सारिणी
- १. शिवपूजनसे पूर्व शिवभक्तको अपनी पूजापूर्व सिद्धता करना आवश्यक है ।
- २. भस्मके रूपमें किसका प्रयोग होता है ?
- ३. भस्मनिर्माणकी विधि
- ४. भस्मधारणकी विधि
- ५. भस्मधारणसे होनेवाले सूक्ष्म-परिणाम
- ६. शिवजीके पूजनकी पूर्वसिद्धतामें भस्मधारणके पश्चात आता है, रुद्राक्षधारण
- ७. शिवालयमें पूजाके लिए कहां बैठें ?
१. शिवपूजनसे पूर्व शिवभक्तको अपनी पूजापूर्व सिद्धता करना आवश्यक है ।
१ अ. भस्मधारण
यज्ञमें अर्पित समिधा एवं घीकी आहुतिके जलनेके उपरांत शेष बची पवित्र रक्षाको ‘भस्म’ कहते हैं । भस्मको विभूति एवं राख, इन नामोंसे भी जाना जाता है । देवीको कुमकुमार्चन, श्री गणेशजीको दूर्वार्चन करते हैं, उसीप्रकार शिवजीको भस्मार्चन किया जाता है । भस्मार्चन अर्थात शिवजीका नामजप करते हुए या शिवजीका एक-एक नाम उच्चारण करते हुए शिवपिंडीपर भस्म अर्पण करना । भस्मार्चनके उपरांत शिवतत्त्वसे भारित भस्म उपयोगमें लाते हैं । शिवपूजनमें भस्मधारणका महत्त्व है । भस्मधारण किए बिना शिवपूजा आरंभ नही करते ।
२. भस्मके रूपमें किसका प्रयोग होता है ?
भस्मधारण हेतु गोमय द्रव्य (गोबर) अग्निमें डालकर सिद्ध किया गया भस्म संतोंद्वारा किए गए यज्ञसे प्राप्त भस्म अग्निहोत्रि ब्राह्मणके अग्निकुंडकी भस्म प्राचीन यज्ञस्थलकी मिट्टी कर्नाटक राज्यके गाणगापुरमें स्थित भस्मपर्वतकी भस्म एवं चिताभस्म अर्थात मृतको मंत्राग्नि देकर दाहसंस्कारसे निर्मित रक्षा इनका प्रयोग करते हैं । शिवजीको चिताभस्म अधिक प्रिय होती है; अपितु सर्वसामान्य व्यक्तियोंको चिताभस्म सहन नही होती । इसलिए गायके गोबरसे बने उपलोंका उपयोग कर बनाई भस्मका ही अधिकतर उपयोग किया जाता है ।
३. भस्मनिर्माणकी विधि
भस्म बनानेके लिए देसी गायका गोबर धरतीपर गिरनेसे पहले ही जमा करते हैं । जिस स्थानपर भस्म बनाना हो, उस स्थानको गोबरसे लीपते हैं । गोमूत्र अथवा विभूतिका जल छिडककर स्थान शुद्ध करते हैं एवं उस स्थानके चारों ओर रंगोली बनाते हैं । तदुपरांत उस स्थानपर किसी चौडे पात्रमें उपले रखते हैं । उनपर देसी गायका घी डालकर उसपर कर्पूर रखते हैं । कुलदेवता, इष्टदेवता एवं गुरुसे प्रार्थना कर तत्पश्चात उपलेपर रखा कर्पूर प्रज्वलित करते हैं । विधि पूर्ण होनेतक कुलदेवता अथवा इष्टदेवताका नामजप किया जाता है । भस्म तैयार होनेके उपरांत उसे एक पात्रमें भरते हैं । उस पात्रको दाहिने हाथसे स्पर्श कर भावपूर्ण रूपसे दस बार ‘ॐ नमः शिवाय ।’ नामजप करते हैं । ऐसा करनेसे भस्म अभिमंत्रित होती है । भस्म अभिमंत्रित करनेका अर्थ है, भस्ममें देवताका चैतन्य लाना । अभिमंत्रित भस्मका उपयोग अधिक लाभदायक सिद्ध होता है ।
४. भस्मधारणकी विधि
भस्मधारण मंत्रोच्चारसहित करना चाहिए; परंतु यदि मंत्रोंका ज्ञान न हो, तो भक्तिभावसे मनही मन ‘ॐ नमः शिवाय ।’ इस मंत्रका जप करते हुए भस्म लगाएं । उसकी महिमा अपरंपार है । ‘भस्मधारणकी विधि आगे बताए अनुसार करें । सर्वप्रथम आचमन एवं प्राणायाम करें । कंधेपर धारण किया हुआ उपरना उतारकर पैरोंपर रखें । बाईं हथेलीपर थोडी भस्म लेकर उसे पानीसे गीला करें । तत्पश्चात दाहिने हाथकी बीचकी तीन उंगलियोंसे भस्मको ललाटपर समांतर लगाएं । उसके उपरांत कंठ अर्थात गलेपर, बादमें हृदयपर भस्म लगाएं । पुनः एक बार दाहिनी हाथकी बीचकी तीन उंगलियोंको भस्म लगाकर उन्हीं उंगलियोंसे बाईं हाथकी बीचकी तीन उंगलियोंको भस्म लगाएं । तत्पश्चात पहले बाएं हाथकी बीचवाली तीन उंगलियोंसे दाहिने दंडपर एवं दाहिने हाथकी बीचवाली तीन उंगलियोंसे बाएं दंडपर भस्म लगाएं । पश्चात इसी प्रकार दोनों कोहनियों तथा कलाइयोंपर भस्म लगाएं । इसके उपरांत दाहिने हाथकी उंगलियोंसे नाभिके ऊपर भस्म लगाएं । अंतमें दोनों पैरोंपर भस्म लगाएं । भस्मधारण विधि संपन्न होनेतक मनही मन ‘ॐ नमः शिवाय।’ नामजप जारी रखें । भस्मधारण करनेके उपरांत हाथ जलसे धो लें एवं उपरना पुनः कंधेपर रखें । अंततः पुनः एक बार आचमन तथा प्राणायाम कर विधि पूर्ण करें ।
५. भस्मधारणसे होनेवाले सूक्ष्म-परिणाम
भस्मधारण करनेके कृत्यसे भस्म धारण करनेवाले व्यक्तिकी ओर ब्रह्मांडसे शिवतत्त्मात्मक प्रवाह आकृष्ट होता है । साथही चैतन्यका प्रवाह भी आकृष्ट होता है । जो उसके देहमें स्थित कुंडलीनीके चक्रोमें चैतन्य जागृत करता है। आज्ञाचक्रपर भस्म लगानेसे अप्रकट शक्तिका वलय निर्मित होता है एवं व्यक्तिपर कुछ मात्रामें ज्ञानशक्ति प्राप्त होती है । विशुद्धचक्रपर भस्मधारण करनेसे तारक शक्तिका वलय कार्यरत स्वरूपमें घुमता रहता है । इससे व्यक्तिकी वाणी शुद्ध होती है ।
अनाहतचक्रपर भस्म धारण करनेसे भावका वलय निर्मित होता है । इस वलयसे चैतन्यका वलय निर्मित होता है । मणिपूर चक्रपर भ्रस्म धारण करनेसे चैतन्य और शक्ति निर्मित होती है । इससे पेटके विकार कम होनेमें सहायता मिलती है । दोन्हो दंड कुहनीयोंके उपरकी ओर एवं कलाईकी उपर भस्म धारण करनेसे आवश्यकतानुसार शक्तिके तारक एवं मारक वलय निर्मित होते हैं । यह शक्ति भस्म धारण करनेवाले व्यक्तिको कार्य करनेमे स्फूर्ति प्रदान करती है ।
पैरोंके उपरकी भाग की ओर भस्म लगानेसे शक्तिका वलय निर्मित होता है । भस्म लगानेके इस कृत्यद्वारा बाए कंधेसे दाहिने पैर तक एवं दाहिने कंधेसे बाए पैरतक चैतन्यके प्रवाहोंका प्रसारण होता है । व्यक्तिकी देहमें शक्तिके कणोंका प्रसारण होता है । अनिष्ट शक्तिसे रक्षा हेतु व्यक्तिकी देहके चारो ओर सुरक्षाकवच निर्मित होता है ।
यह सूक्ष्म-चित्र देखकर शिवपूजनसे पूर्व भस्मधारण करनेका महत्त्व आपको स्पष्ट हुआ होगा ।
६.शिवजीके पूजनकी पूर्वतैयारीमें भस्मधारणके बाद आता है, रुद्राक्षधारण
शिवपूजन करते समय गलेमें रुद्राक्षकी माला अवश्य धारण करें। रुद्राक्षको सोने, चांदी, तांबे अथवा ऊनके धागेमें पिरोकर धारण करते हैं । किसी भी देवताके जप हेतु रुद्राक्षमालाका प्रयोग किया जा सकता है । रुद्राक्षमालाको गलेमें अथवा शरीरपर अन्यत्र धारण कर किया गया जप, बिना रुद्राक्षमाला धारण किए गए जपसे सहस्र गुना अधिक लाभदायक होता है । इसी प्रकार अन्य किसी मालासे जप करनेकी तुलनामें रुद्राक्षकी मालासे जप करनेपर दश सहस्र गुना अधिक लाभ होता है ।
७. शिवालयमें पूजाके लिए कहां बैठें ?
सामान्यतः शिवमंदिरमें पूजा एवं साधना करनेवाले श्रद्धालुगण शिवजीकी तरंगोंको सीधे अपने शरीरपर नहीं लेते । क्योंकि उन तरंगोंको सहनेकी हमारी क्षमता नहीं होती और इससे हमें कष्ट हो सकता है । विष्णुरूपके मंदिरोंमें देवताकी मूर्तिके सामनेकी ओर कछुआ होता है । उसके एवं देवताकी मूर्तिके मध्यमें कोई नहीं बैठता । उसी प्रकार शिवजीके मंदिरमें अरघाके स्रोतके ठीक सामने न बैठकर आकृतिमें दिखाए अनुसार एक ओर बैठते हैं । क्योंकि शिवजीकी तरंगें सामनेकी ओरसे न निकलकर, अरघाके स्रोतसे बाहर निकलती हैं । १ से ७ – यहां बैठकर साधक पूजा कर सकते हैं । ८ – यहां कोई न बैठे ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शिव’