मनुष्य के सर्वांगीण कल्याण हेतु अपना जीवन समर्पित करनेवाले ऋषिमुनियों के चरणों में कोटिशः प्रणाम !
‘ऋषि अथवा मुनि कहनेपर हमारे हाथ अपनेआप जुड जाते हैं और मस्तक सम्मान से झुक जाता है । इस भरतखण्ड में कई ऋषियों ने विविध योगमार्गों के अनुसार साधना कर भारत को तपोभूमि बनाया है । उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म के विषयपर प्रचुर लेखन किया है और समाज में धर्माचरण एवं साधना का प्रसार कर समाज को सुसंस्कृत बनाया है । आज का मनुष्य प्राचीन काल के विविध ऋषियों का वंशज ही है; परंतु मनुष्य को इसका विस्मरण होने से उसे ऋषियों का आध्यात्मिक महत्त्व ज्ञात नहीं है । साधना करनेपर ही हमें ऋषियों का महत्त्व और सामर्थ्य समझ में आ सकता है ।
१. ‘ऋषि’ शब्द का अर्थ
ईश्वरप्राप्ति हेतु जो दीर्घकालीन साधना करते हैं, उन्हें ऋषि कहते हैं ।
२. ऋषिपंचमी तिथि
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषिपंचमी कहा जाता है । धर्मशास्त्र में इस दिन पूजन करने का व्रत बताया गया है ।
३. व्रत का उद्देश्य
मासिकधर्म, अशौच और स्पर्शास्पर्श का महिलाओंपर होनेवाला परिणाम इस व्रत से न्यून होता है ।
४. ऋषिपंचमी के दिन महिलाओं ने व्रत कर
सप्तर्षियों का पूजन करने से मासिक धर्म से उत्पन्न दोषों का नष्ट होता है ।
इस दिन महिलाओं ने व्रत कर अरुंधतीसहित सप्तर्षियों का पूजन किया, तो मासिकधर्म, अशौच एवं स्पर्शास्पर्श से उत्पन्न दोष नष्ट होते हैं । इससे हमें ऋषियों का सामर्थ्य ध्यान में आता है । ऋषियों में ज्ञानबल, योगबल, तपोबल और आत्मबल होने के कारण उनके सामर्थ्य से कर्मदोष नष्ट होकर पापों का क्षालन होता है ।
५. विविध प्रकार के बल, उनमें कार्यरत शक्ति, सूक्ष्म देहोंपर
होनेवाला परिणाम, पाप नष्ट होने की प्रक्रिया, प्रारब्ध और पाप नष्ट होने की मात्रा
कार्यरत शक्ति | किस देहपर परिणाम होता है ? | पाप नष्ट होने की प्रक्रिया | प्रारब्ध नष्ट होने की मात्रा (प्रतिशत) | पाप नष्ट होने की मात्रा (प्रतिशत) | |
१. बाहुबल | शारीरिकशक्ति | स्थूल देह (शरीर) | शारीरिक कृत्य, उदा. गोसेवा करना | २० | २० |
२.बुद्धिबल | बौद्धिक शक्ति | कारणदेह (स्थूल बुद्धि) | बुद्धि के सात्त्विक बन जाने से मनुष्य द्वारा सत्कर्म होना | २० | २५ |
३. योगबल | योगशक्ति | मनोदेह एवं कारणदेह | योगसामर्थ्य से, उदा. कुंडलिनीशक्ति को जागृति कर सप्तचक्र और नाडियों की शुद्धि करना | ३० | ४० |
४. ज्ञानबल | ज्ञानशक्ति | कारणदेह (सूक्ष्म बुद्धि) | ज्ञानशक्ति के सामर्थ्य से प्रारब्ध और पाप नष्ट होना | ४० | ५० |
५. देवबल | दैवीय शक्ति | चित्त | दैवीय शक्ति की सहायता से, उदा. देवताओं द्वारा दृष्टांत देकर कृपा की जाना | ५० | ६० |
६. तपोबल | तपःशक्ति | महाकारणदेह | तपोबल से शक्तिपात करना | ६० | ७० |
७.आत्मबल | आत्मशक्ति | जीवात्मा | गुरुकृपा से आत्मज्ञान प्राप्त होने से आत्मशक्ति प्रकट होकर उसका सुषुम्नानाडी के द्वारा कार्यरत हो जाना | ७० | ९० |
८. गुरुबल | परमशक्ति | परमात्मा | श्रीगुरु की कृपा से ग्रहदोष, नक्षत्रदोष, कर्मदोष, स्वभावदोष आदि सभी प्रकार के दोष नष्ट होना | १०० | १०० |
६. गुरुबल का अनन्यसाधारण महत्त्व
