युगों के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि स्तरों के त्रिगुणों की मात्रा में परिवर्तन होता गया । इनमें प्रदत्त व्यष्टि एवं समष्टि, इन दोनों स्तरों का परिणाम मनुष्य पर होकर उसके विचार एवं कृत्य में परिवर्तन हुआ । उसका परिणाम प्रकृति पर भी हुआ । इस प्रकार मनुष्य के आचरण का परिणाम मानवीय एवं प्राकृतिक, दोनों स्वरूप की आपदाओं पर हुआ ।
१. युगों के अनुसार साधना न करनेवाले तथा युद्ध की मात्रा
युग | साधना न करनेवालों की मात्रा (प्रतिशत) | युद्धों की (मानवीय आपदाओं की) मात्रा (प्रतिशत) |
१. सत्ययुग | १० | १० |
२. त्रेतायुग | ३० | ३० |
३. द्वापरयुग | ५० | ५० |
४. कलियुग | ९० | ९० |
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले
साधना न करने के दुष्परिणाम
साधना के कारण सत्त्व गुण में वृद्धि होकर रज-तम गुण न्यून हो जाते हैं । साधना न करने से सत्त्वगुण बढने का मार्ग बंद हो जाता है । युगों के अनुसार साधना न करनेवाले मनुष्यों की मात्रा बढती गई । उसके कारण मनुष्य में सात्त्विकता की मात्रा भी न्यून होकर उनमें रज-तम भारी मात्रा में बढा । उससे मानवीय आपदारूपी युद्धों की मात्रा बढी है ।
२. युगों के अनुसार सत्त्व, रज एवं तम, इन गुणों की मात्रा
युग | सत्त्वगुण की मात्रा (प्रतिशत) | रजोगुण की मात्रा (प्रतिशत) | तमोगुण की मात्रा (प्रतिशत) |
१. सत्ययुग | ६० | ३० | १० |
२. त्रेतायुग | ५० | ३५ | १५ |
३. द्वापरयुग | ४० | ४० | २० |
४. कलियुग | २० | ४५ | ३५ |
व्यक्ति में विद्यमान रजोगुण एवं तमोगुण के बढने से व्यक्ति का आक्रामक बनना
रजोगुण के कारण मनुष्य द्वारा कर्म घटित होता है तथा तमोगुण के कारण व्यक्ति का अहंकार बढकर वह स्वार्थी, संकीर्ण एवं हिंसक बन जाता है । रज एवं तम गुणों के संयुक्तिकरण के कारण व्यक्ति में प्रदत्त स्वार्थ शीर्षतक पहुंचकर वह आक्रामक बन जाता है । रज-तमप्रधान व्यक्ति के स्वार्थी एवं संकीर्ण विचारोंवाला बनने के साथ वह महत्त्वाकांक्षी एवं अहंकारी बनने के कारण वह सभी पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करता है । उसी प्रकार उसमें विस्तारवाद की लालसा जागृत होने के कारण वह नए-नए प्रांत जीतने के लिए तथा विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए निरंतर युद्ध करने लगता है ।
३. युगों के अनुसार साधक, सामान्य व्यक्ति तथा दुष्प्रवृत्तिवाले व्यक्तियों की मात्रा
युग | साधकों की मात्रा (प्रतिशत) | सामान्य व्यक्तियों की मात्रा (प्रतिशत) | दुष्प्रवृत्तिवाले व्यक्तियों की मात्रा (प्रतिशत) |
१. सत्ययुग | ७० | २० | १० |
२. त्रेतायुग | ५० | ३० | २० |
३. द्वापरयुग | ३० | ४० | ३० |
४. कलियुग | २० | ३० | ५० |
युगों के अनुसार साधकों की संख्या न्यून (कम) होकर साधना न करनेवाले तथा दुष्प्रवृत्तिवाले व्यक्तियों की संख्या बढती चली गई । दुष्प्रवृत्तिवाले व्यक्ति अनाचारी एवं अत्याचारी होने के कारण युगों के अनुसार मनुष्यों में होनेवाले युद्धों की मात्रा भी बढती गई ।
४. युग, त्रिगुणों में से प्रधान गुण एवं ऋतुचक्र
की प्रतिकूलता की (प्राकृतिक आपदाओं की) मात्रा
युग | त्रिगुणों में से प्रधान गुण | ऋतुचक्र की प्रतिकूलता की (प्राकृतिक आपदाओं की) मात्रा (प्रतिशत) |
१. सत्ययुग | सत्त्व | २० |
२. त्रेतायुग | सत्त्व-रज | ३० |
३. द्वापरयुग | रज-सत्त्व | ५० |
४. कलियुग | रज-तम | ८० |
५. मनुष्य एवं प्रकृति
५ अ. मनुष्य के विचार एवं कृत्यों के कारण प्रकृति का प्रभावित होना
मनुष्य के विचार और कृत्यों का परिणाम उसके आस-पास के वातावरण पर होता है तथा इस वातावरण का परिणाम प्रकृति पर होता है । इस प्रकार से मनुष्य अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति पर अपना प्रभाव बनाता रहता है ।
५ आ. धर्मचक्र पर आधारित ऋतुचक्र का धर्माचरण के कारण
सुव्यवस्थित चलना तथा अधर्माचरण बढने पर ऋतुचक्र में अनियमितताएं आना
प्रकृति का आचरण मनुष्य के धर्माचरणपर निर्भर होता है । धर्मचक्र पर आधारित ऋतुचक्र धर्माचरण के कारण सुव्यवस्थित चलता है तथा अधर्माचरण बढनेपर ऋतुचक्र में अनियमितताएं आती हैं । इसलिए जब मनुष्य साधना नहीं करता, तब उसमें प्रदत्त रज-तम गुणों की मात्रा बढती है । इसका परिणाम वातावरण पर होकर वातावरण की सात्त्विकता नष्ट होती है और उससे वातावरण भी रज-तमप्रधान बन जाता है । मनुष्य के साधना करना छोड देने के कारण प्रकृति का चक्र बिगड गया है तथा ऋतुचक्र बिगडकर सभी ऋतु मनुष्य के लिए प्रतिकूल बन गए हैं । कलियुग में मनुष्य के रज-तमोगुणी होने से और उसमें धर्माचरण का अभाव होने के कारण प्रकृति मनुष्य पर कोपित होकर मनुष्य के लिए प्रतिकूल बन गई है । उसके कारण ही कलियुग में प्राकृतिक आपदाओं की मात्रा सर्वाधिक है ।
इससे मनुष्य जीवन में धर्माचरण एवं साधना का कितना महत्त्व है, यह ध्यान में आता है । मानवीय एवं प्राकृतिक आपदाओं को न्यून करने के लिए मनुष्य को निरंतर धर्माचरण और साधना करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । तो ही पृथ्वी टिक सकती है और पृथ्वी पर रहनेवाला मनुष्य वास्तव में सुखी बन सकता है ।