अनुक्रमणिका
- १. शिव पूजा उपासनांतर्गत पिंडीकी पूजा
- १ अ. शिवपिंडी की परिक्रमा कैसे करें ?
- १ आ. शिवपिंडी की परिक्रमा करते समय अरघा के स्त्रोत को क्यों नही लांघते ?
- १ इ. पिंडी को स्नान कराना
- १ ई. शिवपिंडी पर हलदी-कुमकुम चढाने की अपेक्षा पिंडी को भस्म क्यों लगाएं ?
- १ उ. शिव पूजा में अन्य एक महत्त्वपूर्ण घटक है, श्वेत अक्षत
- १ ऊ. शिव पूजा में प्रयुक्त पुष्प
- १ ए. शिव पूजा में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा शिवजीको प्रिय घटक है बिल्वपत्र
- १ ऐ. शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडने के नियम
- २. कालानुसार आवश्यक उपासना
१. शिव पूजा उपासनांतर्गत पिंडीकी पूजा
१ अ. शिवपिंडी की परिक्रमा कैसे करें ?
शिवजी की परिक्रमा चंद्रकला के समान अर्थात सोमसूत्री होती है । सूत्र का अर्थ है, नाला । अरघा से उत्तर दिशा की ओर, अर्थात सोम की दिशा की ओर, जो सूत्र जाता है, उसे सोमसूत्र या जलप्रणालिका कहते हैं । परिक्रमा बाई ओरसे आरंभ कर जलप्रणालिका के दूसरे छोर तक जाते हैं । उसे न लांघते हुए मुडकर पुनः जलप्रणालिका तक आते हैं । ऐसा करने से एक परिक्रमा पूर्ण होती है । यह नियम केवल मानवस्थापित अथवा मानवनिर्मित शिवलिंग के लिए ही लागू होता है; स्वयंभू लिंग या चल अर्थात पूजाघर में स्थापित लिंग के लिए नहीं ।
१ आ. शिवपिंडी की परिक्रमा करते समय अरघा के स्त्रोत को क्यों नही लांघते ?
अरघा के जलप्रणालिका से शक्तिस्रोत प्रक्षेपित होता है । उसे लांघते समय पैर फैलने से वीर्यनिर्मिति एवं पांच अंतस्थ वायुओंपर विपरीत परिणाम होता है । इससे देवदत्त एवं धनंजय इन वायु के प्रवाह में रुकावट निर्माण हो जाती है । तथा इस स्रोत से शिव की तमप्रधान लयकारी सगुण तरंगें पृथ्वी तथा तेज तत्त्वोंके प्राबल्य के साथ प्रक्षेपित होती रहती है । परिणामस्वरूप व्यक्ति को अचानक मिरगी आना, मुंह में फेन अर्थात फ्रोत आना, देह में ऊष्णता निर्माण होकर देह का तप्त होना, हड्डियां टेढी होना, दांत बजना जैसे कष्ट होने की आशंका रहती है । इसलिए ऐसे शिवलिंग की अर्ध गोलाकृति पद्धतिसे परिक्रमा करते हैं । शिवजी की परिक्रमा पुरी करने के उपरांत कुछ शिवभक्त शिवउपासना में शिवमहिम्नस्तोत्र, शिवकवच इनका पाठ विशेष रूपसे करते है । पाठ करने के साथही शिवतत्त्व का अधिकाधिक लाभ पाने के लिए महाशिवरात्रि पर शिवजी के नाम का जप अधिकाधिक करें ।
१ इ. पिंडी को स्नान कराना
शिवजीकी पिंडीको ठंडे जल, दूध एवं पंचामृतसे स्नान कराते हैं । चौदहवीं शताब्दिसे पूर्व शिवजीकी पिंडीको केवल जलसे स्नान करवाया जाता था; दूध एवं पंचामृतसे नहीं । दूध एवं घी ‘स्थिति’ के प्रतीक हैं, इसलिए ‘लय’ के देवता शिवजीकी पूजामें उनका उपयोग नहीं किया जाता था । चौदहवीं शताब्दिमें दूधको शक्तिका प्रतीक मानकर प्रचलित पंचामृतस्नान, दुग्धस्नान इत्यादि अपनाए गए । किसी भी देवतापूजनमें मूर्तिको स्नान करानेके उपरांत हलदी-कुमकुम चढाया जाता है । परंतु शिवजीकी पिंडीकी पूजामें हलदी एवं कुमकुम निषिद्ध माना गया है ।
१ ई. शिवपिंडी पर हलदी-कुमकुम चढाने की अपेक्षा पिंडी को भस्म क्यों लगाएं ?