उक्त सभी प्रकार के बलों में गुरुबल सर्वाधिक शक्तिशाली होने के कारण श्रीगुरु की कृपा संपादन करने हेतु प्रयास करने से साधक को सर्वाधिक मात्रा में आध्यात्मिक स्तरपर लाभ होकर उसकी शीघ्रातिशीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होकर उसे मोक्ष प्राप्त होता है । अतः जिन्हें गुरु प्राप्त हुए हैं, उन्हें कोई भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं । गुरु के प्रति संपूर्णरुप से शरणागत शिष्य का सभी भार गुरु उठाते हैं । इससे गुरुकृपा संपादन करने हेतु गुरुकृपायोग के अनुसार व्यष्टि और समष्टि साधना का महत्त्व ध्यान में आता है ।
७. विविध देवताओं की उपासना करनेवाले ऋषी
प्राचीन काल में योगसाधना और तप करने से ऋषिमुनियों को क्रमशा योगबल एवं तपोबल प्राप्त होता था । ये ऋषिमुनी विविध देवताओं की उपासना करते थे, जिससे उनपर देवताओं की कृपा होकर उन्हें देवबल भी प्राप्त होता था ।
उपास्य देवता | देवता के भक्त ऋषी |
१. श्री गणेश | भृशुंडीऋषी, गणकऋषी, वामदेवऋषी, पराशरऋषी एवं महर्षि व्यास |
२. श्रीविष्णु एवं उनके रूप | वसिष्ठऋषी, भृगुऋषी, वाल्मीकिऋषी, उत्तंगऋषी, शांडिल्यऋषी, गर्गमुनि, कण्डुमुनि एवं नारदमुनि |
३. शिव | पिपलादऋषी, और्वऋषी, च्यवनऋषी, धौम्यऋषी, शिलादऋषी, शिलादऋषी, दधीचऋषी, गौतमऋषी, शौनकऋषी, जमदग्निऋषी, गौतमऋषी, सांदीपनिऋषी, कश्यपऋषी, अगस्तिऋषी एवं शुक्राचार्य |
४. दत्त | अत्रिऋषी एवं परशुरामऋषी |
५. देवी | त्वष्टाऋषी एवं मार्कण्डेयऋषी (टिप्पणी) |
६. सूर्य | याज्ञवल्क्यऋषी |
टिप्पणी : मार्कण्डेयऋषी ने महामृत्युंजय जाप कर शिवजी की उपासना की और देवी की उपासना कर दुर्गासप्तशती ग्रंथ की रचना की ।
८. सत्य, त्रेता एवं द्वापर इन युगों में
ऋषिमुनियों का योगमार्ग, योगमार्ग का सूक्ष्म
रंग, योगमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले ऋषिमुनियों का
उदाहरण एवं योगमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले ऋषिमुनियों की मात्रा
योग | योगमार्ग का सूक्ष्म रंग | योगमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले ऋषिमुनियों का उदाहरण | योगमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले ऋषिमुनियों की मात्रा (प्रतिशत) |
१. कर्मयोग | भूरा | विश्वामित्रऋषी, कश्यपऋषी एवं गौतमऋषी | २० |
२.ध्यानयोग | केसरिया | दधीचऋषी, च्यवनऋषि एवं अत्रिऋषी | ३० |
३. ज्ञानयोग | पीला सा | महर्षि व्यास, ऐतरेयऋषी, शौनकऋषी एवंभारद्वाजमुनि | ४० |
४. भक्तियोग | नीला सा | वाल्मीकिऋषी एवं नारदमुनि | ४० |
५. शक्तिपातयोग | सिंदुरिया | त्वष्टाऋषी | २० |
९. ऋषिमुनि एवं संत इनमें निहित अंतर
ऋषिमुनी | संत | |
१. साधनामार्ग | ध्यान, ज्ञान अथवा कर्मयोग | अधिकांश लोगों का भक्तियोग |
२. सूक्ष्म देहों का रंग | पीला सा श्वेत | नीला सा श्वेत |
३. सगुण / निर्गुण तत्त्व की उपासना | निर्गुण – सगुण | सगुण – निर्गुण |
४. सामर्थ्य | ||
४ अ. साधना के कारण मिलनेवाले बल का प्रकार | योगसाधना के कारण योगबल और तपश्चर्या के कारण तपोबल | भक्ति के कारण आत्मबल तथा गुरुकृपा से गुरुबल |
४ आ.व्यक्त / अव्यक्त | व्यक्त | अव्यक्त |
४ इ. स्वरूप-आशीर्वाद / शाप | अच्छा कर्म करनेवाले को आशीर्वाद देना अथवा बुरा कर्म करनेवाले को शाप देना | किसी का प्रारब्ध न्यून करना तथा उसमें ईश्वरभक्ति की प्रेरणा को जागृत करना |
४ ई.साधक और शिष्यों का निर्भर / स्वयंपूर्ण होना | ऋषी शाप अथवा आशीर्वाद देते हैं; इसलिए साधक और शिष्यों का उनपर अधिक निर्भर होना | साधक एवं शिष्यों का शीघ्र स्वयंपूर्ण बन जाना |
