आंध्र प्रदेश के विजयवाडा में कनकदुर्गादेवी का मंदिर है । आज हम इस मंदिर और ‘कनकधारास्तोत्र’के निर्माण का इतिहास देखेंगे –
मंदिर का इतिहास
‘कील’ नामक देवीभक्त द्वारा पर्वत का रूप धारण करनेपर इस पर्वतपर
दुर्गादेवी का विराजमान होना, इस पर्वत को इंद्रकीलादी नाम पडना और देवी के प्रकट
होनेपर पर्वतपर स्वर्ण जैसा प्रकाश दिखाई देने से देवी को कनकदुर्गा नाम से जाना आरंभ होना
आंध्र प्रदेश के कृष्णा नदी के तटपर बंसा हुआ बडा नगर है ‘विजयवाडा’ ! यहां कृष्णातटपर इंद्रकीलादी नामक पर्वत है, जहां ऋषिमुनियों ने तपश्चर्या की थी । कील नामक भक्त ने दुर्गादेवी की मनोभाव से तपश्चर्या की । आगे जाकर इस भक्त ने पर्वत का रूप धारण किया । महिषासुर के संहार के पश्चात दुर्गादेवी कील पर्वतपर विराजमान हुईं । उसके पश्चात इस पर्वत को इंद्रकीलादी नाम पडा । यहां की देवी स्वयंभू है । देवी के प्रकट होनेपर इस पर्वतपर दूर से स्वर्ण जैसा प्रकाश दिखाई देता था; इसलिए आगे जाकर इस देवी को कनकदुर्गा के नाम से जाना जाने लगा । इसी पर्वतपर अर्जुन ने भी तपश्चर्या की थी और शिवजी के पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था ।
आद्य शंकराचार्यजी द्वारा कनकधारा स्तोत्र की निर्मिति !
आद्य शंकराचार्यजी ने बालआयु में ही संन्यास का स्वीकार किया । वे जब ८ वर्ष के थे, तब एक बार भिक्षा के लिए गांव में गए और एक निर्धन ब्राह्मर वृद्ध महिला के घर के सामने खडे रहकर भिक्षा मांगने लगे । उस वृद्ध महिला के घर में कुछ भी नहीं था, केवल एक आमला ही था । उसने वह आमला शंकराचार्यजी को भिक्षा में दे दिया । इसे देखकर आद्य शंकराचार्यजी के आंखें नम हुईं । उन्होंने वही खडे रहकर महालक्ष्मीदेवी की स्तुती की । तब वहां श्री महालक्ष्मीदेवी प्रकट हुई और कहने लगीं, ‘‘हे शंकर, आप ने मेरा स्मरण कैसे किया ?’’ उसपर बालशंकर कहने लगे, ‘‘हे माते, आप इस वृद्ध महिला का भाग्य बदलकर उसे संपन्नता प्रदान करें ।’’ उसपर देवी ने कहा, ‘‘इस वृद्ध महिला के पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण उसकी आज यह स्थिति है ।’’ उसपर आद्य शंकराचार्यजी ने कहा, ‘‘ब्रह्माजी द्वारा लिखित विधि का विधान बदलने का सामर्थ्य केवल आप में ही है ।’’ बाल शंकरजी की ये बातें सुनकर श्री महालक्ष्मीदेवी प्रसन्न हुईं और उसी क्षण उस वृद्ध महिला के घर में स्वर्ण की वर्षा हुई ।’’
आद्य शंकराचार्यजी ने श्री महालक्ष्मी को संबोधित कर पठित २१ कडियोंवाली स्तुति आगे जाकर ‘कनकधारास्तोत्र’ के नाम से विख्यात हुई ।