आजकल पितृपक्ष चालू रहा है । इस उपलक्ष्य में श्रद्धावान हिन्दू प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा के पालन का प्रयास करते हैं । भले ही ऐसा हो; किंतु तथाकथित आधुनिकतावादी गिरोह हिन्दुओं के अन्य त्योहारों के भांति श्राद्धपक्ष के संदर्भ में भी हिन्दुओं का बुद्धिभ्रम करने का प्रयास कर हिन्दुओं को धर्माचरण से परावृत्त करने का प्रयास करते हैं । कई बार अज्ञान के कारण भी कुछ प्रथाएं स्थापित होने का दिखाई देता है । ‘पितृपक्ष एवं श्राद्ध के संदर्भ में धर्मशास्त्र क्या कहता है और आधुनिकतावादी इसपर क्या आपत्ति जताते हैं’, यह लोगों की समझ में आए; इसके लिए प्रस्तुत लेख का प्रयोजन है !
आलोचना १ : इस मास में (प्रमुखता से पितृपक्ष में) कई लोग महत्त्वपूर्ण काम नहीं करते । जिन्हें पैसे देने होते हैं अथवा किसी काम को टालना होता है, ऐसे लोग भी पितृपक्ष का कारण बताकर कामों को टाल देते हैं ।
खण्डन : पितृपक्ष (महालय) को निषिद्ध अथवा अशुभ मानने की मजाल यहांतक जा पहुंची है कि इस पक्ष में ‘विवाह’ शब्द का उच्चारण भी नहीं किया जाता । तो विवाह की चर्चा करना, घर को भेंट करना, विवाहनिश्चिती करना आदि बातें तो बहुत दूर होती हैं । वास्तव में विवाह की प्राथमिक सिद्धता आदि किसी भी बात के लिए पितृपक्ष कोई बाधा नहीं खडी करता ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ – त्योहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)
दूसरा सूत्र यह है कि ‘शास्त्रात् रूढिबलीयसी’ (अर्थात शास्त्र की अपेक्षा रुढीयां अधिक बलवान सिद्ध होती हैं), ऐसा कहा जाता है । अतः पितृपक्ष में संभवतः किसी भी मंगलकार्य की सिद्धता नहीं की जाती; किंतु इसका कोई भी शास्त्राधार नहीं है ।
आलोचना : जिस समय हम कौवे को पिता के रूप में निवाला देते हैं, तब यदि एक कौवे ने उसका स्पर्श किया, तो हम एक बार समझ सकते हैं; किंतु एक ही बार १०-१२ कौवों ने उसपर चोंचें मारी, तो उसका क्या अर्थ निकाला जा सकता है ? और वही कौवा यदि दूसरों की छज्जापर बैठ गया, तो उसका क्या अर्थ निकालें ? यह सब ढोंग है और धोखाधडी है । हम स्वयं के लिए ही यह सब करते हैं ।
खण्डन : श्राद्ध में पिंडदान के माध्यम से पूर्वजों का आवाहन कर उस पिंड के माध्यम से उनकी अतृप्त इच्छाओं की आपूर्ति की जाती है । सर्वसाधारण मनुष्य में वासनाओं की मात्रा अधिक होती है; इसलिए उसके लिंगदेह से विषम अर्थात रज-तमप्रधान विस्फुटित तरंगें बाहर निकलती हैं । कौवा अधिकाधिक विषम तरंगों को आकर्षित कर लेनेवाला पक्षी है; इसलिए उसे ये तरंगें प्रतीत होती हैं । पूर्वजों का लिंगदेह पिंड की ओर आकर्षित होता है, तब पिंड विषम तरंगों से भारित हो जाता है और कौवा इन तरंगों की ओर आकर्षित होता है । पिंड को कौवे द्वारा स्पर्श किए जाने का अर्थ है पूर्वजों का श्राद्धस्थलपर आकर उनकी तृप्ति हो जाना । इसे ही ‘कौवे द्वारा निवाला लिया जाना’ कहते हैं । इस प्रकार से वासनायुक्त लिंगदेह और मनुष्य इन के मध्य कौवा एक जोड (माध्यम) है ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध : महत्त्व एवं शास्त्रीय विवेचन)