५. संबंधित युग | सत्य, त्रेता एवं द्वापर | कलि |
६. संबंधित लोग | ऋषिलोक (टिप्पणी) | जनलोक |
७. उनके संदर्भ में आनेवाली अनुभूति | अच्छी शक्ति प्रतीत होना | भाव प्रतीत होकर आनंद की अनुभूति होना |
टिप्पणी : जन एवं तप इन लोकों के मध्य में ऋषिलोक है ।
१०. कलियुग में विविध ऋषिमुनियों द्वारा संतों
के रूप में जन्म लेकर शेष साधना को पूर्ण किया जाना
विविध योगमार्गों के अनुसार साधना कर भी ईश्वर के प्रति भाव उत्पन्न न होने से ऋषिमुनी संतुष्ट नहीं थे । उसके कारण कुछ ऋषिमुनियों ने द्वापरयुग में गोपियों के रूप में जन्म लेकर भगवान का मूर्तिमंत स्वरूप श्रीकृष्णजी के सगुण रुपपर आध्यात्मिक प्रेम किया । उसी प्रकार से कई ऋषिमुनी कलियुग में संतों के रूप में जन्म लेकर भक्तियोग के अनुसार साधना कर पूर्णत्व को पहुंचे हैं । अतः ऋषियों को योगबल, तपोबल, ज्ञानबल एवं देवबल के साथ ही भक्ति करने के कारण आत्मबल तथा गुरुकृपा के कारण गुरुबल की भी प्राप्ति होती है और तब उनकी मोक्षसाधना पूर्णत्व को पहुंचती है । संतों के सान्निध्य में रहने से तथा उनके मार्गदर्शन के कारण कलियुग के कई जीवों का उद्धार होता है । कलियुग में सच्चे संतों के दर्शन होना दुर्लभ होते हुए भी आज सनातन संस्था में १०० से भी अधिक संत हैं । कितनी गुरुकृपा है यह ! साधनों को इस घोर कलियुग में गुरुकृपायोग के अनुसार साधना करनेवाले विविध संतों के रूप में विवध सूक्ष्म लोकों में तथा युगों में विद्यमान ऋषिमुनियों के ही दर्शन हो रहे हैं । इसलिए हम सभी साधक ऋषितुल्य सभी संतों के चरणों में कृतज्ञ हैं ।
१ १ . योगमार्ग , सनातन के संतों के कुछ उदाहरण और संतों की मात्रा (प्रतिशत)
योगमार्ग | सनातन के संतों के कुछ उदाहरण | संतों की मात्रा (प्रतिशत) |
१. गुरुकृपायोगांतर्गत कर्मयोग | सद्गुरु (डॉ.) चारुदत्त पिंगळेजी, पू. उमेश शेणै, पू. पृथ्वीराज हजारे, पू. कुसुम जलतारेदादी, पू. (डॉ.) भगवंतराय मेनराय, सद्गुरु राजेंद्र शिंदेजी, सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडयेजी एवं सद्गुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी | ३० |
२. गुरुकृपायोगांतर्गत ध्यानयोग | सद्गुरु सत्यवान कदमजी, पू. मुकुल गाडगीळ एवं पू. सौरभ जोशी | १० |
३. गुरुकृपायोगांतर्गत ज्ञानयोग | परात्पर गुरु पांडे महाराज, सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी एवं पू. (श्रीमती) अश्विनी पवार | १० |
४. गुरुकृपायोगांतर्गत शक्तिपातयोग | – | – |
५. गुरुकृपायोगांतर्गत भक्तियोग | प.पू. दास महाराज, सद्गुरु नंदकुमार जाधवजी, पू. विनायक कर्वे (कर्वेमामा, पू. (श्रीमती) सूरजकांता मेनराय, सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी एवं पू. संगीता जाधव | ५० |
कुल | १०० |
संत एवं गुरुमाता के चरणों में कृतज्ञता
ईश्वर की कृपा से साधकों को संतों का सत्संग और मार्गदर्शन मिल रहा है, साथ ही उन्हें उनकी सेवा का अमूल्य अवसर भी मिल रहा है; इसके लिए हम सभी साधक संतों के चरणों में कृतज्ञ हैं । केवल परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के रूप में हमे विविध संतों की कृपा प्राप्त हो रही है; इसके लिए हम परात्पर गुरुमाता के चरणों में कोटिशः कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।’
– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा