स्त्री अथवा पुरुष संतों का सम्मान (सत्कार) करने की योग्य पद्धति

जो गुरुपदपर आसीन हो और जिसका अहं अल्प हो वह जीव ईश्वर को भी परमप्रिय होता है । ऐसा जीव ही संपूर्ण मानवजाति की दृष्टि से सम्माननीय होता है । इसलिए संतों के संदर्भ में ‘सत्कार’ की अपेक्षा ‘सम्मान’ संज्ञा का प्रयोग करें ।

 

१. पाद्यपूजा

संतों के सम्मान के लिए उनकी पाद्यपूजा से प्रत्यक्ष विधि आरंभ करें ।

पाद्यपूजा की विधि करनेवाले के आसपास वायु-मंडल में व्याप्त ईश्वर की निर्गुण तरंगों के जागृत एवं कार्यरत होने में सहायता मिलती है ।

 

२. गुनगुने जल से चरण धोना

गुनगुने जल के स्पर्श से संतों की देह से ईश्वर का निर्गुण चैतन्य प्रकट होता है । इन चैतन्य की तरंगों से, वातावरण के कष्टदायक स्पंदनों के नष्ट होने में सहायता मिलती है । ब्रह्मांड में कार्यरत ईश्वर की सगुण तारक-मारक संयुक्त तरंगों का स्पर्श गुनगुना होता है, इसके प्रतीकस्वरूप गुनगुने जल का प्रयोग करते हैं । तारक-मारक संयुक्त तत्त्वों की तरंगें, जीव के लिए आवश्यकतानुसार दोनों स्तरोंपर कार्य करती हैं । गुनगुने जल से चरण धोते समय जीव का अहं जितना अल्प होगा, उतना निर्गुण तत्त्व संतों के माध्यम से जीव के लिए अधिक कार्य करेगा ।

 

३. दूध से चरण धोना

दूध के सगुण चैतन्यस्रोत के कारण संतों की प्रत्यक्ष क्रिया-शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है । इससे कार्यस्थल में अनिष्ट शक्तियों का संचार प्रतिबंधित होता है व कार्यस्थल के आसपास सुरक्षा कवच निर्मित होता है ।

 

४. दुबारा गुनगुने जल से चरण धोना

इससे संतों में कार्यरत क्रियाशक्ति को ईश्वर की निर्गुण ऊर्जा का बल प्राप्त होता है तथा संतों की आत्मशक्ति जागृत होती है ।

 

५. दोनों चरणोंपर चंदन से स्वस्तिक बनाना

स्वस्तिक बनाने से संतों के माध्यम से आदिशक्ति का तत्त्व कार्यरत होता है । इससे कार्य मेें शिव एवं शक्ति, दोनों का योग होता है तथा कार्य को गति प्राप्त होती है ।

 

६. स्वस्तिक के मध्यभाग में कुमकुम लगाना

कुमकुम लगाने से ब्रह्मांड में श्री दुर्गादेवी की कार्यरत शक्ति का स्रोत कुमकुम की ओर आकर्षित होनेपर स्वस्तिक के केंद्रबिंदु में घनीभूत होता है और आवश्यकता के अनुसार समष्टि के लिए कार्य करता है ।

 

७. चरणोंपर पुष्प अर्पित करना

फूल से प्रक्षेपित गंधतरंगों के कारण संतों की चित्तशक्ति जागृत होती है और इस चित्तशक्ति के माध्यम से ईश्वर की संकल्पशक्ति समष्टि की आध्यात्मिक उन्नति के लिए कार्य करती हैं ।

 

८. संतों के सम्मान अंतर्गत अन्य विधियां

अ. चंदन का तिलक, कुमकुम तिलक अथवा हलदी-कुमकुम लगाना

संत दाहिने हाथ की अनामिका से (छोटी उंगली के पासवाली उंगली से) चंदन का तिलक, कुमकुम-तिलक अथवा हलदी-कुमकुम (स्त्री हो तो हलदी-कुमकुम) लगाएं ।

आ. शाल अर्पण करना

शाल अर्पण करते समय उसे उनकी पीठ के ऊपर से कंधों के सामने लाएं । तदुपरांत उन्हें श्रीफल (नारियल) दें । श्रीफल की शिखा सत्कारमूर्ति की दिशा में हो ।

संत को शाल अर्पण करने का अर्थ है उन संत में सक्रिय ईश्वरीय तत्त्व को मूर्त स्वरूप देकर नित्य सगुण में आकर कार्य करने की प्रार्थना करना । शाल एवं श्रीफल अर्पण करना, संत में विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व का सम्मान है । श्रीफल में संत की देह से प्रक्षेपित तरंगें आकृष्ट होने, तथा वे वातावरण में प्रक्षेपित होने में सहायता मिलती है । श्रीफल शुभकार्य का भी प्रतीक है ।

इ. हार पहनाना

हार इतना लंबा हो कि उनकी नाभितक (मणिपुरचक्रतक) पहुंचे ।

हार पहनाना, अर्थात वह व्यक्ति और उसके आसपास बने सात्त्विक वायुमंडल की पूजा करना ।

ई. दीप से आरती उतारना

आरती की थाली में मध्यभाग में संतों के लिए घी का दीप, दीप के पास (अपने बाई ओर) थोडी अक्षत और एक सुपारी रखें । निरांजन को चंदन और फूल चढाएं और घी के दीप से ३ बार उतारें ।

आरती उतारने के माध्यम से आरती करवानेवाले जीव को देवता के आशीर्वाद मिलने में सहायता होती है ।

उ. आंचलभराई

सौभाग्यवती (विवाहित स्त्री की) चोलीवस्त्र (ब्लाऊजपीस), श्रीफल और साडी से आंचलभराई करें ।

स्त्री आदिशक्ति की प्रतीक है, इसलिए आंचलभराई करते हैं ।

ऊ. भेंटवस्तु देना

संत को राष्ट्र, धर्म अथवा अध्यात्म संबंधी ग्रंथ, दृश्यश्रव्य-चक्रिका (वीसीडी), मिठाई इत्यादि भेंटवस्तु दें ।

संत को भेंटवस्तु के माध्यम से किए अर्पण का उचित उपयोग होता है । उचित उपयोग होना अर्थात अपना अर्पण आध्यात्मिक कार्य के लिए देना ।

ए. नमस्कार करना

‘व्यक्ति के आंतरिक देवत्व की हम शरण जा रहे हैं’, ऐसा भाव रखकर संतों को नमस्कार करें अथवा साष्टांग प्रणाम करें ।’

 

९. सत्कार अंतर्गत क्या न करें ?

१. संभव हो, तो पश्चिमी संस्कृति के अनुसार वस्त्र, उदा. शर्ट-पैंट न परिधान करें । उसके स्थानपर भारतीय संस्कृति के अनुसार पहनावा, उदा. कुर्ता-पजामा परिधान करें ।

२. जूते-चप्पल पहनकर सत्कार न करें; यह सत्कार-मूर्ति के देवत्व का अपमान करने समान है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पारिवारिक धार्मिक व सामाजिक कृत्योंका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’

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