसे दूर करने हेतु जितना सहन होगी, उतनी धूप शरीरपर लें ।
इ. तीव्र धूप के दिनों में अर्थात ग्रीष्म ऋतु में धूप अच्छी नहीं लगती । ऐसे समय में केवल सुबह की कोमल धूप ही लें । दोपहर की कडी धूप न लें, जिससे पित्त के विकार होकर शक्ति क्षीण होती है ।
ई. वर्षाऋतु में बादल होते हैं । अधिक वर्षा के कारण वातावरण में ठंडक आती है । ऐसे समय में आकाश खाली होकर धूप आती है, तो उसका उपयोग ठंड दूर होने के लिए करें । इन दिनों में सूर्य का पृथ्वी के निकट होने से उसकी तीव्रता अधिक होती है । अतः धूप में अधिक समयतक न रुकें ।
उ. वर्षाऋतु समाप्त होनेपर दीपावलीतक के समय में शरद ऋतु होती है । इस समय में गर्मी अचानक से बढती है; इसलिए इसे अक्टूबर हीट कहते हैं । इन दिनों में कडी धूप टालें ।
ऊ. किसी भी ऋतु में सुबह की कोमल धूप अथवा ढलनेवाले सूर्य की सौम्य धूप अच्छी होती है ।
४. सूर्यकिरणों के संबंध में आधुनिक चिकित्सकीय शास्त्र में हुए शोध
अ. शरीर में ड जीवनसत्त्व (विटामिन डी) तैय्यार होने के लिए शरीरपर धूप लेना आवश्यक है । यदि औषधियों से ड जीवनसत्त्व भी लिया गया, तब भी शरीरपर धूप पडने से ही उसका लाभ मिलता है, अन्यथा नहीं ।
आ. सूर्यकिरणों में अतिनील (अल्ट्रावायलेट) किरण भी होते हैं, जिनके UVA, UVB और UVC ये प्रकार हैं ।
१. अतिनील किरणों में से केवल UVB किरण ही शरीर में ड जीवनसत्त्व को बनाने में उपयुक्त हैं । इन किरणों की तरंगलंबाई (वेवलेंथ) २८० से ३१५ नैनोमीटर होती है । नैनोमीटर सूक्ष्मातिसूक्ष्म लंबाई की गणना का एक परिमाण है ।
२. भारत में सुबह ११ से दोपहर १ बजे की अवधि में पडनेवाली धूप में UVB तरंग होते हैं ।
३. धूप का सीधा त्वचापर पडने से ही ड जीवनसत्त्व तैय्यार हो सकता है । बादलों से घिरे वातावरण में धूप का त्वचा के साथ संपर्क नहीं हो पाता और उससे ऐसी धूप का अथवा कांच से भी धूप पडने से ड जीवनसत्त्व के बनने में लाभ नहीं मिलता ।
४. UVA, UVB एवं UVC इन तीनों प्रकार के अतिनील किरणों के कारण त्वचा का कर्करोग हो सकता है ।
इ. शरीर के जिन भागोंपर नित्य जीवन में सूर्यप्रकाश आता है, उदा. तलुवे, मुख इनपर बार-बार धूप पडने से त्वचा का कर्करोग होने की संभावना अधिक होती है । इसके लिए जिन भागोंपर नित्य जीवन में सूर्यप्रकाश नहीं आता, उदा. पीठ, पेट एवं दंड उन भागोंपर धूप लेनी चाहिए ।
५. शरीरपर धूप लेने के संबंध में ध्यान में लेनेयोग्य सूत्र
अ. शरीर स्वस्थ रहने हेतु प्रतिदिन शरीरपर धूप पडना आवश्यक होने से जिनके शरीरपर धूप नहीं पडती, ऐसे लोगों को प्रतिदिन न्यूनतम १५ से २० मिनटोंतक धूप सेंकनी चाहिए ।
आ. धूप सेंकते समय उसे ऋतुओं के आधारपर धूप सेंकने के जो नियम हैं, उनका पालन करें ।