हल्दी मिट्टीमें उगती है । यह उत्पत्तिका प्रतीक है । कुमकुम भी हल्दीसे ही तैयार होता है, इसलिए वह भी उत्पत्तिका ही प्रतीक है । शिवजी ‘लय’के देवता हैं, इसीलिए ‘उत्पत्ति’के प्रतीक हल्दी-कुमकुमका प्रयोग शिवपूजनमें नहीं किया जाता । शिवपिंडीपर भस्म लगाते हैं, क्योंकि वह लयका द्योतक है । पिंडीके दर्शनीय भागसे भस्मकी तीन समांतर धारियां बनाते हैं । उनपर मध्यमें एक वृत्त बनाते हैं, जिसे शिवाक्ष कहते हैं ।
१ उ. शिव पूजा में अन्य एक महत्त्वपूर्ण घटक है, श्वेत अक्षत
श्वेत अक्षत वैराग्यके, अर्थात निष्काम साधनाके द्योतक हैं । श्वेत अक्षतकी ओर निर्गुणसे संबंधित मूल उच्च देवताओंकी तरंगें आकृष्ट होती हैं । शिवजी एक उच्च देवता हैं तथा वे अधिकाधिक निर्गुणसे संबंधित है । इसलिए श्वेत अक्षत पिंडीके पूजनमें प्रयुक्त होनेसे शिवतत्त्वका अधिक लाभ मिलता है ।
१ ऊ. शिव पूजा में प्रयुक्त पुष्प
शिवजीको श्वेत रंगके पुष्प ही चढाएं । उनमें रजनीगंधा, जाही, जुही एवं बेला के पुष्प अवश्य हों । ये पुष्प दस अथवा दस की गुनामें हों । तथा इन पुष्पोंको चढाते समय उनका डंठल शिवजीकी ओर रखकर चढाएं । पुष्पोंमें धतूरा, श्वेत कमल, श्वेत कनेर, आदी पुष्पोंका चयन भी कर सकते हैं ।
१ ए. शिव पूजा में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा शिवजीको प्रिय घटक है बिल्वपत्र
अथर्ववेद, ऐतरेय एवं शतपथ ब्राह्मण, इन ग्रंथोंमें बिल्ववृक्षका उल्लेख आता है । यह एक पवित्र यज्ञीय वृक्ष है । ऐसे पवित्र वृक्षका पत्ता सामान्यतः त्रिदलीय होता है । यह त्रिदल बिल्वपत्र त्रिकाल, त्रिशक्ति तथा ओंकारकी तीन मात्रा इनके निदर्शक हैं ।
१ ऐ. शिवपिंडी पर बिल्वपत्र चढाने की पद्धति तथा बिल्वपत्र तोडने के नियम
बिल्ववृक्षमें देवता निवास करते हैं । इस कारण बिल्ववृक्षके प्रति अतीव कृतज्ञताका भाव रखकर उससे मन ही मन प्रार्थना करनेके उपरांत उससे बिल्वपत्र तोडना आरंभ करना चाहिए । शिवपिंडीकी पूजाके समय बिल्वपत्रको औंधे रख एवं उसके डंठलको अपनी ओर कर पिंडीपर चढाते हैं । शिवपिंडीपर बिल्वपत्रको औंधे चढानेसे उससे निर्गुण स्तरके स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं । इसलिए बिल्वपत्रसे श्रद्धालुको अधिक लाभ मिलता है । सोमवारका दिन, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या, ये तिथियां एवं संक्रांतिका काल बिल्वपत्र तोडनेके लिए निषिद्ध माना गया है । बिल्वपत्र शिवजीको बहुत प्रिय है, अतः निषिद्ध समयमें पहले दिनका रखा बिल्वपत्र उन्हें चढा सकते हैं । बिल्वपत्रमें देवतातत्त्व अत्यधिक मात्रामें विद्यमान होता है । वह कई दिनोंतक बना रहता है ।
१ ऐ १. बिल्वपत्र का सूक्ष्म-चित्र
अ. निर्गुण शिवतत्त्व बिल्वपत्रकी ओर आकृष्ट होता है ।
आ. इससे बिल्वपत्रके हर एक पत्तेमें त्रिगुणात्मकताकी बहिर्गामी सर्पचक्राकार तरंगें कार्यरत होती हैं ।
इ. बिल्वपत्रसे शक्तिके कार्यरत स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं।
ई. साथही शांतिके कणोंका भी प्रक्षेपण होता है।
१ ऐ २. बिल्वपत्र का सू्क्ष्म परिणाम
बिल्वपत्रमें सात्त्विकताकी मात्रा अधिक होनेके कारण सात्त्विक तरंगोंको ग्रहण एवं प्रक्षेपित करनेकी उसकी क्षमता अधिक होती है । यह एक सूक्ष्म स्तरपर अर्थात आध्यात्मिक स्तरपर होनेवाली प्रक्रिया है । इसका परिणाम विविध प्रकारसे होता है । इनमेंसे एक है, वातावरणमें विद्यमान रज-तम प्रधान तत्त्वोंका प्रभाव कम होना ।
अ. ब्रह्ममंडलमें विद्यमान शिवस्वरूप चैतन्यकी निर्गुण-सगुण तरंगें बिल्वपत्रमे आकृष्ट होती है ।
आ. बिल्वपत्रमें शांति विद्यमान होती है ।
इ. बिल्वपत्रसे धूसर रंगके निर्गुण शिवतत्त्वके वलयोंका प्रक्षेपण होता है ।
ई. वातावरणमें चैतन्यके वलयोंका भी प्रक्षेपण होता है ।
उ. वातावरणमें शक्तिके कणोंका प्रक्षेपण होता है ।
२. कालानुसार आवश्यक उपासना
आजकल विविध प्रकारसे देवताओंका अनादर किया जाता है । इसके कुछ उदाहरण देखेंगे । नाटकों एवं चित्रपटोंमें देवी-देवताओंकी अवमानना करना, कलास्वतंत्रता के नाम पर देवताओंके नग्न चित्र बनाना, व्याख्यान, पुस्तक आदिके माध्यमसे देवताओंपर टीका-टिप्पणी करना, व्यावसायिक विज्ञप्तिके लिए देवताओंका ‘मौडेल’ के रूप में उपयोग किया जाना, उत्पादनोंपर देवताओंके चित्र प्रकाशित करना तथा देवताओंकी वेशभूषा पहनकर भीख मांगना इत्यादि अनेक प्रकार दिखाई देते है । यही सब प्रकार शिवजी के संदर्भ में भी होते है ।
देवताओंकी उपासना का मूल है श्रद्धा । देवताओंके इस प्रकार के अनादर से श्रद्धा पर प्रभाव पडता है; तथा धर्म की हानि होती है । धर्महानि रोकना कालानुसार आवश्यक धर्मपालन है । यह देवता की समष्टि अर्थात समाज के स्तरकी उपासना ही है । इसके बिना देवता की उपासना परिपूर्ण हो ही नहीं सकती । इसलिए इन अपमानोंको उद्बोधनद्वारा रोकने का प्रयास करें । जो भक्तोंके अज्ञान को, अर्थात सत्त्व, रज तथा तम को एक साथ नष्ट कर उन्हें त्रिगुणातीत करते हैं ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शिव’
0m namo shivay