१. मंदिर का इतिहास
स्कंद पुराण के अनुसार कृतयुग में कर्दम ऋषि हो गए । उनकी पत्नी अनुभूति रूपसंपन्न तथा पतिव्रता थी । कर्दम ऋषी की मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी अनुभूति ने अपने पति के साथ सहगमन करने का निर्णय लिया; किंतु उसका लडका अल्पायु होने से अन्य ऋषि-मुनियों ने उसे समझाया । उसने अपने अल्पायु पुत्र के लिए उसने अपनी योजना रद्द की और वह मंदाकिनी तटपर तपश्चर्या करने लगी । उस समय कुकर नामक एक दैत्य ने उसका तप और पातिव्रत्य भंग करने का प्रयास किया । इस संकट के समय में श्री भगवतीदेवी को पुकारा । तब श्री भगवती देवी ने अवतार धारण कर उस दुष्ट दैत्य का वध किया और अनुभूति की प्रार्थना के अनुसार यमुनाचल (बाला घाट) पर्वतपर अखण्ड निवास किया । देवी अनुभूति के लिए त्वरित दौडी चली आई; इस कारण उसे त्वरिता नाम पडा । कालांतर से त्वरिता और आगे जाकर ‘तुळजा’ नाम रूढ हुआ ।
२. भक्तों की तारणहार श्री भवानीदेवी
भारत में त्रिगुणात्मक आदिशक्ति के ३ स्थान हैं । पहली कोलकाता की तमोगुणप्रधान श्री महाकाली, दूसरी कोल्हापुर (महाराष्ट्र) की रजोगुणप्रधान श्री महालक्ष्मी एवं तिसरी माहूर (महाराष्ट्र) की सवात्मक श्री महासरस्वती ! तुळजापुर की श्री भवानीदेवी का स्थान त्रिगुणात्मक अर्थात उक्त तीनों रूपों का अधिष्ठान समझा जाता है । प्रभु श्रीरामचंद्रजी वनवास के काल में जब सीतामाई की खोज कर रहे थे, तब श्री भगवती ने उन्हें दर्शन देकर ‘सीतामाई का शीघ्र ही शोध होगा’, यह आशीर्वाद दिया था ।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री भवानीदेवी के आशीर्वाद से ही मुगलों के विरुद्ध कडा संघर्ष कर स्वराज्य स्थापन किया । कृतयुग में अनुभूति हेतु, त्रेतायुग में श्रीरामचंद्र हेतु, द्वापरयुग में धर्मराज हेतु तथा कलियुग में छत्रपति शिवाजी महाराज के लिए आशीर्वादरूप प्रमाणित श्री भवानीदेवी भक्ततारिणी एवं वरप्रसादिनी है ।