इ. स्वयं को कितनी धूप सहन होती है, इसका अनुमान लगाकर ही धूप सेकें । आधुनिक चिकित्सा शास्त्र का शोध है; इसलिए ड जीवनसत्व प्राप्त करने हेतु ऋतुओं के नियमों को तोडकर बिना क्षमता के दोपहर की धूप नहीं सेंकनी चाहिए । (धूप के उपाय स्वास्थ्य के लिए हैं । ड जीवनसत्व तो मिला; परंतु कडी धूप के कारण दूसरा कोई विकार हुआ, ऐसा न हो ।)
ई. शरीर में ड अथवा अन्य जीवनसत्व उचित मात्रा में आएं; इसके लिए शरीर में विद्यमान अग्नि का संतुलन बनाना आवश्यक है । अग्नि अच्छा हो, तो कभी भी जीवनसत्त्वों का अभाव नहीं होता । इसके लिए सदैव निम्नांकित ३ नियमों का पालन करें ।
१. रात में शीघ्र सोकर सुबह शीघ्र जाग जाएं, साथ ही दोपहर में न सोए ।
२. भूख लगनेपर ही आहार लें । जब भूख नहीं होती, तब थोडासा भी न खाएं ।
३. प्यास लगनेपर ही पानी पिएं, अन्यथा पानी पीना टालें ।
उ. धूप सेंकते समय आधुनिक शास्त्र धूप के कारण कर्करोग होता है, ऐसा बताता है; इस भय को मन में न रखें । शरीर में यदि अग्नि अच्छा हो, तो कर्करोग नहीं होता । उसे अच्छा रखने हेतु उक्त सूत्रों में बताए गए ३ नियमों का नियमितरूप से पालन करें ।
६. शरीर को तेल लगाकर धूप सेंकने से मिलनेवाले लाभ
६ अ. आयुर्वेद के अनुसार
शरीर को तेल लगानेपर उसका त्वचा से सोखा जाता है । ऐसे समय में धूप में बैठने से त्वचा का तापमान बढता है, जिससे त्वचा का रक्तप्रवाह बढकर तेल का शरीर में अच्छे प्रकार से सोखे जाने में सहायता मिलती है ।
६ आ. आधुनिक चिकित्साशास्त्र के अनुसार
त्वचा में विद्यमान कोलेस्ट्रॉल के एक प्रकार से प्रकाश के अतिनील (अल्ट्रावायलेट) किरणों की उपस्थिति में ड जीवनसत्व बनता है । कोलेस्ट्रॉल एक स्निग्ध पदार्थ है । उसके कारण ड जीवनसत्व बनने के लिए सूर्यकिरण और स्निग्ध पदार्थ, ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं । तेल लगाकर धूप में बैठने से शरीर को ये दोनों घटक मिलते हैं और उससे अच्छी गुणवत्तावाला ड जीवनसत्व बनता है, यह अनुमान लगाया जा सकता है ।’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२१.१०.२०१८)
आधुनिक चिकित्साशास्त्र जो बताता है, उसकी आयुर्वेद
के मापदंडपर पडताल कर ही उसका आचरण करना आवश्यक !
‘आयुर्वेद ईश्वरनिर्मित परिपूर्ण एवं विकसित शास्त्र है । इस शास्त्र के पीछे त्रिकालाबाधित शाश्वत सिद्धांतों की शक्तिशाली नींव है । तो दूसरी ओर आधुनिक चिकित्साशास्त्र (एलोपैथी) मनुष्यनिर्मित एवं विकसनशील शास्त्र है । इस शास्त्र में प्रतिदिन नए-नए शोध होते हैं । इस शोध के कारण शरीरशास्त्र की बारिकियां समझने में सहायता मिलती है; परंतु कई बार ऐसे शोध एकतरफा होते हैं । शोध से अमुक लाभ मिलता है, यह निष्कर्ष मिलनेपर वैसा करने से कुछ हानि हो सकती है अथवा नहीं, इसकी पडताल नहीं की जाती । अतः एलोपैथी जो बताती है, उसकी आयुर्वेद के सिद्धांतों के मापदंडों के आधारपर पडताल कर ही उसे आधिकारिक मानें ।’