इस शास्त्र को ध्यान में लिया जाए, तो पिंड को कई कौवों द्वारा स्पर्श किए जाने का अर्थ है आवाहन किए गए कई पूर्वज वहां उपस्थित हैं । कौआ तो केवल एक माध्यम होता है, इसे समझ लेना आवश्यक है । हिन्दू धर्म द्वारा बताए गए ४ ऋणों में पितृऋण का भी अंतर्भाव है । कौवे को एक विशेष दृष्टि प्राप्त है । मूलतः श्राद्धपक्ष केवल दिवंगत पिता के लिए ही नहीं, अपितु सभी दिवंगत पूर्वजों के लिए किया जाता है । अतः एक के स्थानपर कई कौवे पिंड का स्पर्श करते हैं, ऐसा कहना हास्यास्पद है । इसका अर्थ एक ही शिक्षक अलग-अलग वर्गों के छात्रों को कैसे सिखाता है, इस प्रकार की शंका उपस्थित करने जैसा है ।
आलोचना ३ : मृत्यु के पश्चात १०वां, १३वां आदि विधि करने की अपेक्षा मृत व्यक्ति के जीवित अवस्था में उनका अच्छा पालनपोषण करें और उनका सम्मान करें । यही वास्तविक सेवा सिद्ध होगी ।
खण्डन : हिन्दू धर्मशास्त्र बताते हैं कि परिजन की जीवित अवस्था में उनका ठीक से पालनपोषण करना प्रत्येक हिन्दू का परमकर्तव्य है । ‘मृत्योत्तर यात्रा सुखमय और क्लेशरहित हो, पूर्वजों को अगले लोगों में जाने हेतु सद्गति मिले; इसके लिए हिन्दू धर्म ने श्राद्धविधि करने के लिए कहा है । कहींपर भी ‘‘वयस्कों को जीवित अवस्था में कष्ट पहुंचाओ और उनकी मृत्यु के पश्चात उनका श्राद्धविधि करो’, ऐसा नहीं बताया गया है । कर्मसिद्धांत और पुर्नजन्म न माननेवाले ही इस प्रकार दुष्प्रचार कर सकते हैं ।
आलोचना ४ : पूर्वजों की सेवा करनी ही हो, तो अपने संपूर्ण वंश को एकत्रित करो । पूर्वजों का स्मरण रहे; इसके लिए छोटी-छोटी पुस्तकें छपवाएं । उनके स्मरणार्थ कोई विधायक कार्य, उदा. विद्यालय, ग्रंथालय और सामाजिक संगठनों को सहायता दें । पुरानी प्रथा को बंद कर नई प्रथा आरंभ करें; जिससे समाज में और नई अच्छी प्रथाओं का आरंभ होगा ।
खण्डन : छोटी-छोटी पुस्तकें छपवाने अथवा सामाजिक कार्य करनेपर किसी की आपत्ति नहीं हो सकती; किंतु उसके लिए श्राद्धविधि को छोडना, यह कौनसा तर्क है ? ‘श्राद्ध के स्थानपर सामाजिक कार्य करें’, ऐसा कहना ‘किसी रोगीपर शस्त्रकर्म करने के स्थानपर उन पैसों से सामाजिक कार्य करें’, ऐसा कहने जितना ही हास्यास्पद है । अध्यात्म अनुभूति का शास्त्र है । उसकी अनुभूति लेने हेतु उस विधि को श्रद्धा के साथ करना पडता है । उसे न करते ही इस सूत्र को भटकाते रहने का अर्थ चीनी का स्वाद न लेकर ही चीनी की मिठास क्या होती है, यह प्रमाणित करें, ऐसा कहने जैसा है ।
तथाकथित आधुनिकतावादी गिरोह हिन्दू धर्म में बताई गई प्रथा-परंपराओं की निरंतर द्वेषजन्य आलोचना कर सर्वसामान्य हिन्दुओं में उनके प्रति संदेह उत्पन्न कर रहे हैं । अमेरिका के हॉलीवूड अभिनेता सिल्वेस्टर स्टैलोन ने भारत आकर अपने पुत्र का श्राद्धविधि किया था । प्रतिवर्ष असंख्य विदेशी लोग श्राद्धविधि करने हेतु भारत आते हैं । इस वर्ष भी नाईजेरिया, रुस, युनाईटेड किंगडम आदि कई देशों के लोग गया में श्राद्धविधि करने हेतु आए थे । जिनकी बुद्धिपर पुरानी प्रथाओं को बंद कर नई प्रथाएं आरंभ करने का पाश्चात्त्य भूत सवार है, उन्हीं पाश्चात्त्य देशों के लोग आज भारत के तीर्थस्थानोंपर आकर श्राद्धादि विधि करते हैं, साथ ही कई विदेशी शोधकर्ता श्राद्ध के संदर्भ में शोधकार्य भी कर रहे हैं, इसे ध्यान में लेना होगा ।
कथित आधुनिकतावादियों के धर्मविरोधी षड्यंत्र की बलि न चढकर हिन्दुओं को ‘श्राद्ध’ की ओर सकारात्मक एवं अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टि से देखना आवश्यक है ।