१. अनाज भूमिके नीचे, मिट्टीसे बने बडे घडोंमें संग्रहित रखना
‘पूर्वकालमें घरमें भूमिके नीचे ही अनाजके घडे अथवा भंडारगृह हुआ करते थे । ये भंडारगृह भूमितत्त्वसे, अर्थात पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित थे; इसलिए अनाजमें पृथ्वीतत्त्व का संवर्धन होता था । पृथ्वी और आपकी धारणासे बने मनुष्यके लिए वह अन्न ग्रहण करनेमें अधिक सरल और देहके विकास हेतु पूरक होता था । ये विशाल अनाजके घडे दीर्घवृत्ताकार होते थे और उनमें एक प्रकारका नाद घनीभूत होता था ।
इस नादकी सहायतासे भूमिके संपर्कमें रखा अनाज रज-तमात्मक धारणासे मुक्त रहता था । इस प्रकार अनाजको भूमिगत भंडारोंमें संग्रहित करना और कुछ दिनोंके उपरांत उसे ग्रहण करना भी एक उत्तम आचारका ही भाग था ।’ – एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, 29.10.2007, दिन 9.46
२. गोबरसे लीपे भंडार-पात्रमें अनाज संग्रहित करना !
‘पूर्वकालमें गोबरसे लीपे भंडार-पात्रमें अनाज संग्रहित किया जाता था । इस प्रकार रज-तम तरंगोंसे अनाजकी रक्षा होती थी ।’
३. घरमें रखे अनाजके संग्रहके निकट
किसी देवताकी सात्त्विक नामजपकी पट्टी रखें !
‘आजकल सभी स्थानोंपर काली शक्तिका आवरण बढ गया है । इसलिए घरके अनाजपर भी आवरण आता है । उनपर आवरण न आए, इसलिए घरमें रखे अनाजके संग्रहके निकट किसी देवताकी सात्त्विक नामजप-पट्टी रखें । इस प्रकार नामजप-पट्टीमें विद्यमान चैतन्य अनाजमें संचारित होगा तथा उस चैतन्यका लाभ अन्न ग्रहण करते समय भी होगा । इसीके साथ दिनमें एक बार सात्त्विक अगरबत्ती भी उस अनाजके संग्रहपर घुमाएं ।
४. अनाजमें चुटकीभर अगरबत्तीकी विभूति मिलाएं ।
२ अ. वास्तुशुद्धि करते समय वास्तुके सर्व ओर, घरके उपकरण, अन्न-अनाज और पानीके सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनाने हेतु श्रीकृष्णसे प्रार्थना करें ।’
५. अनाज फटकनेसे उसके त्याज्य पदार्थ
बाह्य दिशामें फेंके जाना और सूपमें रज-तमात्मक तरंगें घनीभूत होना
‘इस क्रियाद्वारा अनाजकी रज-तमात्मक तरंगोंको सूपके रिक्त आकारमें अधिकाधिक घनीभूत करनेका प्रयास किया जाता है । साथ ही इस प्रक्रियामें स्थूलरूपसे त्याज्य पदार्थ भी अनाजसे बाह्य दिशामें फेंके जाते हैं । सूपकी रिक्तिमें तमकी अपेक्षा रजकी प्रबलता अधिक रहती है । तमोगुण केवल विशिष्ट तरंगोंको जडता प्रदान करनेतक ही सीमित रहता है । इसलिए सूपमें रखी जानेवाली प्रत्येक वस्तुकी
रज-तमात्मक तरंगें सूपके रिक्त आकारकी ओर आकर्षित होकर उसमें घनीभूत होती है और सूक्ष्म स्तरपर आंशिक मात्रामें फटकनेकी क्रियाद्वारा होनेवाले वायुके स्पर्शसे अनाज शुद्ध होता है ।
६. अनाज धोनेसे उसकी रज-तमात्मक तरंगें नष्ट
होना तथा उसे सुखाकर जांतेमें पीसनेसे सात्त्विक बनना
फटकनेकी प्रक्रियाद्वारा सूक्ष्म स्तरपर अनाजका पूर्णरूपसे शुद्धीकरण नहीं होता; इसलिए पूर्वकालमें ऐसा अनाज धोकर उसे सुखाकर चक्कीमें पीसनेकी परिपाटी थी । जलसे अनाज धोकर उसे सुखानेके उपरांत जांतेमें पीसनेसे, अनाज धोते समय जलमें अनाजकी रज-तमात्मक तरंगें समाहित हो जाती थीं । अनाज सुखानेसे उसमें शेष कष्टदायक स्पंदन धूपके तेजसे नष्ट हो जाते हैं । ऐसा शुद्ध अनाज जांतेमें दक्षिणावर्त अर्थात घडीकी दिशामें हाथकी गतिविधियोंसे और अधिक शुद्ध एवं अच्छे स्पंदनोंसे संचारित कर उससे आटा बनाया जाता है । इससे बना अन्न अत्यंत सात्त्विक होता है । जांतेपर झुककर अनाज पीसते समय जीवके नाभिस्थित पंचप्राण कार्यरत होते हैं और उसकी सूर्यनाडी जागृत होती है । इस नाडीके कारण होनेवाली हाथकी गतिविधिद्वारा इस क्रियाको वायुमंडलमें विद्यमान रजतमात्मक स्पंदनोंके आक्रमणोंसे पूर्ण सुरक्षा दी जाती है ।’
– एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळके माध्यमसे, 5.3.2008, दोपहर 3.13