१. सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी
द्वारा संगीत कला के संदर्भ में किया गया मार्गदर्शन
१ अ. गीत का अभ्यास करते हुए ध्यान में रखने योग्य सूत्र
१ अ १. आरती गाते समय नीचली पट्टी में (सप्तक में) गाना आध्यात्मिकदृष्टि से योग्य होना
हम मूल गायक द्वारा गाई आरती को सुनकर उसकी भांति ऊंचे स्वर में (उपरी पट्टी में) आरती गा रहे थे । उसे सुननेपर सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने कहा, ‘‘इस प्रकार आरती गाने से आरती का नाद गानेवालों के (तुम्हारे) अंतर में नहीं जाता । वह नाद बाहर ही रह जाता है । आप किसी गीत को जितनी नीचली पट्टी में (सप्तक में) गाएंगे, उतना ही वह आध्यात्मिकदृष्टि से लाभदायक है ।’’
१ अ २. गीत का अभ्यास चैतन्य एवं भाव के स्तरपर होना चाहिए
किसी भी गीत का अभ्यास का अर्थ ‘केवल गीत गाना’, ऐसा नहीं होना चाहिए, अपितु गीत का अभ्यास चैतन्य एवं भाव के स्तरपर होना चाहिए । संत मीराबाई जब भजन गाती थीं, तब उसके सामने साक्षात भगवान प्रकट होते थे । ‘गीत के अभ्यास के समय हमारे सामने भगवान कितनी बार साकार हुए ?’, यह देखना चाहिए और उसी पद्धति से गायन होना चाहिए । गीत इतना भावपूर्ण होना चाहिए कि उससे गायक के मन में भावनिर्मिति होनी चाहिए और वैसा होनेपर श्रोताओं की भावजागृति भी अपनेआप हो जाती है ।
१ अ ३. गीत गाते समय उस गीत के अंदर और अपने अंतर में जाना है, इस पद्धति से उसका अभ्यास करना चाहिए !
गीत गाते समय ‘वह दूसरों के लिए नहीं, अपितु मैं स्वयं के लिए गा रहा हूं’, इसे ध्यान में रखकर हमें उस गीत के अंदर और अपने अंतर में जाना है’, इस पद्धति से अभ्यास करना चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता हो, तो उस गाने के भावपूर्ण होनेतक उसे पुनः पुनः गाने का प्रयास करना चाहिए ।
१ आ. नादब्रह्म को शब्दब्रह्म से जोडने हेतु गाने के शब्दों का योग्य पद्धति से उच्चारण होना महत्त्वपूर्ण !
१ आ १. गायक द्वारा गाने के शब्दों को योग्य पद्धति से उच्चारण किया गया, तो उस नाद का गायक के कुंडलिनीचक्रपर आघात होकर उसकी कुंडलिनी का जागृत होना और उसका परिणाम श्रोताओंपर होकर उनकी भी कुंडलिनी जागृत होकर उनका ध्यानावस्थान में चला जाना
आरती अथवा किसी भी गीत को गाते समय उसमें निहित शब्दों का उच्चारण तथा शब्दोंपर योग्य पद्धति से बल दिए जानेपर उससे शब्दब्रह्म प्रकट होता है, उदा. आरती में ‘ठ’, ‘भ’ जैसे नाभि से प्रकट होनेवाले शब्दों को योग्य प्रकार से गाने से उस नाद का गायक की कुंडलिनीपर आघात होकर उसकी कुंडलिनी जागृत होती है और उसका परिणाम श्रोताओंपर होकर उनकी भी कुंडलिनी अपनेआप जागृत होकर वे अपनेआप ध्यानावस्था में चले जाते हैं ।
१ आ २. सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने बताया, ‘‘गायन के समय मेरे मन में ईश्वर के संदर्भ में ‘ईश्वर के विचार कितने समयतक थे ?’, इसकी स्वयं ही स्वयं का प्रतिशत ढूंढने का तथा उसे बढाने का प्रयास करना चाहिए ।
१ इ. आरती में अनुभव होनेवाला ईश्वर का निर्गुण-सगुण-निर्गुण स्वरूप
किसी भी देवता की आरती गाने का आरंभ करने से पूर्व वहां उस देवता का निर्गुण तत्त्व कार्यरत होता है । जब हम आरती गाना आरंभ करते हैं, उसके पश्चात उस देवता का सगुण तत्त्व कार्यरत होता है तथश आरती की पंक्तियों में से अंतिम अक्षर का उच्चारण कर रुकनेपर पुनः निर्गुण तत्त्व कार्यरत होता है, उदा. श्री सत्यनारायण देवता के आरती में विद्यमान पहली पंक्ति‘जय लक्ष्मीरमणा । स्वामी जय लक्ष्मीरमणा ॥ गाना आरंभ करने से पूर्व अर्थात गायन के पूर्व वहां उस देवता का निर्गुण तत्त्व होता है । आरती की पंक्ति गाना आरंभ करनेपर यह ईश्वरीय तत्त्व शब्दों के माध्यम से सगुण साकार होता है और उस पंक्ति के पूर्ण होनेपर वह पुनः निर्गुण में चला जाता है, ऐसा अनुभव होता है । अतः आरती की अंतिम पंक्ति के अंतिम अक्षर का सूर, उदा. इस आरती में ‘णा’ अक्षर) को अधिक लंबा न खींचकर उच्चारण के तुरंत पश्चात उसे छोड देना चाहिए । उससे उस स्वर के स्पंदन (आस) टिके रहते हैं और वो निर्गुण की ओर ले जानेवाले होते हैं । इस प्रकार से आरती गाने का अर्थ निर्गुण-सगुण-निर्गुण का प्रवास है ।
– कु. तेजल पात्रीकर आणि सौ. अनघा जोशी, संगीत विभाग, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.